अलग-अलग भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज और परंपराओं के बावजूद राष्ट्रीय चरित्र को अपने स्वाभाविक आचरण में आत्मसात करने के प्रति आम नागरिकों में समर्पण के भाव सदैव विद्यमान रहे हैं। राजनीतिक कारणों से क्षेत्र तथा भाषा के आधार पर वर्ग भेद करते हुए क्षेत्रीय क्षत्रपों द्वारा क्षेत्रवाद को बढ़ावा जरूर दिया गया, लेकिन आम नागरिकों की राष्ट्रवादी भावनाएं मुख्यधारा के विपरीत नहीं जा सकी। बावजूद इसके वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों के मद्देनजर हमें और अधिक चौकन्ना रहने की नितांत आवश्यकता है।
देश की एकता और अखंडता को तार-तार करने की कोशिशें राजनीतिक संरक्षण पाती जा रही हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अलगाववाद को प्रोत्साहित किया जा रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा अपने-अपने प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों के वर्चस्व को कम करने के लिए राष्ट्रीय हितों को तिलांजलि देने का अनुक्रम जारी है। राष्ट्र के प्रति निष्ठा और समर्पण के भाव बौद्धिक जुगाली की विषयवस्तु बनते जा रहे हैं।
अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग विचारधारा के राजनीतिक दलों की सत्ता अपनी अपनी नीतियों को क्रियान्वित कर रही है। राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि की ऐसी होड़ राष्ट्रवाद की भावनाओं को आहत करती जा रही है। ऐसे में राष्ट्रवादी सोच को प्रोत्साहित करने की रीति-नीति अपनाने की सख्त आवश्यकता है।
राजनीति में नैतिक मूल्यों का विलोपन हो रहा है। व्यक्ति केंद्रित राजनीतिक दल सशक्त बनते जा रहे हैं। प्रकारांतर से लोकतंत्र के नाम पर एकतांत्रिक व्यवस्था भी मूर्त रूप ले रही है। अक्सर क्षेत्रीय मुद्दों को उछालकर आम नागरिकों की भावनाओं को भड़काने का दौर भी जारी है। केंद्र व राज्यों में अलग अलग दल की सरकार होने पर केंद्र तथा राज्य के संबंधों में तकरार स्वाभाविक रूप से हो सकती है।
लेकिन ऐसी तकरार अपने अहम की तुष्टि के लिए होने लगे, तब समस्याएं विकट होती जाती हैं। दशकों पूर्व केंद्र व राज्य संबंधों की समीक्षा के लिए बहुतेरे प्रयास किए गए। लेकिन जैसे-जैसे क्षेत्रीय नेतृत्व की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा बढ़ती रही, वैसे-वैसे इन संबंधों में दूरियां बनने लगीं।
वर्तमान व्यवसायिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक रूप से विभिन्न प्रांतवासी परस्पर बेहतर तालमेल रखते हैं। कहीं कोई पूर्वाग्रह या कटुता के भाव नहीं होते। साथ ही एक दूसरे की संस्कृति को आपस में साझा करने की उत्कंठा का परिचय भी मिलता है। परस्पर जिज्ञासु भाव के आकर्षण के चलते अलग-अलग तौर-तरीकों को सीखने-समझने का व्यापक अनुभव पाने की भावना भी बलवती होती देखी जाती है। दरअसल, जो भी कुछ अवरोध है, वह राजनीतिक स्तर पर है।
राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास, मप्र
बुजुर्गों की छांव
जिनको अपने बुजुर्गों का साथ मिलता है, उनको लंबे काल का अनुभव कम समय में मिल जाता है। वे बुजुर्ग दादा-दादी, नाना-नानी आदि रूप में हो सकते हैं। भारतीय परिवारों में बच्चों का जीवन सामान्यत: दादी की गोद में ही व्यतीत होता रहा है, जिनसे रात में सोने से पहले कहानी, गीत आदि सुनने को मिलते हैं। इससे बच्चे का दो स्तर पर विकास होता है। पहला फायदा यह है कि इससे बच्चों की स्मरण शक्ति दृढ़ होती है, दूसरा यह कि भारत की नैतिकता से परिपूर्ण कहानियां बच्चे के नैतिक विकास में सहायक साबित होती हैं।
इसके अलावा, वृद्धों से जुड़ना बच्चों में वृद्धों के प्रति प्रेम उत्पन्न करता है। दादा-दादी और पोते-पोती का बंधन अत्यंत प्रेमपूर्ण संबंध के रूप में जाना जाता रहा है, लेकिन आज मोबाइल के युग ने इस बंधन में खलल डाली है, जिस कारण बच्चे बुजुर्गों से पहले की तरह मजबूती से नहीं जुड़ पा रहे हैं। इस कारण बच्चों के पिता भी अपने माता-पिता की उपेक्षा करते दिख रहे हैं, जिसका अंदाजा वृद्धाश्रमों में बढ़ती संख्या से लगाया जा सकता है।
वृद्धावस्था में मानव की उत्पादक क्षमता कम होने लगती है। ऐसे में बच्चों से जुड़ाव वृद्धों के लिए शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है। इसलिए हमको बच्चों और बुजुर्गों के इस अमूल्य रिश्ते को फिर से जोड़ना होगा, क्योंकि जीवन का जो पाठ बुजुर्गों द्वारा पढ़ाया जा सकता है, तकनीकी दुनिया उसकी भरपाई नहीं कर सकती है। इसके लक्षण बच्चों द्वारा मोबाइल के अति उपयोग से दिखाई भी दे रहे हैं।
आज मोबाइल के अति उपयोग के कारण बच्चे शारीरिक गतिविधियों से दूर हैं, जिससे अल्पकाल से ही उनमें मोटापे जैसी समस्या देखने को मिल रही है। मोबाइल फोन न केवल बच्चों को शारीरिक रूप से कमजोर बना रहा है, बल्कि उनके अंदर अकारण गुस्सा, बेचैनी, नाराजगी जैसे मनोविकारों को भी उत्पन्न कर रहा है।
मोहम्मद अफजल, दिल्ली विवि
अभिव्यक्ति पर अंकुश
केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष ने एक बयान में कहा कि ‘पठान’ फिल्म के निर्माताओं को गानों सहित ‘सुझाए गए बदलावों को लागू करने और संशोधित संस्करण जमा करने’ के लिए कहा गया है। यशराज की यह चर्चित फिल्म, जो इसी महीने तेईस जनवरी को प्रदर्शित होने के लिए तैयार हो चुकी है, सेंसर बोर्ड अपना काम पूरी तरह से खत्म करने के बाद इस फिल्म को प्रमाणपत्र जारी कर चुका था, अब फिर से उस पर दबाव डाला जा रहा है कि उसे बदलाव करने चाहिए क्योंकि इससे हिंदू भावनाओं को ठेस पहुंचता है।
इसका मतलब यह हुआ कि अब देश की तमाम संस्थाएं, जिन्हें हम जानते थे कि वे स्वतंत्र रूप से काम करती हैं, वे अब दबाव में आकर निर्णय ले रही हैं और दबाव में ही बदलाव करवा रही हैं। इसका मतलब तो यह हुआ की कल को अदालत के किसी फैसले से किसी आंदोलन के डर से उसे बदल दिया जाएगा! यह किस तरह की कार्य संस्कृति का हम विकास कर रहे हैं? क्या अब इस देश को संवैधानिक संस्थाओं की जरूरत नहीं? क्या अब यहां भी ईरान की तरह नैतिक पुलिस की तैनाती हर गली-मोहल्ले में कर दी जाएगी?
जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर