अब यह मामला कुछ जनहित याचिकाओं के सहारे सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। वास्तव में, न तो किसानों और न ही सरकार ने इस मामले में शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया है, बल्कि अदालत दो वकीलों के अलावा एक आम आदमी के अनुरोध पर सुनवाई कर रही है। अब यह भी कहा जाने लगा है कि अगर इस मुद्दे पर पहले ही किसानों के साथ चर्चा की गई होती तो शायद सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप नहीं करना पड़ता।

उल्लेखनीय है कि प्रदर्शन स्थलों पर ठंड में भी किसान दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बॉर्डर और टिकरी बॉर्डर पर जमे हुए हैं। यों तो देश के सभी हिस्सों से किसान इस प्रदर्शन में भाग ले रहे हैं, लेकिन उनमें अधिकतर पंजाब के किसान हैं। इसमें उनके खिलाफ कई तरह के नकारात्मक प्रचार करने की कोशिश की जा रही है। लेकिन ऐसे प्रचार को कामयाबी नहीं मिल सकी।

सरकार कहती है किसानों को इन सुधारों से खुश होना चाहिए था, लेकिन कानूनों पर बारीकी से नजर डालने से महसूस होता है कि नए कृषि कानून किसानों को नुकसान पहुंचाएंगे। खासकर छोटे और मध्यम दर्जे के किसानों को। मोटे तौर पर देखने पर यह बात समझना मुश्किल है कि इन कानूनों की इबारत के बीच क्या-क्या छिपा हुआ है।

किसानों के लिए विकल्प खुल जाएं, यह अच्छी बात है। लेकिन बाजार खुलने के साथ जोखिम के लिए भी रास्ते खुल जाते हैं। इन जोखिमों से कैसे बचा जाएगा, इसका कोई उल्लेख नहीं है, जो विशेष रूप से कमजोर तबके के किसानों को प्रभावित करेगा। एक समस्या यह है कि तीनों कानून किसानों की सहमति के बिना बनाया गया है। किसान इन्हें व्यापक हितों के खिलाफ मानते हैं।

सरकार कहती है कि एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य को समाप्त नहीं किया जाएगा, लेकिन कॉरपोरेट कंपनियों को बाजार में उतरने और अनुबंध पर खेती करने और भंडारण के लिए जो रियायत और सुविधा दी जा रही है, इसका नतीजा यही निकलेगा कि बड़े किसान, बड़ी कंपनियों से समझौता करके खुश रहेंगे और छोटे किसान मुंह देखते रह जाएंगे। आम उपभोक्ता का खयाल भी नहीं किया गया। हालांकि सरकार का कहना है कि नए कानून की मदद से किसानों को अधिक विकल्प मिलेंगे और उनको फसल का बेहतर मूल्य मिलेगा।

इसके अलावा, कृषि मंडियों, प्रसंस्करण और बुनियादी ढांचे में निजी निवेश को प्रोत्साहित किया जाएगा, जबकि किसानों को लगता है कि नया कानून उनके मौजूदा संरक्षण को खत्म कर देगा। किसान ऐसा मानते हैं कि उन्हें जो चाहिए वह नए कानून में नहीं है। इसलिए किसान संगठनों ने तीनों कानूनों को निरस्त करने की मांग की है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि सरकार अपनी जिद छोड़ कर किसानों की मांग पर विचार करे।
’फ़ैसल फ़ारूक़, मुंबई, महाराष्ट्र

बिगड़े बोल

अभी तक चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल में चुनावों की घोषणा नहीं की है, लेकिन राज्य में चुनावी माहौल गरमा गया है। नेताओं का एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाने का सिलसिला शुरू हो गया है, रिश्ते भी टूटने लगे हैं। नेताओं का अपने विरोधियों पर कीचड़ उछालने का सिलसिला भी शुरू हो गया है। नेता जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, वह हर तरह से निंदनीय है।

खुद को माननीय कहने वाले लोग ये भी नहीं जानते कि ऐसी भाषा सुन कर आम आदमी कितना व्यथित है, विशेषकर युवा वर्ग। भाषा की शालीनता खत्म हो गई है और नफरत बढ़ती जा रही है। ये नेता जिस तरह की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, उससे आम आदमी का इनके प्रति विश्वास कम हुआ है। पक्ष और विपक्ष मिलजुल कर देश की तरक्की के लिए काम करेंगे, तभी इनकी साख बचेगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो नोटा बटन दबाने वालों की संख्या बढ़ती जाएगी।
’चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली</p>