इसके पूर्व भी जिन राज्यों में चुनाव हुए, वहां का मतदान प्रतिशत बहुत संतोषजनक नहीं माना जा सकता। बुनियादी सवाल यह है कि चुनाव भारतीय लोकतंत्र में एक पर्व की तरह मनाने की धारणा है तो फिर क्या कारण है कि दिन-प्रतिदिन मतदान के फीसद में कमी दिख रही है।

समाजशास्त्रियों के कई सर्वेक्षण से यह दृष्टिगोचर हुआ है कि वर्तमान में अधिकांश जन प्रतिनिधियों की भूमिका सामाजिक मूल्यों और तानेबाने के अनुसरण आचरण से प्रतिकूल होता गया है। पहले निर्वाचित प्रतिनिधि अपने क्षेत्र की हर गतिविधि और मतदाताओं के दुख-सुख से जुड़े रहा करते थे। चुनाव प्रचार कभी जमीनी स्तर पर हुआ करते थे, जिसके कारण अभ्यर्थियों का मतदाताओं से गहन संपर्क की स्थिति भी बनी रहती थी। साथ ही साथ निर्वाचित प्रतिनिधि अपने क्षेत्र की मूलभूत समस्याओं से जुड़े भी रहा करते थे, जबकि उस समय संचार माध्यम अत्यंत सीमित थे।

अब तो धन बल की अपराजेय संसाधन ने चुनाव प्रचार को ‘हाई-टेक’ बना दिया है, जिससे आम जनता की उदासीनता में वृद्धि हो रही है। आम जन मानस यह मान बैठा है कि वोट के भूखे-प्यासे प्रत्याशी जब विजयश्री प्राप्त कर लेते हैं तो फिर उनका दर्शन दुर्लभ हो जाता है। विकास मद के कोष भी चुने गए प्रतिनिधि के बेहद नजदीकी को मिल पाने से बहुसंख्यक मतदाता भी उपेक्षित मुद्रा में आ गए हैं। जो मतदाता बिल्कुल अपने मत का उपयोग करते ही नहीं, उनकी मन:स्थिति ने मतदान व्यवस्था को शायद इसलिए अस्वीकार कर दिया है कि ऐसे वर्ग के लोग ‘रोज कमाओ, रोज खाओ’ के पाबंद हैं जो एक दिन भी अपने रोजी-रोजगार को छोड़ कर मतदान केंद्र पर नहीं जाना चाहते।

सवाल यह है कि मतदान के घटते आंकड़े लोकतंत्र की रक्षा के कवच को कब तक संभाले रहेंगे। राजनीतिक पंडितों को यह चिंतन करने का समय है कि आखिर कम मतदान से किसे लाभ और किसे नुकसान होना है। समय रहते अगर जागरूकता से और प्राप्त वाजिब कारणों को दूर नहीं किया गया तो संभव है कि चुनाव सिर्फ प्रजातंत्रीय औपचारिकता के आंगन में अंगड़ाई लेता रहेगा, जिसका सीधा नुकसान जनता जनार्दन को ही होगा।
अशोक कुमार, पटना, बिहार

जानलेवा बोरवेल

देश में बोरवेल में गिरने से मासूम बच्चों की मृत्यु की खबरें आए दिन मिलती रहती हैं। हाल ही में मध्य प्रदेश के बैतूल में बोरवेल में गिरे छह वर्ष के तन्मय को अथक प्रयासों के बाद भी बचाया नहीं जा सका। बोरवेल सफल नहीं होने पर उसे तुरंत ही ढक्कन से बंद नहीं कर खुला छोड़ देने की लापरवाही कई नौनिहालों को असमय ही काल का ग्रास बना लेती है।

बच्चे को बचाने में पूरी सरकारी मशीनरी तीन से चार दिन तक लगी रहती है और उधर बच्चा मौत से संघर्ष करता रहता है। लेकिन अधिकतर मामलों में बच्चे को बचाने की कोशिश सफल नहीं हो पाती है। यही बैतूल में तन्मय के साथ भी हुआ। विभिन्न विभागों के लगभग चार सौ से अधिक कर्मचारियों के प्रयास भी तन्मय की जिंदगी नहीं बचा सके।

इस संबंध में प्रशासन को कठोरता बरतनी चाहिए। बोरवेल करने वाली कंपनी के लिए अनिवार्य नियम होना चाहिए कि असफल बोरवेल को संपूर्ण रूप से बंद करके ही जाए। इस दिशा में प्रचलित एवं नए कानूनों का निर्माण कर दोषियों के विरुद्ध कठोर दंड के प्रावधान किए जाने चाहिए, जिससे इस प्रकार की घटनाओं को रोका जा सके।
रामबाबू सोनी, कसेरा बाजार, इंदौर</p>