लोकतंत्र ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें जनता की अपेक्षाओं के अनुरूप राज्य को काम करना चाहिए। इसे अमली जामा पहनाने के लिए संसद, विधानसभाएं और स्थानीय स्वशासन की संस्थाएं जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के जरिए राज्य का संचालन करतीं हैं। लोकतंत्र इस प्रणाली के साथ ही एक मूल्य भी है। मूल्यों के अभाव में केवल प्रणाली बगैर आत्मा के शरीर से अधिक कुछ ज्यादा नहीं रह जाएगी। लोकतांत्रिक मूल्यों को बहुत सटीक और सारगर्भित तरीके से भारत के संविधान की उद्देशिका में दिया गया है, जिसमें भारत को एक मानवीय, न्यायपरक, समतावादी, पंथनिरपेक्ष, किसी भी तरह (जाति, धर्म,भाषा, स्थान, लिंग) के भेदभाव से रहित देश बनाने का संकल्प है। लोकतंत्र में नीतियों और विचारों के विरोध के लिए सम्मानजनक स्थान है।

आजादी के बाद सरकारों ने संविधान के इस संकल्प को सम्मान देते हुए लागू करने की कोशिशें कीं। जिस तरह चांद की सुंदरता को कम करते हुए दाग और धब्बे हैं, उसी तरह संविधान की पवित्रता और सुंदरता को कलुषित करने वाली एक राजनीतिक विचारधारा हमारे यहां भी पनपती रही। नेहरू युग में तो कलुषित करने वाली विचारधारा को देश ने कोई तवज्जो नहीं दी। नेहरू के जाने के बाद उनकी ही कांग्रेस पार्टी ने संवैधानिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ शुरू कर दिया। बस फर्क इतना रहा कि कांग्रेसी माला तो जपते रहे संविधान में दिए गए मूल्यों की और करनी उसके विपरीत करते रहे। कांग्रेस के इसी पाखंड ने संवैधानिक मूल्यों को कलुषित करने वाली राजनीतिक विचारधारा को खाद-पानी दिया। इसके दुष्परिणाम आज देश भुगतने को अभिशप्त है।

क्या किसी ने कभी सोचा था कि इस देश में पूरी निर्लज्जता के साथ छाती ठोंक कर सरकार में बैठी पार्टी के मंत्री, सांसद, विधायक और महत्त्वपूर्ण व्यक्ति समता, धर्मनिरपेक्षता और मानवीय मूल्यों के खिलाफ जहर उगलेंगे? विरोध करने वालों को अपमानित-लांछित करेंगे? देश छोड़ कर पाकिस्तान चले जाने के फतवे जारी करेंगे? देश की भावनाओं और आवाज को अभिव्यक्ति देने वाले लेखकों-विचारकों को जान से मार दिया जाएगा? रात-दिन धमकाते हुए फरमान जारी होंगे कि यह खाओ, यह मत खाओ, यह मत करो, वह मत करो, होंठ सिल कर रहो। लेखकों-विचारकों, कलाकारों, फिल्मकारों, वैज्ञानिकों सहित सुधीजनों को आलोचना करने पर लांछित किया जाएगा? इस दमघोंटू माहौल में कब तक जिंदा रहा जा सकता है? और आखिर क्यों? ‘आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता /आदमी मरने के बाद कुछ नहीं बोलता / कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने से भी आदमी मर जाता है।’
’श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल</p>