लोकतंत्र का सही मायने में तभी अर्थपूर्ण है जब उसमें सरकार के प्रति व्यक्त असहमति और आलोचना का भी स्वागत किया जाए। कबीरदास जी ने कहा है- ‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय’, अर्थात खुद की निंदा करने वालों को अपने पास ही रखना चाहिए। लेकिन, आज सबसे बड़ा सवाल यह यह है कि निंदा या आलोचना की भाषा बोलने वाले पर राष्ट्रद्रोह लगा दिया जाता है।

आज राजनीतिक दल आलोचना करने वाले को दूर ही नहीं बल्कि नकारात्मक और राष्ट्र विरोधी की संज्ञा देने लगे हैं। क्या एक परिपक्व लोकतंत्र में राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह के अंतर को खत्म-सा कर दिया है? असहमति भले ही लोकतंत्र का मूलभूत गुण हो, लेकिन आज देश में ऐसे हालात हैं कि अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करना और किसी पार्टी या राज करने वाली सरकार के खिलाफ बोलना भी आपको देश-द्रोही की संज्ञा दिला सकता है। ऐसे में या तो आप जेल की सलाखों के पीछे होंगे या फिर, गली, नुक्कड़, बस या ट्रेन में या फिर सड़कों पर भीड़ आपका इंतजार कर रही होगी।

एक लोकतांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और राजद्रोह संबंधी कानूनी प्रावधानों के बीच अक्सर तनाव उभरता रहता है। गौरतलब है कि जब भी इस तरह का मामला प्रकाश में आता है तो देश में इस बात को लेकर एक जोरदार बहस छिड़ जाती है कि यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रत्येक व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है, तो फिर सरकार या नेताओं की आलोचना करना, सरकारी नीतियों या प्रशासनिक अधिकारियों की बुराई करना राजद्रोह क्यों और कैसे है? ऐसे में, कुछ लोग तो अति उत्साह में एक लोकतांत्रिक देश में राजद्रोह या देशद्रोह से संबंधित कानूनों को ही पूर्णतया अनावश्यक करार दे देते हैं।

उनका तर्क होता है कि लोकतंत्र में विरोध करना या अपनी बात कहना, जनता का बुनियादी हक है और लोकतंत्र की सार्थकता इसी से सिद्ध होती है। फिर जनता द्वारा निर्वाचित सरकार किस आधार पर अपने ही नागरिकों को देशद्रोही साबित करना चाहती है? दरअसल, हमें यह समझना होगा कि न तो सरकार और राज्य एक हैं, और न ही सरकार तथा देश। सरकारें आती-जाती रहती हैं, जबकि राज्य बना रहता है। राज्य संविधान, कानून और सेना से चलता है, जबकि राष्ट्र अथवा देश एक भावना है, जिसके मूल में राष्ट्रीयता का भाव होता है। हालांकि आज राजद्रोह को ही राष्ट्रद्रोह माना जाने लगा है। इस तरह के हालात में पार्टी को देश से ऊपर माना जाने लगता है। जबकि यह हमेशा सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि देश सर्वोच्च है, पार्टी या नेता नहीं।
’अमन जायसवाल, दिल्ली विवि, दिल्ली