चुनावों का बिगुल बजते ही ‘जनसेवकों’ की आत्मा करवट बदलने लगी है। अभी हाल में स्वामी प्रसाद मौर्य ने सत्ता की मलाई चाट कर ‘आत्मा’की आवाज पर भाजपा छोड़ दी। इन्हें पांच वर्ष बाद ‘बोध’ हुआ कि सरकार में दलितों और पिछड़ों का सम्मान नहीं है। इससे पहले इन्होंने बहन जी के साथ सत्तासुख भोगा और जब लगा कि बहन जी की राखी का धागा कमजोर होने लगा है, तो इनकी आत्मा ने झकझोर दिया और कमल थाम लिया। हालांकि गलती निरा इनकी भी नहीं है, गलती उन पार्टी के शीर्षस्थों की भी है जो इन्हें गले लगा कर उन कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करते हैं, जो पार्टी के प्रति वैचारिक आधार पर समर्पित हैं।
हालांकि इस बार लगता है कि मौर्य ने वास्तव में आत्मा की आवाज सुनी है, क्योंकि यह जानते हुए भी कि साइकिल में अब भी पंचर है, उस पर चढ़ कर सत्ता तक नहीं पहुंचा जा सकता, सत्ता को ठोकर मार दी। पर स्वामी जी ने तो यह नहीं सोचा होगा। उन्हें तो लाल टोपी में चमकता मुकुट दिखाई दे रहा है। बेटी संघप्रिया ने पाला बदलने से इसलिए मना कर दिया कि वह क्यों अभी ढाई वर्ष बचे सत्तासुख को ठोकर मारे। इसलिए उसने ‘ईमानदारी’ से दल बदलने को इनकार कर दिया। अभी देखना कि ये नेता कितने रंग बदलेंगे?
- नरेंद्र टोंक, मेरठ
इधर से उधर
जैसे ही देश के किसी राज्य में चुनावों की घोषणा होती है, वैसे ही नेताओं का दल बदलने का सिलसिला शुरू हो जाता है। अचानक ही नेताओं को अपनी मौजूदा पार्टी में कमियां नजर आने लगती हैं और अपने चुनाव क्षेत्र की भलाई के नाम पर नेता दल बदलने लगते हैं। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश में पांच साल तक मलाई काटने और मंत्री पद का सुख भोगने के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य को लगा कि वे गलत दल में हैं और इसलिए उन्होंने भाजपा छोड़ दी! अब वे समाजवादी पार्टी का उद्धार करेंगे! ऐसे लोगों के कोई सिद्धांत नहीं होते न ही उनका किसी भी पार्टी से भावनात्मक लगाव होता है। वे सिर्फ सत्तासुख भोगना चाहते हैं। ऐसे दल बदलुओं का कोई दीन-ईमान नहीं होता, जनता को ऐसे सत्ता के लालची नेताओं को कड़ा सबक सिखाना चाहिए।
- चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली</li>