स्थिति इतनी खराब है कि अब इसके सूक्ष्म कण वर्षा जल का हिस्सा बन सभी क्षेत्रों को भी प्रभावित कर रहे हैं। ऐसे में जिन देशों क्षेत्रों के लोग प्लास्टिक का उपयोग नहीं करते हैं, उनका भी बच पाना मुश्किल है।
सवाल उठता है कि प्रतिबंध के बाद भी प्लास्टिक का विभिन्न रूपों में उपयोग जारी कैसे है? क्या हम अपनी सुविधाओं की खातिर अपनी संतान के लिए बेहतर दुनिया नहीं छोड़ना चाहते हैं? फिर हम उन समुद्री जीव-जंतुओं की चिंता कैसे करेंगे?
हालांकि कई समुद्री उत्पाद का इस्तेमाल मानव भी करता है, जो इन्हीं जीव-जंतुओं के माध्यम से प्लास्टिक उनके पेट तक पहुंचता है, जिससे पेट संबंधी अनेक तरह की बीमारियां होने का खतरा रहता है। इसके अति सूक्ष्म कण हवा में तैरते रहते हैं, जो सांस के जरिए फेफड़ों में प्रवेश करते हैं। लिहाजा माइक्रो प्लास्टिक के नुकसान से लोगों को जागरूक करना होगा।
इसके लिए बाकायदा जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है, अन्यथा जैव विविधता का संतुलन गड़बड़ाने से जो आगत समस्याएं हैं, वह ऐसी अनेक महामारियों को जन्म दे सकती हैं। सबसे बड़ी बात है हमारे जीवन से ऐसी चीजें तुरंत हटवाने के इंतजाम किए जाएं जो प्रदूषणकारी हैं। प्लास्टिक का उपयोग वहीं हो, जिसका उन जगहों पर कोई अन्य विकल्प तैयार न हुए हों, अन्यथा हम खुद अपना जीवन बेकार करने पर उतारू होंगे।
मुकेश कुमार मनन, पटना
रेडियो का जीवन
23 दिसंबर 1922 को रेडियो पर पहली बार समाचार कार्यक्रमों का प्रसारण शुरू हुआ था। सूचना एवं समाचार प्रसारण में इसे एक बड़ी क्रांति माना गया। रेडियो प्रसारण से सूचनाओं को व्यापक समूह तक पहुंचाना सरल हो गया। आजादी के बाद से रेडियो जगत में आल इंडिया रेडियो का एकतरफा राज चला। रेडियो पर प्रसारित होने वाले कई कार्यक्रम बनाए गए और एक समय के बाद इसका विज्ञापन प्रसारण के लिए भी उपयोग किया जाने लगा।
मगर 1980 के दशक में वैश्वीकरण और उदारीकरण जैसी नीतियों के आने से रेडियो के क्षेत्र में विस्तार हुआ और इसमें पश्चिम का प्रवेश हुआ। रेडियो प्रसारण में निजी संस्थानों ने भी अपने हाथ आजमाने शुरू किए। इसके कारण एक समय के बाद आल इंडिया रेडियो की ख्याति कम होने लगी।
आज अगर रेडियो सुनने वालों और रेडियो का उपयोग करने वालों की बात की जाए तो शायद एक हजार में से महज अस्सी लोग इससे जुड़े होंगे। आज के समय में विविध भारती और आकाशवाणी जैसी रेडियो प्रसारण सेवाएं सिर्फ नाममात्र के लिए मौजूद हैं। रेड एफएम, बिग एफएम, रेडियो मिर्ची जैसे निजी संस्थानों के कंधे पर ही रेडियो का अस्तित्व अपनी आखिरी सांसें ले रहा हैं।
मेटा और ब्लाकचेन की ओर अग्रसर समाज में पाडकास्ट संस्कृति अधिक प्रचलित हुई है। आज हर प्रकार के कार्यक्रम और सूचनाएं पाडकास्ट के माध्यम से लोगों तक पहुंच जाती हैं। ऐसे में रेडियो का अस्तित्व लुप्त होने की कगार पर नजर आता है।
अंकित श्वेताभ, दिल्ली विवि
नई ऊंचाई
विज्ञान के क्षेत्र में भारत बहुत तेज गति से विश्व के शीर्ष देशों में शामिल होने की ओर बढ़ रहा है। आंकड़ों की मानें तो 2015 में भारत 130 देशों की वैश्विक खोज सूचकांक में 81वें नंबर पर था, लेकिन सात साल में ऐसे कई बड़ी खोज हुई विज्ञान के क्षेत्र में जिसके कारण भारत अब 41वें नंबर पर आ गया है। यह इस चीज को सार्थक करता है कि बहुत जल्द ही भारत भी तकनीक के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो जाएगा।
हाल ही में प्रधानमंत्री ने कहा था कि अगले पच्चीस वर्षों में भारत जिस ऊंचाई पर होगा, उसमें भारत की वैज्ञानिक शक्ति की बड़ी भूमिका होगी। भारत में विज्ञान आत्मनिर्भर बनाने वाला होना चाहिए। विज्ञान के प्रयास बड़ी उपलब्धियों में तभी बदल सकते हैं, जब वे प्रयोगशाला से निकलकर जमीन तक पहुंचेंगे, जब उसका प्रभाव वैश्विक से लेकर जमीनी स्तर तक हो।
भारत की उपलब्धियों की गति को यों ही बनाए रखने की बहुत जरूरत है। जब विज्ञान लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी में काम आने लगेगा और उसे आसान बनाने में सहयोगी होगा, तब जाकर भारत भी विश्व भर के शीर्ष देशों में शामिल हो जाएगा। किसी भी देश में विकास करने में विज्ञान का बहुत बड़ा हाथ होता है, क्योंकि विज्ञान ही वह घटक है जो एक साथ अनगिनत चीजों में सुधार ला सकता है और किसी भी कार्य को दुगनी गति से करने में सहायक होता है।
प्रतीक्षा मौर्या, ईस्ट आफ कैलाश, दिल्ली
सेहत पर ध्यान
वैज्ञानिक अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि कोई भी रोगाणु, जीवाणु और विषाणु उन लोगों को अपनी गिरफ्त में आसानी से ले सकता है, जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है। यह अत्यावश्यक है कि हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) यानी रोगों से लड़ने की क्षमता मजबूत रहे। इसके लिए उचित खानपान और व्यायाम के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि हम कोरोना को लेकर सभी तरह की सावधानियों को अपनाएं, लेकिन इसे लेकर अपना दिमागी संतुलन न खोएं और अनावश्यक रूप से न घबराएं।
दरअसल, व्यर्थ की चिंता करने और भयभीत होने से हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता कमजोर होती है। ऐसे में हमें कोई भी रोग आसानी से अपना शिकार बना सकता है। बहरहाल, यह जरूरी है कि कोरोना विषाणु को लेकर भयभीत होने के बजाय हम ऐसे सभी तथ्यों पर पूरी तरह से ध्यान दें जो हमें और दूसरे लोगों को इससे बचाने में मददगार हो सकते हैं।
सुभाष चंद्र लखेड़ा, द्वारका, नई दिल्ली