उसमें चीन से तुलना करते हुए स्वाधीनता बाद के उपाय से लेकर उसके फलितार्थ सहित अब तक इसके नियंत्रण को लेकर हुआ विमर्श काबिलेगौर है। वाकई जितना जरूरी जनसंख्या को नियंत्रित रखना है, उससे कम जरूरी यह नहीं है कि इस पर जब भी विमर्श हो या बात रखी जाए, तब ऐसा न लगे कि इसे सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है।

साफ और स्पष्ट मंशा नहीं है और न ही इस पर बनने वाली संभावित नीतियों को लेकर सांप्रदायिक राजनीति हो या दुष्प्रचार का दौर प्रारंभ हो, क्योंकि 1970 के दशक में इंदिरा सरकार द्वारा उठाए गए कदम के बारे में विमर्श से मौजूदा पीढ़ी रूबरू होती है। तब ऐसा लगता है कि कुछ जोर-जबर्दस्ती हुई होगी। वह गलत तरीके से कार्यान्वित करने का नतीजा रहा होगा और रही-सही कसर पूरी हुई होगी कथित राजनीतिक दुष्प्रचार से।

लिहाजा अब ऐसा न हो, क्योंकि टिप्पणी में इसके भयंकर दुष्परिणाम से अवगत कराए गए हैं, जो यथार्थ है। जनसंख्या वृद्धि को लेकर व्यक्त आशंकाओं का संदर्भ सीमित है। उसे दरकिनार कर जनसंख्या व गुणवत्ता के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखते हुए मौजूदा जन सुविधाओं के संदर्भ में देखना ज्यादा लाभकारी है। सबसे अहम है एक ऐसी व्यावहारिक नीति, जो समय की मांग है और जो चीन की जनसंख्या नीति से निकले परिणाम के स्याह पक्ष के दृष्टिगत आए।
मुकेश कुमार मनन, पटना</p>

मुफ्त की मार

भारत में चुनावी जीत के लिए मुफ्त बांटने की राजनीति दक्षिण के राज्यों से शुरू हुई। वोटों के लिए साड़ियां, रंगीन टीवी और कई तरह की वस्तुएं मुफ्त में बांटी जाती थीं। वोट मिलते रहें, कुर्सी सलामत रहे, सत्ता हाथ से न जाए, इस सबके लिए राजनीतिक दलों ने मुफ्त बांटने की राजनीति शुरू की। धीरे-धीरे यह बीमारी देश के बाकी हिस्सों में भी फैल गई। मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनीतिक दल कई तरह के लालच देते रहे। नाकामियों को छिपाने के लिए नेताओं ने मुफ्त बांटने की राजनीति का सहारा लिया।

कोई भी दल अच्छी शिक्षा देने की बात नहीं करता। कोई भी नहीं कहता कि हम ऐसे स्कूल और कालेज खोलेंगे, जहां हर बच्चे को अच्छी शिक्षा मिलेगी, ताकि वह पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी पा सके, अच्छा इंसान बने। इसके बजाय वादे किए जाते हैं कि हम बिजली मुफ्त देंगे, पानी, लैपटाप मुफ्त देंगे और ऋण माफ करने के वादे किए जाते हैं। आत्मसम्मान भरी जिंदगी देने की बात कोई नहीं करता। आम आदमी भी अपने जमीर को एक तरफ रखकर मुफ्त का माल बटोरने में लग जाता है।

हालांकि कई लोग सचमुच जरूरतमंद और हकदार होते हैं, लेकिन जिन्हें जरूरत नहीं है, उन्हें भी सब कुछ मुफ्त मिल रहा है तो वे काम करने की या मेहनत करने की क्या जरूरत समझेंगे? इस मुफ्त की राजनीति का असर सरकारी खजाने पर पड़ता है। खजाना धीरे-धीरे खाली होने लगता है। उसे फिर से भरने के लिए सरकारों को हर वस्तु पर टैक्स लगाने पड़ते हैं। इसका असर यह होता है कि जरूरत की सभी चीजें महंगी हो जाती हैं।

राजनीतिक दलों को मुफ्त की राजनीति छोड़कर सभी को अच्छी शिक्षा मिले, आत्मसम्मान की जिंदगी मिले, इन बातों पर ध्यान देना चाहिए। मुफ्त बांटने से अच्छा है कि सरकार महंगाई कम करने और आमदनी बढ़ाने पर ध्यान दे। जीएसटी कम करने पर जोर दे। बेरोजगार युवाओं को रोजगार मिले इस बात पर ध्यान दें। रोजगार होगा तो हर कोई इज्जत की जिंदगी बसर करेगा, मुफ्तखोरी नहीं चाहेगा।
चरनजीत अरोड़ा, नरेला, दिल्ली</p>