अभी बिहार आया हुआ हूं इसलिए आप भी आइए, फिर इस बार बिहार के राजनीतिक परिदृश्य पर कुछ चर्चा कर लें। वैसे बिहार आदिकाल से ही किसी—न—किसी प्रकार हर चर्चा के केंद्र में जरूर आता है। चाहे वह आध्यात्मिक हो, शैक्षिक स्थल – नालंदा हो, आदिकालीन—मध्यकालीन प्रसंग हो, आजादी से पहले की बात हो या आजादी के बाद की राजनीति—सामाजिक घटना हो। सम्राट अशोक से लेकर चंद्रगुप्त, चाणक्य, समुद्रगुप्त, भगवान महावीर, भगवान बौद्ध, गुरु गोविंद सिंह सभी किसी—न—किसी रूप में बिहार के ही नहीं, विश्व के गौरव हैं ।
आजादी के आंदोलन में भी बिहार के योगदान नकारा नहीं जा सकता, बल्कि कह सकते हैं कि बिहार स्वतंत्रता के लिए भारत के संघर्ष का एक महत्वपूर्ण एवं शुरुआती हिस्सा था। चंपारण सत्याग्रह के बाद ही गांधी बड़े नेता बने, जिसकी शुरुआत उन्होंने स्थानीय नेता राज कुमार शुक्ला के बार-बार अनुरोध पर की। इस आंदोलन में उन्हें डॉ. राजेंद्र प्रसाद, आचार्य कृपलानी ,अनुग्रह नारायण सिंह और ब्रजकिशोर प्रसाद जैसे महान विभूतियों का समर्थन हासिल हुआ था। यदुनंदन प्रसाद मेहता, बाबू जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा जैसे महान समाज सुधारकों और जगदीश महतो जैसे कम्युनिस्ट नेताओं की भूमि भी रही है बिहार।
बिहार भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक राज्य है जिसकी राजधानी पटना है। यह जनसंख्या की दृष्टि से भारत का तीसरा सबसे बड़ा प्रदेश है, जबकि क्षेत्रफल की दृष्टि से 12वां। 15 नवंबर, 2000 को बिहार के दक्षिणी हिस्से को अलग कर एक नया राज्य झारखंड बनाया गया। बिहार के उत्तर में नेपाल, दक्षिण में झारखंड, पूर्व में पश्चिम बंगाल और पश्चिम में उत्तर प्रदेश स्थित है। यह क्षेत्र गंगा, कोशी, गंडक, बागमती तथा उसकी सहायक कई नदियों के उपजाऊ मैदानों में बसा है। गंगा इसमें पश्चिम से पूरब की तरफ बहती है।
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इतने गौरवशाली इतिहास के बावजूद आज बिहार उपेक्षित है, तभी वहां के बेरोजगार देश के हर कोने में मिल जाते हैं। कारण बहुत हैं, लेकिन मुख्य कारण वहां के अब तक की सरकारों की कार्यशैली में संस्कार की तरह बसी अकर्मण्यता है। इसे कोई भी सरकार कभी स्वीकार नहीं करती, बल्कि सारा ठीकरा पूर्ववर्ती सरकारों पर थोपती रहती है। लेकिन, यदि आजादी के बाद का इतिहास खंगालें तो पाएंगे कि जिन राजनेताओं को शासन चलाने का अवसर यहां मिला, उन्होंने हमेशा स्व-विकास ही किया। राज्य की जनता के विकास से उसका दूर—दूर तक कोई वास्ता नहीं रहा, बल्कि उसे दर—दर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर ही किया।
आजादी के बाद से अबतक रोजगार के लिए, अपराध को रोकने के लिए सरकारी स्तर पर कोई ठोस योजना बनी हो, इसका इतिहास अमूमन नहीं मिलता। परिणामस्वरूप अपराध और अपराधी बढ़ते रहे, जिसकी वजह से बाहर से यहां उद्योग—धंधा लगाने किसी ने कदम ही नहीं रखा। अभी पिछले दिनों कुछ वरिष्ठ पत्रकार से और प्रशासनिक अधिकारियों से बात हुईं उनका कहना है कि राज्य के विकास के मार्ग की अब तक की जो सबसे बड़ी बाधा थी, सड़क और बिजली- वह अब नहीं है । सड़कें अच्छी बन गई हैं, बिजली की आपूर्ति निर्बाध है, अपराध में कमी आई है, तो अब विकास भी होगा। उन लोगों से समझना चाहा कि क्या भ्रष्टाचार मुक्त, अपराध मुक्त यदि बिहार हो गया तो यदि कोई बाहर के राज्य का या कोई विदेशी अपनी पूंजी लगाएगा? या यह सोचकर अपनी थकान तो नहीं उतारेगा कि बिहार में शराबबंदी है, इसलिए गंगाजल पीकर ही काम चलाओ! ज्ञात हो कि बिहार में शराबबंदी है, जिसके कारण हजारों नहीं, बल्कि करोड़ों के राजस्व का नुकसान सरकार को हो रहा है ।
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वैसे यह ठीक है कि शराबबंदी के बाद से अपराध घटा है, लेकिन उस राजस्व के घाटे की भरपाई भला कैसे होगी? इसका कुतर्क ही उनके पास था, कोई ठोस जवाब नहीं था। यह ठीक है कि शराबबंदी बिगड़ों को ठीक करने का सही उपचार है, लेकिन इसके आर्थिक नुकसान की भरपाई का क्या उपाय सरकार ने सोचा है?
अभी बिहार को एक नया मुद्दा मिल गया है। जैसे ही जनगणना की बात शुरू हुई, मुखमंत्री नीतीश कुमार ने यह कहना शुरू कर दिया कि जनगणना जातीय आधार पर हो। इसका पूरा समर्थन बिहार के 11 दलों ने किया। फिर प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इस विषय पर विचार करने के लिए समय मांगा गया। प्रधानमंत्री से पिछले दिनों हुई बैठक में बिहार में मुखमंत्री नीतीश कुमार के साथ विपक्षी दल के नेता तेजस्वी यादव तथा अन्य दलों के नेताओं ने भाग लिया। सभी नेताओं का कहना था कि प्रधानमंत्री ने उन्हे आश्वासन दिया है कि वह इस पर गौर करेंगे।
ज्ञात हो जातीय जनगणना का सवाल एक बार फिर राजनीतिक गलियारे में घूम रहा है। विपक्ष में शामिल कई दलों के साथ-साथ एनडीए खेमे से भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठ रही है। यह सियासत की एक ऐसी नब्ज़ है जिसके बिना राजनीति एक कदम भी नहीं चल सकती। फिर ऐसा क्या है कि देश में 90 साल पुरानी जातीय जनगणना ही चली आ रही है? राजनीति करना सबको जाति के आधार पर ही है, लेकिन जातीय जनगणना कराने में हिचक भी है। फिर इस बार क्यों यह मांग जोर पकड़ रही है? क्या है केंद्र सरकार का इरादा? क्या है इसमें पेंच?
नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना की मांग उठाकर बिहार के साथ-साथ देश में नई राजनीतिक बहस छेड़ दी है। इससे पहले जेडीयू के सांसदों ने जाति आधारित जनगणना की मांग को लेकर गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी, जदयू इस मामले में अपनी विरोधी पार्टी राजद के साथ है । असल में, बिहार विधान मंडल से जाति आधारित जनगणना कराने को लेकर दो-दो बार सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर केंद्र सरकार को भेजा गया, लेकिन केंद्र फिलहाल इसके पक्ष में नहीं है। नीतीश कुमार कहते हैं कि यह समय की मांग है और केंद्र को इसमें देर नहीं करनी चाहिए।
नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना की मांग ऐसे वक्त उठाई है जब भाजपा और केंद्र में मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष की गतिविधियां तेज हैं। राम मंदिर, सीएए, धारा 370 जैसे कई मसलों पर भाजपा से अलग राय रखने के बावजूद नीतीश कुछ कर नहीं पाए। लेकिन, जातीय जनगणना में भाजपा पर दबाव बनाने का उन्हें बड़ा लक्ष्य नजर आ रहा है। भले ही इस जनगणना से पिछड़ों की वास्तविक स्थिति पता कर उन्हें सरकारी योजनाओं से जोड़ने की बात की जा रही हो, लेकिन बिहार के राजनीतिक हालात को देखें तो जदयू को राजद से पिछड़ने का डर भी सता रहा है, क्योंकि पिछड़ों की सियासत करनेवाली राजद इस मसले पर शुरू से मुखर है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भले ही अति पिछड़ों के बीच पकड़ बनाने की कोशिश की, लेकिन वहां भी भाजपा की नजर है। पिछले दो दशक से सियासत में ओबीसी का दबदबा बढ़ा है। बिहार में ओबीसी के बीच राजद का प्रभाव अच्छा—खासा रहा है, ऐसे में नीतीश के लिए जातीय जनगणना की मांग उठाना राजनीतिक मजबूरी भी है। राजद नेता तेजस्वी यादव कहते हैं कि अगर केंद्र सरकार जातीय जनगणना नहीं कराती है तो बिहार सरकार कर्नाटक मॉडल की तर्ज पर अपने खर्चे पर यह जनगणना करवा सकती है। इस पर जदयू, राजद के साथ है।
दरअसल, वर्ष 2015 में सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार द्वारा ‘सामाजिक-आर्थिक और शिक्षा सर्वेक्षण’ करवाया था, जिसे सियासी गलियारे में जातीय जनगणना का नाम दिया गया। पिछले दिनों लोकसभा में एक सवाल पर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने कहा था कि वर्ष 2021 की जनगणना में केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए गणना कराई जाएगी, जातीय जनगणना नहीं।
दरअसल, भाजपा की राजनीति हिंदुत्व के मुद्दे पर टिकी है। हिंदुत्व का मतलब पूरा हिंदू समाज है। अगर जाति के नाम पर वह विभाजित हो जाता है, तो जाति की राजनीति करनेवाले दलों का प्रभाव बढ़ जाएगा और भाजपा को नुकसान हो सकता है। 90 साल पहले देश में आखिरी जातीय जनगणना वर्ष 1931 में हुई थी। उस समय पाकिस्तान और बांग्लादेश भी भारत का हिस्सा थे। तब देश की आबादी करीब 30 करोड़ थी। अब तक उसी आधार पर यह अनुमान लगाया जाता रहा है कि देश में किस जाति के कितने लोग हैं।
वर्ष 1951 में जातीय जनगणना के प्रस्ताव को तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि इससे देश का सामाजिक ताना-बाना बिगड़ सकता है। 10 साल पहले भी जातीय जनगणना को लेकर राजनीतिक बहस तेज हुई थी, आज भी वही मुद्दा दोहराया जा रहा है। अब देखना है कि इस बार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जो यह मुद्दा उठाया है और जिसकी अगुवाई कर रहे हैं, वह आगे इसमें कहां तक सफल होते हैं।
