डॉ. मयंक तोमर

कर्नाटक ने एक दशक के बाद निर्णायक रूप से कांग्रेस को वोट दिया है। 2013 में उसने 36 फीसदी वोट के साथ 122 सीटें जीती थीं। इस बार 135 सीटों पर जीत हासिल की है और लगभग 43 प्रतिशत वोट अपने नाम किया। दूसरी तरफ, भाजपा को 66 सीटें मिली हैं।

कांग्रेस की चुनावी रणनीति पर नजर डालें तो राहुल गांधी, सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ने सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के समर्थन पर ध्यान केंद्रित किया। इससे पार्टी को मुस्लिम विरोधी एजेंडे और अति-राष्ट्रवाद पर भाजपा के जोर का मुकाबला करने में मदद मिली। कर्नाटक के चुनाव के परिणाम को देखते हुए आज़ादी के 75 साल बाद आज भारत के उस प्रस्थान बिंदु को स्मरण करना अप्रासंगिक नहीं होगा, जहां नस्लीय, भाषाई, क्षेत्रीय और धार्मिक विविधताओं से भरे भारत को एक संप्रभु प्रजातांत्रित गणराज्य बनाने की चुनौती मिली थी।

तो क्यों हारी बीजेपी?

1- कर्नाटक में बीजेपी क्यों हारी? इस पर मंथन करने से पहले थोड़ा राज्य के इतिहास पर नजर डाल लेते हैं। कर्नाटक में जातीय अष्मिता-संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है। लेकिन राज्य में सत्तारूढ़ रही बीजेपी की समूची वैचारिकी एक राष्ट्र के विपरीत हिंदू राष्ट्र का चक्कर लगाती दिखी। राज्य की सियासत में भी इसी सिद्धांत के इर्दगिर्द चक्कर काटता दिखा।

पार्टी ने अल्पसंख्यक और कमज़ोर वर्ग की अनदेखी की, इसका असर आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों के रिजल्ट पर दिखा। पार्टी एक भी एसटी-आरक्षित सीट हासिल करने में विफल रही, जबकि पिछली सात सीटें जीती थीं। इसी तरह एससी-आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में 2018 की 16 सीटों के मुकाबले 12 सीटें ही जीत पाई।

जबकि दूसरी तरफ, कांग्रेस ने 36 एससी-आरक्षित सीटों में से 21 सीटें जीतीं और एसटी की 15 में से 14 सीटें अपने नाम की। जबकि एक जनता दल (सेक्युलर) के खाते में गई। न सिर्फ सीटों के लिहाज से, बल्कि सोशल इंजीनियरिंग के लिहाज से ये दोनों संख्या कांग्रेस के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। 2018 में कांग्रेस ने एसटी की 7 एससी आरक्षित 12 सीटें अपने नाम की थीं।

2- भाजपा का चुनाव प्रचार पीएम नरेंद्र मोदी पर केंद्रित रहा जबकि कांग्रेस के प्रचार में स्थानीय नेताओं के साथ मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी जैसे नेता शामिल रहे। हर स्तर पर तालमेल और सहयोग नजर आया। कम से कम चुनाव तक स्थानीय नेताओं में फूट नहीं दिखी।

3- भारतीय जनता पार्टी क्षेत्रीय मुद्दों के समाधान की कोई प्रभावी योजना बताने तक में पूर्णत: असफल दिखाई दी और जातिगत समीकरणों और ध्रुवीकरण में उलझी रही। हिजाब, हलाल, अजान, बजरंगबली और टीपू सुल्तान के इर्दगिर्द केंद्रित रही। इसके विपरीत कांग्रेस, मतदाताओं का मन टटोलने में सफल रही। भाजपा के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया।

4- 2013 में जब बीजेपी हारी थी, तब भी एक महत्वपूर्ण कारण आंतरिक कलह था। तब लिंगायत नेता बी एस येदियुरप्पा ने पार्टी छोड़ कर्नाटक जनता पार्टी (केजेपी) बना ली थी। इस बार येदियुरप्पा बीजेपी में तो रहे, लेकिन लिंगायत वोटरों का भरोसा डिगा नजर आया। कम से कम 10 ऐसी सीटें हैं, जहां येदियुरप्पा के करीबी समर्थकों ने बीजेपी को नुकसान पहुंचाया। सबसे बड़ा झटका चिकमंगलूर में लगा, जहां भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव सी टी रवि को कांग्रेस उम्मीदवार एच डी थिम्मैया ने 5,926 वोटों से हराया। थिम्मैया कभी येदियुरप्पा के करीबी थे।

5- कर्नाटक के मतदाताओं ने कांग्रेस के जन-कल्याण-धर्मनिरपेक्षता के वादे को प्राथमिकता दी। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में महान कवि कुवेम्पु की प्रसिद्ध पंक्ति, ”सर्व जनंगदा शांतिया थोटा” (वह उद्यान जहां सभी समुदाय शांति से रहते हैं) को मूलमंत्र के रूप में उधार लिया था। और जनता ने इसे माना भी। प्रेम ,एकजुटता, सदभाव , स्वच्छ प्रशासन और पारदर्शिता के वादे पर भरोसा जताया।

तो कांग्रेस के लिए क्या सबक?

कर्नाटक का चुनाव भाजपा और कांग्रेस की सामाजिक-आर्थिक नीतियों और कार्यो के समर्थन और ख़ारिज करने का चुनाव बन गया। जनता ने विभाजनकारी नीतियों को सिरे से नकार दिया और प्रेम, एकजुटता, सद्भाव, स्वच्छ प्रशासन और पारदर्शिता की नीतियों पर मुहर लगाई। कर्नाटक का चुनाव नेहरु के बहुलवाद, राहुल गांधी के सांस्कृतिक, सामाजिक प्रेम, एकता, सद्भाव और सहयोग का प्रगतिगामी दर्शन है। लेकिन इस जीत से जिम्मेदारी भी बढ़ी है। जनता के विश्वास को बनाये रखने के लिए कांग्रेस को हरसंभव प्रयास करने होंगे और ‘मूल’ को नहीं भूलना होगा।

(डॉ. मयंक तोमर, एमिटी यूनिवर्सिटी, नोएडा में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।)