अमरेंद्र किशोर
जनजातीय लोगों ने आबोहवा की हिफाजत और जंगलों को बचाने में बड़ी भूमिका निभाई है। अगर पेसा कानून ने सालों पहले ग्राम सभा को सामुदायिक संसाधनों की सुरक्षा और संरक्षण का अधिकार दिया है तो फिर शिक्षा से इन नागरिक संकायों को जोड़ने की बात क्यों नहीं की गई?
आजादी के अमृत महोत्सव साल में जनजातीय इलाकों में एक उदासीन लोक पर्व मनाया जा रहा है, क्योंकि अब आदिवासियों के स्कूलों की रंगत और रुतबा बदलने के दिन आ गए हैं। बांग्लादेश, पाकिस्तान और दक्षिण अफ्रीका की तरह मध्य प्रदेश सरकार की ओर से भी राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में बानबे सरकारी स्कूलों को सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) स्वरूप में संचालित करने के लिए निजी हाथों में सौंपने का फैसला लिया गया है। यह निर्णय कई मामलों में अहम है।
अनुमान है कि मध्य प्रदेश की तरह देश भर में देर-सबेर पीपीपी स्वरूप में आदिवासियों की शिक्षा का स्वरूप उभरेगा। सवाल है कि क्या यह फैसला भारत की नई शिक्षा नीति का एक क्षेपक है, यानी भविष्य की जनजातीय शिक्षा की कोई रणनीति है? उल्लेखनीय है कि गुजरात और ओड़ीशा में पीपीपी स्वरूप बहुत पहले अपनाया जा चुका है। तो क्या पीपीपी आधारित जनजातीय शिक्षा के एक नए युग की दस्तक है?
पीपीपी स्वरूप का मतलब यह कतई नहीं है कि निजी संस्थाओं को विद्यालय की जमीन, मकान या अन्य किस्म के संसाधनों का मालिकाना हक सौंप दिया जाता है। मुद्दा महज प्रबंधन का भी नहीं, बल्कि सेवाओं के निष्पादन से है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पीपीपी स्वरूप की आड़ में सरकार की विफलताएं परदे के पीछे चली जातीं हैं।
ओड़ीशा में ऐसा ही देखने को मिला है। दरअसल, यह स्वरूप कोई विचार नहीं है, बल्कि एक विचारधारा है जो जिम्मेदारियों को कम करते हुए एक साधन के रूप में निजीकरण को बढ़ावा देता है। इसमें उम्मीद की जाती है कि विद्यालयों की संख्या बढ़ाकर शिक्षा के अधिकार को शत-प्रतिशत पूरा किया जा सकता है। मध्य प्रदेश के ग्रामीण और वन्य क्षेत्रों में शिक्षा को लेकर व्यापक निराशा है।
याद किया जा सकता है कि राज्य के झाबुआ जिले में पढ़ाई छोड़कर काम की तलाश में निकली लड़कियों से जुड़ी खबर हाल ही में सुर्खियों में आई थी। विज्ञापनी दावों में यह बार-बार जताने की कोशिश की जाती है कि जनजातियों के विकास के प्रति मध्य प्रदेश सरकार पूरी तरह से ईमानदार है, हर साल कल्याणकारी उपायों पर भारी-भरकम राशि खर्च की जाती है। लेकिन नतीजों का हाल जगजाहिर है। सरकार का तंत्र कहीं न कहीं जर्जर हो चुका है।
सरकार का कहना है कि प्रारंभिक अनुबंध कक्षा छह से बारहवीं तक के विद्यार्थियों की प्रगति को मापने के लिए सात साल के लिए होगा। ये स्कूल सरकार को गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों की कमी की समस्या को दूर करने में सक्षम बनाएंगे। लेकिन राज्य में एक बड़ी समस्या जहां नवासी आदिवासी विकास खंडों के स्कूलों में कई रिक्तियां हैं।
अब निजी हिस्सेदार या सहयोगी ही शिक्षकों और कर्मचारियों का चयन करेगा। इस बात के लिए तसल्ली दी गई है कि सरकारी शिक्षक भी वहां काम करने के लिए आवेदन कर सकते हैं। अपना पल्ला झाड़ते हुए सरकार ने स्पष्ट किया है कि प्रतियोगिता परीक्षा में विद्यार्थियों का अधिकतम चयन सुनिश्चित करने के साथ उनके ज्ञान के स्तर को बढ़ाने की जिम्मेदारी निजी भागीदारों की होगी।
लेकिन सवाल है कि विद्यालयों में रिक्तियों के कारण क्या हैं? अभी तक सरकार के शिक्षा विभाग ने क्या किया? ग्रामीण अंचलों से भी कहीं कठिन इलाकों में स्थित विद्यालयों के हालात क्यों बदतर हैं? सरकार की जवाबदेही किसके प्रति है? क्या सरकार ने बनी-बनाई लीक से हटकर नव्यतम तरीकों को अपनाने की पहल कभी की है? जितनी ईमानदारी बीड़ी पत्ता का मसला सुलझाने में दिखी थी, उतनी ही तत्परता उन आदिवासी विद्यालयों को लेकर क्यों नहीं देखने को मिली है?
आज आदिवासी विद्यालय का उदास-बेजान माहौल, आदिवासियों की शिक्षा का माध्यम और उसे स्वीकार करने का द्वंद्व, अपनी मातृभाषा में शिक्षा हासिल नहीं करने की स्थिति अनेक सवाल पैदा करती है। आदिवासी विद्यालयों के संचालन या प्रबंधन को किसी के हाथों में सौंपना ही था तो नमूने के तौर पर चरणबद्ध हस्तांतरण करने में दिक्कत क्या थी? पेसा लागू करने का रंगारंग उत्सव मनाने वाली राज्य सरकार ग्राम सभाओं को इस तरह के हस्तांतरण शामिल करने से क्यों बचती रही है?
आदिवासी मतलब अनुसूचित जनजाति की समझदारी का दायरा बड़ा है। जनजातीय लोगों ने राज्य की आबोहवा की हिफाजत और जंगलों को बचाने में बड़ी भूमिका निभाई है। अगर पेसा कानून ने सालों पहले ग्राम सभा को सामुदायिक संसाधनों की सुरक्षा और संरक्षण का अधिकार दिया है तो फिर शिक्षा से इन नागरिक संकायों को जोड़ने की बात क्यों नहीं की गई? क्या सरकार को ग्राम सभा पर भरोसा नहीं? फिर पेसा कानून में वनों की सुरक्षा और संरक्षण का भी अधिकार ग्राम सभा को देने की बात क्यों हुई?
अगर राज्य सरकार ने सामुदायिक वन प्रबंधन समितियों के गठन की जिम्मेदारी ग्राम सभा दी है तो उनके लिए विद्यालय चलाना कौन-सी बड़ी बात है? जब आदिवासी इलाकों में ग्राम सभाएं अपने स्थानीय विकास के लिए खुद योजनाएं बना रही हैं तो विद्यालय क्यों नहीं संभाले जा सकते हैं? फिर शिक्षा से जुड़े इस फैसले के अपने निहितार्थ होंगे, इस बात से कोई इंकार कर सकता है?
मध्य प्रदेश में आदिवासियों को लेकर उम्दा माहौल बताया जा रहा है। राज्य भर में जनजातीय विद्यार्थियों के लिए आश्रम, छात्रावास, शालाएं, कन्या शिक्षा परिसर संचालित किए जा रहे हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रशिक्षण के लिए अनेक तरह की प्रोत्साहन योजना संचालित हो रही हैं। स्वरोजगार के लिए कौशल विकास के केंद्र भी संचालित किए जा रहे हैं।
आदिवासी विद्यार्थियों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी राज्य सरकार द्वारा छात्रवृत्ति दी जाती है। अलग-अलग जिलों में बालक-बालिकाओं के लिए क्रीड़ा परिसर भी बनाए गए हैं। साहूकारों द्वारा वसूले जाने वाले ब्याज की दरों को भी अब नियंत्रित किया गया है। अगर आदिवासियों के हितों के लिए सरकार इतनी तत्पर है तो फिर पीपीपी स्वरूप की जरूरत क्यों पड़ी?
क्या यह मान लिया जाए कि देश की तर्ज पर मध्य प्रदेश में भी आदिवासी विकास के अपेक्षित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं? राज्य में जिन सकारात्मक बदलावों की दावेदारियां की गई हैं, क्या वे इसकी द्योतक नहीं हैं कि भले ही जनजातीय समाज में गतिशीलता आई है, लेकिन अभी तक उसने उपलब्धियों का कोई नजीर पेश नहीं किया है।
अपने सफल लोकतंत्र के रहते जब जनजाति वर्ग गरीबी रेखा के नीचे ही है, तो क्यों न सरकार की तमाम उपलब्धियों को अधूरा और अधपका समझा जाए। बांग्लादेश, पाकिस्तान और दक्षिण अफ्रीका के आदिवासी और नगरीय आबादी के बीच शिक्षा का पीपीपी स्वरूप सफल बताया गया है। वेस्टर्न केप का उदाहरण भी है जहां स्कूल और अकादमियां दोनों राज्य द्वारा वित्त पोषित हैं, लेकिन निजी क्षेत्र द्वारा प्रबंधित हैं और वे अक्सर वंचित समुदायों के विद्यार्थियों की सेवा करते हैं।
इन पीपीपी समझौतों के तहत सरकार स्कूल के लिए समग्र जिम्मेदारी रखती है, लेकिन स्कूल के दिन-प्रतिदिन के संचालन और प्रबंधन को कई भागीदारों को सौंपती है, जिसमें निजी क्षेत्र की कंपनियां, दाताओं और गैरसरकारी संगठन शामिल हैं। वहां परियोजना का उद्देश्य गैर-लाभकारी भागीदारी के माध्यम से सार्वजनिक स्कूल प्रणाली में अतिरिक्त प्रबंधन कौशल और नवाचार लाना था, ताकि बिना शुल्क वाले स्कूलों में शिक्षण और सीखने की गुणवत्ता में सुधार हो सके।
आदिवासी सरकार और व्यवस्था पर यकीन रखने वाले लोग हैं। मध्य प्रदेश की जनजातियों के विकास के लिए जरूरी है कि इनकी प्रत्येक समस्या को राष्ट्रीय समस्या के रूप में आंका जाए और स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही नीतियां बनाई जाएं। यह ध्यान रखना होगा कि कोई भी नीति सभी जनजातियों के लिए तब तक लाभप्रद नहीं हो सकती है, जब तक कि उनमें स्थानीय समस्याओं के हल का उद्देश्य न हो।
गांवों में स्वयं सहायता समूह बनाकर या प्रबंधन पृष्ठभूमि के युवाओं को इन विद्यालयों से सन्नद्ध कर शिक्षा व्यवस्था मजबूत की जा सकती है। दिक्कत इसी बात की है कि आदिवासियों के कल्याण और उद्धार का जिम्मा उन लोगों को मिला है, जिन्होंने शायद ही कभी आदिवासियों के साथ साल-छह महीने साथ-साथ बिताए हों। सवाल है कि क्या पीपीपी स्वरूप आदिवासी भावनाओं-मान्यताओं और जरूरतों को ध्यान में रखकर लागू किया जा रहा है?