पिछले सात वर्ष में पीके ने सक्रिय राजनीति में न रहते हुए भी राजनीतिक के मैदान में अपनी अलग पहचान और स्थान बनाया है। बहुत कम लोग ही यह जानते हैं कि अपनी अंतरराष्ट्रीय भूमिका छोड़ने के बाद पीके ने भारत में सबसे पहली बार राहुल गांधी के साथ और उनके लिए ही काम किया था। पीके को राहुल के पूर्व संसदीय क्षेत्र अमेठी में होने वाले सामाजिक और आर्थिक विकास कार्यक्रमों की निगरानी तथा संचालन का जिम्मा दिया गया था। लेकिन भारत लौटने का उनका मकसद केवल चुनावी रणनीतिकार बनना नहीं था।

हाल ही में पीके यानी प्रशांत किशोर की राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ हुई मुलाकातों के बाद सियासी गलियारों में अटकलों का बाजार गर्म हो गया है। ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि प्रशांत किशोर को कांग्रेस पार्टी में शामिल किया जा सकता है और इसके लिए रायशुमारी की जा रही है। हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक राहुल गांधी ने एक बैठक कर प्रशांत किशोर को कांग्रेस में शामिल करने के लिए पार्टी के नेताओं से राय मांगी है।

कांग्रेस पार्टी पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनाव, उत्तर प्रदेश चुनाव और आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कमर कस रही है। इसीलिए पीके से एक बार फिर संबंधों को ताजा किया जा रहा है। वैसे पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद ही यह तय हो गया था कि पीके अब सक्रिय राजनीति में उतर सकते हैं। यानी पीके अब प्रशांत किशोर बनने की राह पर हैं, क्योंकि राजनीति में पीके नहीं प्रशांत किशोर ज्यादा प्रभावशाली हो सकता है।

क्यों छोड़ा था कांग्रेस का हाथ: अमेठी में और कांग्रेस में प्रशांत किशोर के काम करने के तरीकों से कांग्रेस पार्टी के कई बड़े नेता असहज हो गए थे। इससे ऊबकर पीके ने राहुल का साथ छोड़ गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का दामन थाम लिया था। लेकिन एक बार फिर हालात बदल रहे हैं। हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि 22 जुलाई को राहुल गांधी की अध्यक्षता में हुई कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं की बैठक में पीके को पार्टी में शामिल करने पर चर्चा की गई थी। इस बैठक में एके एंटनी, मल्लिकार्जुन खड़गे, केसी वेणुगोपाल, कमलनाथ और अंबिका सोनी सहित पार्टी के लगभग आधा दर्जन से अधिक प्रमुख नेताओं के हिस्सा लेने की खबर है।

इंगलिश न्यूज चैनल इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट में यह लिखा गया है कि वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं की इस बैठक के बावजूद पार्टी में इस विषय पर एकमत नहीं है। कुछ नेताओं का मानना है कि पार्टी खुद सक्षम है और उसे किसी रणनीतिक सहायक की जरूरत नहीं है। वहीं कुछ नेता यह मानते हैं कि पार्टी के भीतर कद्दावर नेता जरूर हैं लेकिन वे सभी कांग्रेस की भलाई के लिए बदलाव सहर्ष स्वीकार करेंगे।

वरिष्ठ लेखिका और सामाजिक तथा राजनीतिक विश्लेषक शोभा डे का विचार थोड़ा अलग है। वो मानती हैं कि नीतीश कुमार से अलगाव के बाद भले ही अरविंद केजरीवाल, जगन मोहन रेड्डी, कैप्टन अमरिंदर सिंह, अखिलेश यादव, शरद पवार, ममता बनर्जी जैसे कद्दावर नेताओं से पीके सीधी बात होती है। लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में उनका सिक्का तभी चलेगा, जब वो किसी ऐसे व्यक्ति के साथ काम करेंगे जिसका करिश्मा और मोदी को टक्कर देने लायक हो।

वो खुद सफल चुनावी रणनीतिकार हैं और राजनीतिक दलों के भीतर उनके काम की स्वीकार्यता भी है, लेकिन जन समुदाय के बीच जाना और चुनाव जीतना करिश्माई काम होता है। यही वजह है कि उन्हें एक तगड़े कैडिंडेट की तलाश है और कांग्रेस को चुनाव में जीत का रास्ता बताने वाले मार्गदर्शक की।

यह भी याद रखिए: बिहार के पिछले विधानसभा चुनावों में पीके ने नीतीश कुमार के लिए रणनीति बनाई थी और उन्हें सत्ता तक पहुंचाया था। इसके बाद पीके सीधे राजनीति में उतरे और 16 सितंबर 2018 को जनता दल (यू) में शामिल हो गए। नीतीश कुमार ने उन्हें हाथोंहाथ लिया और पार्टी का उपाध्यक्ष बनाने के साथ उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित करने के संकेत भी दे दिए। लोकसभा चुनावों में एनडीए में भाजपा के साथ सीटों के बंटवारे में जनता दल (यू) को बड़ी हिस्सेदारी दिलाने में पीके की अहम भूमिका थी। इसके साथ ही पीके आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी का चुनाव प्रचार अभियान भी संभाले रहे थे और उन्हें शानदार जीत दिलाकर फिर चमके।