मनीष आज़ाद
आरएसएस अपने जमीनी प्रचार में इस मिथक का भरपूर इस्तेमाल करता है कि हिंदू धर्म बहुत उदार है, जबकि दूसरे धर्म विशेषकर इस्लाम बहुत कट्टर है। उसने अपने समर्थकों में इस बात को ‘कॉमन सेंस’ बना दिया है कि जितनी आसानी से आप हिंदू देवी-देवताओं की आलोचना कर सकते हैं या उनका मज़ाक बना सकते हैं, वह अन्य धर्मों विशेषकर इस्लाम मे संभव नहीं है।
कट्टरता को नापने का पैमाना यदि देवताओं की आलोचना या उनका मजाक बनाया जाना है तो यह सभी ‘पागान (Pagan) यानी मूर्तिपूजक धर्मों में रहा है। यहूदी और ईसाई धर्म आने से पहले रोम और ग्रीस सहित पूरा यूरोप मूर्तिपूजक था। इस्लाम धर्म से पहले अरब का बड़ा हिस्सा मूर्तिपूजक ही था। देवताओं की आलोचना या उनका मजाक बनाना सभी मूर्तिपूजक धर्मों की विशेषता रही है। यह सिर्फ हिंदू धर्म की विशेषता नहीं है और न ही इसकी उदारता।
उदारता का पैमाना तो यही हो सकता है कि वह धर्म अपने समाज की महिलाओं और मेहनतकशों के साथ कैसे पेश आता है। जिस धर्म में सती प्रथा और दलितों के साथ छुआछूत की प्रथा का प्रावधान हो वह धर्म उदार कैसे हो सकता है। सच तो यह है कि हिन्दू धर्म दुनिया का पहला और आखिरी धर्म है जिसके ठेकेदार अपने धर्म के ही एक समुदाय को उसके ईश्वर से मिलने नहीं देते। यानी मंदिर प्रवेश का अधिकार नहीं देते। ऐसा धर्म उदार कैसे हो सकता है जो अपने ही समुदाय के कुछ लोगों (दलितों) को धार्मिक पुस्तक पढ़ने पर पाबंदी लगाता है और सजा के तौर पर कान में पिघला सीसा डालने का प्रावधान करता है।
‘नंगेली कथा’ कौन भूल सकता है, जब ब्राह्मणों ने निचली जाति की महिलाओं पर स्तन ढकने पर पाबंदी लगा दी थी। उन्हें अपना स्तन ढकने के लिए ब्राह्मणों को भारी कर चुकाना पड़ता था।
दुनिया के तीनों प्रमुख धर्म (यहूदी, ईसाई और इस्लाम) मूर्तिपूजक लोगों के बीच से ही विकसित हुए हैं और इन तीनों धर्मों के उद्भव के पीछे सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन रहे हैं। इसका शानदार विवरण आपको जान पिकार्ड (John Pickard) की किताब ‘बिहाइंड द मिथ’ (Behind the Myths: The Foundations of Judaism, Christianity and Islam) में मिल जाएगा।
परन्तु अफ़सोस कि हिन्दू धर्म विकसित होकर ‘धर्म’ की शक्ल नही ले सका, जहां एक ईश्वर, एक किताब और एक पूजा पद्धति हो। यानी हिन्दू धर्म एक अवरुद्ध (retarded) धर्म है। बहुदेववाद से एकेश्वरवाद तक इसके विकसित न होने का सबसे बड़ा कारण इसकी कठोर जाति-व्यवस्था है। हिन्दू धर्म के गले मे पड़ा जाति का यह पत्थर हिन्दू धर्म को विकसित होने से रोकता रहा। इसलिए हिन्दू धर्म मे व्यक्ति धर्म से ज्यादा अपनी जाति की पहचान को सुरक्षित रखता है। इसी वजह से डॉक्टर अम्बेडकर ने हिंदुओं को जाति रूपी बिलों में रहने वाले चूहों की संज्ञा दी है। इसलिए हिन्दू धर्म ज्यादा से ज्यादा एक जाति-धर्म (caste-religion) बन कर रह गया।
हालांकि गांधी ने जरूर इसे एक धर्म बनाने की कोशिश की और एक भगवान ‘राम, और एक किताब ‘गीता’ का प्रचार किया। लेकिन जाति व्यवस्था को बनाये रखने की जिद के कारण वो इसमें सफल नही हो पाए। आज आरएसएस और भाजपा भी हिन्दू धर्म को एक मुकम्मिल धर्म बनाने पर तुली है। लेकिन यह उसका प्रतिक्रियावादी राजनीतिक एजेंडा है। इससे हिन्दू धर्म के अंदर की सड़ान्ध कम नही होती, बल्कि बढ़ ही जाती है।
आज दुनिया में हर जगह पुराने व बड़े धर्म शासक वर्गों द्वारा जनता के शोषण का हथियार बन चुका है। ऐसे में आज धर्मों के उदार या कट्टर होने की तुलना करना बेमानी है। वह भी ऐसे समय में जब धर्म खुद एक ‘कमोडिटी’ बन चुका है।
‘उदारता’ जैसे मानव मूल्यों का सवाल आज धर्म के अन्दर नही बल्कि धर्म के बाहर ही हल किया जा सकता है।
(मनीष आज़ाद सामाजिक कार्यकर्ता हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)