9 सितंबर 1938 को नेहरू के संपादक काल में छपे नेशनल हेरल्ड के मास्टहेड पर लिखा था, ‘स्वतंत्रता खतरे में है, सभी के साथ इसकी रक्षा करनी है’। यह वह समय था जब भारत उपनेविशवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा था। जंग-ए-आजादी से जुड़ा नेशनल हेरल्ड आजाद भारत में सवालों के घेरे में आ गया। आज देश पर सबसे लंबे समय तक शासन कर कई घोटालों के आरोपों से घिरी कांग्रेस अगस्ता वेस्टलैंड पर जांच शुरू होते ही सड़क पर उतर आई और इसे ‘लोकतंत्र पर हमला’ बताया। खास बात यह थी कि लोकतंत्र पर हमले के कांग्रेसी पोस्टर में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के अलावा राबर्ट वाड्रा की भी तस्वीर थी। विरासती राजनीति की अलंबरदार रही कांग्रेस के अंदर ही परिवार बनाम लोकतंत्र की लंबी लड़ाई चली है और जीत परिवार की ही हुई है। तो परिवार बनाम सरकार बनाम लोकतंत्र की बीच बहस में पढ़ें इस बार का बेबाक बोल।

कांग्रेस (आई)! मौजूदा कांग्रेस के नाम में इंदिरा का नाम जुड़ने की कहानी पार्टी में लोकतंत्र के खात्मे से शुरू होती है। औपनिवेशिक काल में स्थापित इस पार्टी पर आजादी के बाद से नेहरू-गांधी परिवार का ही वर्चस्व रहा। और परिवार के खिलाफ उठी हर आवाज बेदखल की जाती रही। इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को दो फाड़ किया और नेहरू की बेटी के नाम से ही कांग्रेस की पहचान बनी। आजादी के बाद लोकसभा में अपने न्यूनतम आंकड़े (44) पर पहुंची कांग्रेस आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। लेकिन आज भी इसका अस्तित्व परिवार के दायरे से बाहर नहीं जा पा रहा, जिसे यह पार्टी लोकतंत्र का नाम देती है। पार्टी में लोकतंत्र का मतलब परिवार के हर फरमान पर ‘कुबूल है’।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का श्रेय ए ओ ह्यूम को जाता है। एक खास वर्ग यह आरोप लगाता रहा है कि कांग्रेस की स्थापना अंग्रेजी राज्य के सेफ्टी वॉल्व के रूप में की गई थी। और आज की तस्वीर यह है कि पार्टी एक परिवार के लिए ‘सेफ्टी वॉल्व’ बन गई है। देश और संसद में ‘लोकतंत्र’ को बचाने के लिए संघर्ष का बिगुल बजाने वाली कांग्रेस पार्टी को शायद यह मशहूर मुहावरा याद नहीं रह गया है कि ‘दयानतदारी की शुरुआत घर से होती है’। अगर ऐसा होता तो पार्टी प्रमुख सोनिया गांधी पहले अपने संगठन में लोकतंत्र को बहाल करतीं और फिर कहीं और के लिए ‘लोकतंत्र बचाओ’ का झंडा उठातीं। ऐसा न भी होता तो कम से कम इस बात को तो सुनिश्चित करतीं कि उनका ‘लोकतंत्र बचाओ’ का शिगूफा ‘परिवार बचाओ’ का झंडा नहीं प्रतीत हो। जाहिर है कि ‘लोकतंत्र बचाओ’ के पोस्टरों में मां सोनिया और बेटे राहुल गांधी के बीच में दामाद राबर्ट वाड्रा का चित्र आते ही यह समूचा मार्च ही क्षुद्र होकर रह गया और फिर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समेत पार्टी के दिग्गज नेताओं की मौजूदगी और सांसद रेणुका चौधरी का अवरोधकों पर चढ़ कर नारेबाजी करने और टेलीविजन को ‘बाइट’ देने का साहसिक प्रयास भी उसके असल उद्देश्य को निरस्त नहीं कर पाया।

विवादों में घिरे वाड्रा का यह चित्र ऐसे समय में पार्टी की आधिकारिक रैली में नुमायां हुआ है, जबकि बीकानेर में उनके भूमि सौदों की वजह से जांच एजंसियां उन पर अपना शिकंजा कस रही थीं और हरियाणा में उनके जमीन विवाद पर गठित न्यायाधीश एसएन ढींगड़ा का एक सदस्यीय आयोग तेजी से अपनी जांच पूरी करने की दिशा में अग्रसर है। इसके अलावा, जहां तक गांधी परिवार का सवाल है तो पार्टी अध्यक्ष खुद अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर रिश्वतखोरी के मामले में विवादों में हैं। जांच एजंसियां इटली की अदालत के फैसले में वर्णित ‘सिग्नोरा’ की पहचान में जुटी हैं। आदेश में ‘एपी’ को सोनिया का राजनीतिक सचिव अहमद पटेल माना जा रहा है। इधर पंचकूला में नवजीवन अखबार को जमीन देने के मामले में पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा समेत हरियाणा के चार अधिकारियों पर मामले दर्ज हैं। नेशनल हेरल्ड का मामला तो है ही।

कांग्रेसजनों की भक्ति पर गांधी परिवार का विश्वास सच्चा है। लिहाजा जब परिवार पर संकट है तो फिर किसी भी सदस्य को संरक्षण से क्यों वंचित किया जाए? शायद यही सोच रही होगी कि इस बीच वाड्रा भी इश्तिहारों में खुलेआम प्रकट हो गए। यह तर्क बिल्कुल ही लुंजपुंज है कि किसी ने यों ही लगा दिया होगा। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को इस पर होने वाली प्रतिक्रिया और विवाद का पूरा पता है। आखिर पार्टी के पास देश के वरिष्ठतम राजनीतिज्ञ हैं, लेकिन इन सबके साथ एक ही समस्या है कि ये सभी परिवार के आगे नतमस्तक हैं। कुछ दिन पहले जंतर मंतर के मंच से भी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, जिनकी आंखों के सामने ये पोस्टर थे, ने कांग्रेसजनों से यही अपील की कि सोनिया और राहुल की अगुआई में संघर्षरत हो जाओ। बाकी सबका सुर भी उनके ही सुर में मिला था। अगर यह यों ही होता तो अब तक जो उस पोस्टर को लहरा रहे थे, उन्हें नोटिस थमा दिया गया होता। लेकिन वे तो इन पोस्टरों को ट्रॉफी की तरह लहरा रहे थे। सगर्व।

बहरहाल, सबसे गंभीर विवाद अगस्ता वेस्टलैंड का ही है। इटली की एक अदालत ने अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर तैयार करने वाली कंपनी फिनमैकानिका के दो आला अधिकारियों को दोषी करार देते हुए चार साल की सजा सुनाई। अदालती फैसले में लगभग साफ तौर पर सिग्नोरा को ही इस रिश्वतकांड का दोषी ठहराया गया है। रिश्वत की राशि कुल रकम का दस फीसद यानी 360 करोड़ रुपए बताई गई है। इस मामले में प्रेस प्रबंधन के लिए भी 50 करोड़ का प्रावधान करने का जिक्र है। इस रिश्वतकांड के उजागर होने के बाद से ही कांग्रेस में खलबली है। समूची पार्टी का यही प्रयास है कि देश में इसके खिलाफ शोरशराबा करके किसी तरह इसे दफना दिया जाए। लेकिन पिछले दो वर्ष में आम आदमी में अपनी लोकप्रियता बनाए रखने और अपने चुनावी वादों को अमल में लाने से पिछड़ रही भारतीय जनता पार्टी के लिए यह विवाद जीवनदायिनी दवा की तरह रहा। पांच राज्यों में चुनावों के मद्देनजर इसे हवा भी दी गई जो स्वाभाविक भी है।

दरअसल, गांधी-नेहरू परिवार का विवादों के साथ चोली-दामन का साथ रहा है, लेकिन परिवार में पार्टी को एकजुट रखने की ऐसी जबर्दस्त ताकत है कि उसका वर्चस्व हमेशा बना रहता है और बड़े से बड़े नेता भी गांधी परिवार के आगे कोर्निश बजाते दिखाई देते हैं। जिन्हें कुबूल नहीं, उनके लिए तो बाहर का रास्ता है ही। ऐसे कई हैं जिन्होंने बाहर का रास्ता पकड़ कर अपना भविष्य बना लिया या फिर समय की गर्त में समा गए। इससे पहले बोफर्स तोप खरीद घोटाले ने पूरे देश में कोहराम मचा दिया था। इस घोटाले के मुख्य आरोपी आॅक्टोवियो क्वात्रोकी के साथ सोनिया गांधी की निकटता के आरोप रहे। इनके कारण पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को अपने कॅरियर का पतन देखना पड़ा। यह आरोप भी है कि क्वात्रोकी के फरार होने का मार्ग भी कांग्रेस ने ही प्रशस्त किया। इस परिवार में जितनी क्षमता विवादों के बीच रहने की है, उतनी ही उनमें गहरे धंस कर अपनी सत्ता बचाए रखने की भी है। इस मामले में देखा जाए तो कांग्रेस में इतिहास खुद को दुहरा भर ही रहा है कि तमाम विवाद के बाद भी सब परिवार के आगे दंडवत हैं।

नेशनल हेरल्ड-एजेएल भूमि आबंटन, बोफर्स, राजस्थान और हरियाणा के वे विवादित जमीन सौदे हैं, जिनमें गांधी परिवार के सदस्यों पर ही सीधे-सीधे आरोप हैं। इन मामलों में नियमों की अनदेखी का आरोप है। वहां उसके लपेटे में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री जैसे हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा व दूसरे अधिकारी भी हैं। लेकिन सवाल यह है कि नियमों की अवहेलना क्यों और किसके इशारे पर हुई। देखा यही जा रहा है कि उसका सीधा लाभ या तो परिवार को या उससे जुड़े किसी ट्रस्ट या दूसरी संस्था को पहुंचा। तो फिर इतनी हायतौबा क्यों? जब मामला निजी लाभ का है तो दूरस्थ राज्यों के कार्यकर्ताओं का विरोध प्रदर्शन, जेल भरो, लाठी खाओ आंदोलन क्यों? इन सबकी भागीदारी का मकसद निजी जिम्मेदारी के कारण है। ऐसे में सोनिया गांधी और राहुल गांधी तो फिर भी पार्टी के शीर्ष पदों पर हैं। लेकिन इसमें राबर्ट वाड्रा के लिए आंदोलन क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि दामाद होने के नाते वे परिवार का हिस्सा हैं?

ऐसा भी नहीं है कि जो कार्यकर्ता सड़क पर उतर कर तपती धूप और सरकार की प्रतिक्रिया झेल रहा है, वह इस बात से बेखबर है कि यह संकट सरकार का नहीं परिवार का है। लेकिन पार्टी के अंदर ऐसे मौके पर आगे बढ़ लाठी खाने के एवज में अपनी जगह बनाने का जो लाभ उसे हो सकता है, उसके कारण वह जोर से नारा लगाता है। और यह ललक पंजाब के किसी कस्बे में विरोध कर रहे नेता से लेकर दिल्ली दरबार में लगातार हाजिरी लगाने वालों में भी है। वरना सांसद दिल्ली में अवरोधकों पर चढ़ कर और पूरे जोशोखरोश के साथ फोटो के लिए मुद्राएं न बनाते। फर्क इतना है जिसका जितना बड़ा शहर, उसका उतना बड़ा लाभ। राजधानी हो तो फिर बात ही क्या है! आखिर यहीं से किसी का नाम और काम, दोनों राष्ट्रीयस्तर पर परखे जाएंगे। लिहाजा सब अपनी हाजिरी लगाने और खुद को ‘राजा’ से भी ज्यादा वफादार बताने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं।

राजनीति से नैतिकता का नाता तो बहुत पहले ही टूट गया था। एक अरसे से राजनीति भी अब बाकी सब पेशों की तरह एक तुरत-फुरत लाभार्जन का माध्यम बन गई है। चुनाव आयोग के हालिया बयान इस बात का सहज सत्यापन करेंगे कि किस तरह हजारी नेता से लखपती, लखपती से करोड़पति, करोड़पति से कई करोड़पति और कई करोड़पति से अरबपति की राह पकड़ते हैं। उनके हलफिया बयानों में उनकी संपत्तियों को असल में उनके बाजार भाव से परखा जाना चाहिए। कायदे से उन पर दबाव होना चाहिए कि यह उनके असली बाजार का जिक्र करें, न कि अपनी संपत्तियों का आकलन खुद के बनाए मापदंडों से। शुरुआती चूकों के कारण राजनीति और भ्रष्टाचार का चोली-दामन का साथ हो गया है। चुनाव आयोग चाहे तो फॉर्म में एक खाना यह भी हो कि नेतागण शपथ लेकर कहें कि उनकी कोई बेनामी संपत्ति भी नहीं है।

राजनीतिक दलों के साथ यही खास बात है कि खुद को पाक-साफ साबित करने के लिए भीड़ का गणित ही बिठाते हैं। रैली की राह इसी गणित का अहम हिस्सा है जिसमें आप छत पर चढ़ कर अपनी बेगुनाही की दुहाई देते हैं और अपना जनसमर्थन दिखा कर अपनी ताकत से रूबरू कराना चाहते हैं। लेकिन यह रास्ता उतना भी कारगर नहीं जितना मान कर इसे अपनाया जाता है। ऐसा होता तो देश के नामी-गिरामी राजनेता गाहे-बगाहे जेल की हवा न खाते या फिर अदालतों के गलियारों में खुद या अपने वकीलों के माध्यम से खड़े न होते। फिर वह चाहे तमिलनाडु में जयललिता या एम करुणानिधि, हरियाणा में ओमप्रकाश चौटाला और अजय चौटाला, मधु कोड़ा, अजीत जोगी, लालू यादव या ऐसे ही कई और नाम न होते। अंत में अपनी ईमानदारी पर लगे दाग देश की सर्वस्वीकार्य न्याय व्यवस्था के सामने ही धोने पड़ते हैं। अब जब ऐसा है ही और आप इससे अनभिज्ञ भी नहीं तो फिर यह सब क्यों?

राजनीति में विरासत अब पुरानी बात हो गई। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल ने यह कह कर इसे न्यायोचित ठहरा दिया था कि जब डॉक्टर के बच्चे के डॉक्टर और इंजीनियर के बच्चे के इंजीनियर बनने पर एतराज नहीं तो राजनीतिज्ञों पर ही यह एतराज क्यों? नैतिकता का दावा करने वाले नेता भी इससे बच नहीं पाए और मौका देखते ही अपने परिवार को राजनीति में ले आए। ऐसे भी उदाहरण हैं कि किसी नेता ने यह दावा किया कि उनके परिवार का एक ही सदस्य राजनीति में रहेगा, और महज हफ्ते भर में ही अपने बेटे को लोकसभा का टिकट दिलवा दिया। राजनीति में सैद्धांतिक जीवन का कोई उदाहरण पेश करने के बरक्स सुविधावाद का खेल कोई अजूबा नहीं है। परिवारों में राजनीति को कैद करने की प्रवृत्ति सिद्धांतों के बजाए इसी सुविधावाद के सहारे बनती है और फलती-फूलती है। हां, अब इस परिवार में राजनीतिकों के विस्तारित रिश्ते भी शामिल हो रहे हैं। कांग्रेस इसी विस्तारित रिश्ते की मारी है।

गांधी ने चाहा था आजादी के बाद खत्म हो कांग्रेस
1947 में आजादी मिलने के बाद महात्मा गांधी ने कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने कहा था, ‘कांग्रेस पार्टी का गठन आजादी के आंदोलन के लिए एक संगठन के रूप में हुआ था, आजादी मिल चुकी है इसलिए अब कांग्रेस पार्टी को समाप्त कर देना चाहिए।

इंदिरा ने माना था जनता के बिना जीत नहीं
22 मार्च 1977 को चुनावों में हार के बाद इंदिरा गांधी ने कहा था – मैं और मेरे साथी पूरी विनम्रता से हार स्वीकार करते हैं। कभी मुझे लगता था कि नेतृत्व यानी ताकत है। आज मुझे लगता है कि जनता को साथ लेकर चलना ही नेतृत्व कहलाता है।

जंग-ए-आजादी से परिवार बचाने की जंग तक

कांग्रेस का इतिहास भारत की जंग-ए-आजादी के साथ जुड़ा हुआ है। ए ओ ह्यूम की अगुआई में इसका गठन 1885 में हुआ था। व्योमेश चंद्र बनर्जी इसके पहले अध्यक्ष थे। स्थापना के बाद पार्टी औपनिवेशिक भारत की प्रांतीय विधायिकाओं का हिस्सा भी बनी। 1905 में बंग विभाजन के बाद पार्टी का अंग्रेजों से मोहभंग हुआ और उनके अत्याचारों की पुरजोर मुखालफत शुरू हुई। दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद महात्मा गांधी इसमें शामिल हुए। लाहौर सम्मेलन में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस मजबूती से उभरी और जवाहरलाल नेहरू पहले प्रधानमंत्री बने।

नौजवान देश, नेहरुवियन मॉडल:
लंबी गुलामी से आजाद भारत जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अपने पांवों पर खड़ा होने की कोशिश कर रहा था। धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक समाजवाद और गुटनिरपेक्षता का नेहरुवियन मॉडल एक नौजवान देश के लिए माकूल समझा गया। नेहरू के दम पर कांग्रेस ने 1952, 1957 और 1962 के चुनावों में बहुमत हासिल किया था। साल 1964 में नेहरू का निधन हुआ।

पिता की सत्ता पुत्री के हाथ:
नेहरू के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने लेकिन 1966 में उनकी संदेहास्पद हालात में मौत के बाद इंदिरा गांधी को कांग्रेस और देश की कमान सौंपी गई। हालांकि उस समय मोरारजी देसाई भी प्रबल दावेदार थे, लेकिन उनके आगे इंदिरा को तवज्जो दी गई। 1967 में विपक्ष की जोरदार टक्कर मिली जिसकी अगुआई राममनोहर लोहिया कर रहे थे। देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। कांग्रेस में दो फाड़ हुए और के कामराज की अगुआई में कांग्रेस (ओ) नाम से नई पार्टी बनी जिसका बाद में जनता पार्टी में विलय हो गया। हालांकि 1971 में इंदिरा ने जोरदार वापसी की, लेकिन उनके कामकाज के तरीकों पर विपक्ष हमलावर होता गया। लोकसभा में इंदिरा की जीत को अदालत ने गैरकानूनी घोषित कर दिया, और विपक्ष का उग्र आंदोलन शुरू हो गया। 1974 में जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। इंदिरा ने 1975 में आपातकाल घोषित कर दिया। इस गलती का खमियाजा इंदिरा ने 1977 के चुनावों में भुगता और सत्ता से बेदखल हुर्इं। 1980 में उन्होंने वापसी की लेकिन 1984 में उनकी हत्या कर दी गई।

मां के बाद बेटे राजीव का राज:
इंदिरा की हत्या के बाद बेटे राजीव गांधी को पार्टी की कमान सौंपी गई और 84 के चुनावों में कांग्रेस शानदार तरीके से जीती भी। 1991 में दक्षिण भारत में चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। राजीव की मौत सोनिया गांधी के लिए बड़ा झटका था। इसके पहले वे राजनीति में सक्रिय भी नहीं थीं और बच्चे राहुल और प्रियंका राजनीतिक विरासत संभालने लायक बड़े नहीं हुए थे। इसलिए पार्टी की कमान पीवी नरसिंह राव को सौंपी गई और वे प्रधानमंत्री भी बने।

प्रधान कुर्सी के पीछे सोनिया:
कांग्रेस के पास नेहरू-गांधी परिवार के आकर्षण के सिवा कुछ भी नहीं बचा था। 2004 में सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की पूरी तैयारी हो गई। लेकिन विदेशी नाम पर चले विरोध के कारण उन्होंने इस पद का ‘त्याग’ करना ही बेहतर समझा। 2004 के चुनावों में कांग्रेस को महज 145 सीटें मिली थीं। इसलिए पार्टी ने सहयोगी दलों के साथ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) बनाया और डॉक्टर मनमोहन सिंह इसके पहले प्रधानमंत्री बने। मनमोहन सिंह दो बार प्रधानमंत्री रहे लेकिन उन पर कठपुतली प्रधानमंत्री का विपक्ष का हल्ला बोल लगातार रहा। आरोप लगते रहे कि वे गांधी परिवार के रिमोट से चलते हैं और अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता सोनिया गांधी के हाथ में ही है। हालांकि उसके बाद 2014 के चुनावों में नेहरू-गांधी का नाम कांग्रेस का सहारा नहीं बन सका। इन चुनावों में महज 44 सीटें हासिल करने वाली कांग्रेस लोकसभा में मजबूत विपक्ष का दर्जा मांगने लायक भी नहीं रही।

अबकी बारी, राहुल गांधी:
सोनिया ने विरासत बेटे राहुल गांधी को सौंपी है जो इस समय पार्टी के उपाध्यक्ष हैं। सोनिया के बाद कांग्रेस की कमान राहुल को देने की पूरी तैयारी है। अपने नेतृत्व पर कई तरह के सवाल उठने के बाद भी अपनी पारिवारिक विरासत की वजह से राहुल मैदान में टिके हैं। सोनिया गांधी की पुत्री प्रियंका सक्रिय राजनीति से दूर हैं। लेकिन उनके पति राबर्ट वाड्रा जो देश के सबसे ताकतवर परिवार के साथ रिश्ता बनते ही अपनी कारोबारी ताकत को कई गुणा बढ़ा चुके हैं अब राजनीति में भी कदमताल करने के इच्छुक दिख रहे हैं। फिलहाल यह परिवार राजनीतिक कुशलता से लेकर भ्रष्टाचार के सवाल पर खुद को बचाने की जंग लड़ रही है।