राजनीति में इच्‍छा जाहिर करते वक्‍त सावधानी बरतनी चाहिए। पीएम नरेंद्र मोदी ने जब अपने चुनावी अभियान के दौरान ‘कांग्रेस मुक्‍त’ भारत का आह्वान किया था। हालांकि, उन्‍होंने यह कल्‍पना भी नहीं की होगी कि हम इसके इतने करीब इतनी जल्‍दी पहुंच जाएंगे। कांग्रेस के पास अब लोकसभा में सिर्फ 10 पर्सेंट सीटें हैं और राज्‍य स्‍तर पर उसकी देश के 7 पर्सेंट हिस्‍से पर ही सत्‍ता बची है। मेरे पाठकों को यह जानकारी होगी कि मेरे मन में कांग्रेस के लिए किसी तरह की हमदर्दी या नफरत नहीं है, लेकिन बीते आधे दशक में भारत की परफॉर्मेंस में आपराधिक स्‍तर पर हुई गिरावट के लिए मैं कांग्रेस को जिम्‍मेदार मानता हूं। हालांकि, मुझे इस बात का भरोसा है कि एक लोकतंत्र की सेहत के लिए देश में विपक्षी पार्टी के तौर पर एक सेंट्रल-लेफ्ट विचारधारा वाली नेशनल पार्टी की जरूरत है। इस वजह से मेरी दलील है कि हमें ‘कांग्रेस मुक्‍त भारत’ की नहीं, बल्‍क‍ि ‘परिवारवाद मुक्‍त कांग्रेस’ की जरूरत है।

पहली बात तो यह है कि लोकतंत्र में जवाबदेही होनी चाहिए ताकि असीमित शक्‍त‍ि नेताओं के सिर चढ़कर न बोले (इंदिरा गांधी के साथ हम ऐसा देख चुके हैं)। इससे ज्‍यादा अहम यह है कि दक्षिणपंथ उन्‍मादी न हो और उस पर लगाम लगाए जाने की जरूरत है। जब तक एक विश्‍वसनीय विपक्ष नहीं होगा, तब तक मोदी बीजेपी को केंद्रीय सत्‍ता में बनाए रखने में कामयाब होंगे। विश्‍वसनीय विपक्ष के विरोध में हम धुर दक्षिपंथ को मजबूत होते देखेंगे। इसका एक बिलकुल सटीक उदाहरण में ब्रिटेन में (वाम) लेबर पार्टी का पतन। इसकी वजह से डेविड कैमरन के लिए चीजें आसान नहीं रह गईं। उन्‍हें अपनी ही पार्टी के अंदर से धुर दक्षिणपंथ से मिलने वाली चुनौतियों में इजाफा हुआ।

दूसरी बात यह है कि बहुभाषी, बहुसांस्‍कृतिक लोकतंत्र के मामले में दुनिया के सबसे बड़े प्रयोग भारत देश की लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था बेहद नाजुक है। हमें बेहतर ढंग से इसे चलाने के लिए एक मजबूत केंद्र और राज्‍य स्‍तर पर सत्‍ता का अच्‍छा संतुलन होना जरूरी है। क्षेत्रीय इलाकों में सत्‍ता और अधिकार शक्‍त‍ि का प्रसार हमें कमजोर बनाता है और शायद यही आपसी वैमनस्‍य और फूट की वजह बनता है। कुछ ऐसी ही समस्‍या यूरोपियन यूनियन झेल रही है। इसमें क्षेत्रीय ताकतें तो मजबूत हैं लेकिन केंद्र अपेक्षाकृत कमजोर। केंद्र तब तक मजबूत नहीं हो सकता, जबतक कि मजबूत और मशहूर राष्‍ट्रीय पार्टियां न हों। देश के लिए क्षेत्रीयकरण से बड़ा खतरा नहीं हो सकता जैसा कि हम तमिलनाडु, पश्‍च‍िम बंगाल और कुछ हद तक मेरे अपने महाराष्‍ट्र में देख रहे हैं, जहां सत्‍ता कुछ बेहद मजबूत क्षेत्रीय पार्टियों के हाथ में है। ये पार्टियां क्षेत्रीय हितों से उठकर देश के बारे में देखने में समर्थ नहीं हैं। ये पार्टियां को देश के खिलाफ ‘धरतीपुत्रों’ को तैयार करने से फुर्सत नहीं मिल रही।

और तो और, बिहार की तर्ज पर केंद्र में ‘महागठबंधन’ सरकार की कल्‍पना बेहद डराने वाली है। विचारधारा के स्‍तर पर एक दूसरे की दुश्‍मन पार्टियां सत्‍ता की लालच में एकजुट हो जाती हैं । कल्‍पना कीजिए कि लालू प्रसाद यादव अपने बेहद कम पढ़े लिखे 22 साल के बेटे को किसी दिन हमारे ऊपर बतौर डिप्‍टी पीएम थोप दें। नहीं, लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए हमें दो या तीन या इससे भी ज्‍यादा राष्‍ट्रीय पार्टियों की जरूरत है। वे पार्टियां जिनमें विकास, सुरक्षा या सामाजिक न्‍याय की भावना जैसी राष्‍ट्रीय थीम हो। ऐसे में कांग्रेस के निरंतर पतन और क्षेत्रीय ताकतों का मजबूत होना (और आप जैसी विरोध प्रदर्शन करने वाली पार्टियां) डराने वाला है। हालांकि, उम्‍मीद भी बाकी है। कांग्रेस ने 2014 आम चुनाव में 19 पर्सेंट वोट हासिल किए और उनकी ब्रैंड रिकॉल अच्‍छी है। इसलिए उन्‍हें अपनी कब्र खोदने के बजाए कुछ कड़े फैसले लेने चाहिए।

कांग्रेस को वर्तमान संकट से उबरने के लिए पहला और सबसे जरूरी कदम तो यही उठाना होगा कि वे मानें कि कोई समस्‍या है। कांग्रेस के सामने तीन बड़ी समस्‍याएं हैं-परिवारवाद के प्रति इसका लगाव जमीनी स्‍तर पर लीडरशिप को बढ़ने नहीं दे रहे। इसकी सामाजिक और बरसों पुरानी फायदे पहुंचाने वाली योजनाएं अब पुरानी पड़ चुकी हैं और आधुनिक भारत के माकूल नहीं हैं। इसके अलावा, भ्रष्‍टाचार के मुद्दे को ‘मुस्‍कुराकर और आंखें झपकाकर’ नजरअंदाज करने की अदा ने पार्टी की आत्‍मा को दूषित कर दिया है। दुर्भाग्‍य की बात यह है कि समस्‍या को कबूल करने के बजाए इस पार्टी का अक्षम व प्रतिक्रियाविहीन नेतृत्‍व सिर्फ इनकार, झूठ और शेखी बघारने के बीच झूलता रहता है।

कांग्रेस के सत्‍ता पर सामंतवादी हक जताने का नजरिया राहुल गांधी के उस बयान से साफ जाहिर होता है, जिसमें उन्‍होंने कांग्रेस को भारत का ‘डिफॉल्‍ट ऑपरेटिंग सिस्‍टम’ बताया था। इसका मतलब तो भारत पर उनके मालिकाना हक जैसा समझ आता है। मुंबई की चालू भाषा में कहें तो ‘बाप का माल’। इसके बाद हम राहुल और सोनिया का हास्‍यास्‍पद तमाशा ‘सेव डेमोक्रेसी मार्च’ के तौर पर देखते हैं। यह मार्च अगस्‍ता वेस्‍टलैंड मामले में सोनिया का नाम उभरने के बाद निकाला गया था। मानों लोकतंत्र इस खबर को बर्दाश्‍त ही नहीं कर सकती कि गांधी परिवार ईमानदार नहीं है।

वंश परंपरा की बीमारी ने कांग्रेस की जड़ों को खाना शुरू कर दिया है। उनकी कथित ‘अगली पीढ़ी’ को देखें तो हम पायलटों, सिंधियाओं और देवड़ाओं को पाते हैं, जो खुद वंशवाद की उपज हैं। यह खत्‍म होना चाहिए। राहुल का अपनी पार्टी को सबसे बड़ा तोहफा यही होगा कि वे सम्‍मानपूर्वक तरीके से मुकुट ठुकरा दें। जमीनी स्‍तर के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पार्टी सौंपकर वे एक उदाहरण पेश करें। दूसरी यह कि कांग्रेस को अपनी आर्थिक नीतियों को दोबारा से देखने की जरूरत है। 2014 के आम चुनाव के नतीजों से कांग्रेस को यह गलतफहमी हो गई कि उसकी बांटने और हर चीज का अधिकार देने की नीतियां ही भारतवासी चाहते हैं। 2014 के तूफान ने यह साबित कर दिया कि वे गलत थे। मुंबई में एक बिहारी मजदूर ने हाल ही में मुझसे कहा, ‘हमें उनके अहसान की जरूरत नहीं है। हमें उनके मनरेगा की जरूरत नहीं है। हम असली नौकरियां चाहते हैं, हम असली सम्‍मान चाहते हैं।’ सेटेलाइट टीवी और मोबाइल डाटा के जमाने में गरीब सिर्फ ‘रोटी, कपड़ा और तमाशे’ से खुश नहीं रह सकता। वे 21वीं सदी से कदम मिलाने के लिए बेकरार हैं। अर्थशास्‍त्र‍ियों को यही सुझाव कांग्रेस को देना चाहिए कि वे अपनी समाजवादी झोले को अपना उतार फेंकें।

कांग्रेस के फिर से उठ खड़े होने का रास्‍ता पार्टी के बाहर के किसी भी शख्‍स को आसान नजर आता है। पार्टी की खुद की लीडरशिप का जो भी विजन हो, वह दूसरा मुद्दा है। हालांकि, पार्टी राहुल गांधी की बतौर अध्‍यक्ष ताजपोशी करने की तैयार कर रही है। ऐसे में ऐसा लगता है कि राहुल इतिहास में पार्टी के रक्षक के तौर पर नहीं, बल्‍क‍ि बहादुर शाह जफर जैसे आखिरी वंशज के तौर पर दर्ज होंगे। राजनीति में खालीपन जैसा कुछ नहीं होता। क्‍या कांग्रेस को नाकाम हो जाना चाहिए, उसकी जगह कौन भरेगा? जो भी हो, हमें भविष्‍य में कुछ मुश्‍क‍िल वक्‍त के लिए तैयार रहना होगा।

(ये लेखक के निजी विचार हैं। उनका टि्वटर हैंडल @rohanaparikh है।)