अगर हम लोकतंत्र के सिद्धांत को मान रहे हैं तो हमें यह भी मानना होगा कि यह केंद्रीकृत नहीं होना चाहिए। अभिव्यक्ति की लड़ाई ‘वाट्सऐप’ से स्थानांतरित होकर ‘सिग्नल’ के भरोसे पर आई तो ‘ट्विटर’ के मुकाबले में ‘कू’ पर खाता खोलने का आह्वान हो रहा है। लेकिन हम भूल जाते हैं कि संचार का कोई भी साधन जो मुनाफे के सिद्धांत पर काम करेगा, उससे लोकतंत्र की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। कल जो वाट्सऐप के सह संस्थापक थे आज सिग्नल के सेवा प्रदाता हैं। इनके मैदान में लोकतंत्र की गेंद का एकाधिकारवादियों के पाले में जाना तय हो जाता है। दुनिया भर में यह प्रवृत्ति देखी जा रही है कि जनता के वोट से मजबूत होकर आए शासक जनाधिकार को कमजोर करने में जुट जाते हैं। सत्ता में आते ही वे डर की उस डगर पर चलना शुरू कर देते हैं कि विरोध में उठी हर आवाज उनके लिए दुश्मन है। ट्विटर से लेकर कू तक पहुंची अभिव्यक्ति की लड़ाई के बीच असहमति के स्वर से डरी दुनिया भर की सत्ता पर बेबाक बोल की नजर।
खफा तुम से हो कर खफा तुम को कर के
मजाक-ए-हुनर कुछ फुजूं चाहता हूं
-इशरत अनवर
शहंशाह अकबर जब भी लोकहित की राह से भटकते थे तो उनके मंत्री बीरबल बड़ी सहजता से उन्हें उच्च राजनैतिक मूल्य की ओर लौटा लाते थे। इस बार हम भी स्तंभ की शुरुआत अकबर-बीरबल की कहानी से करते हैं। हुआ यूं कि शहंशाह अकबर के समय आधुनिक लोकतंत्र जैसा चुनाव हुआ। जनता के बीच उनकी पैठ थी और वे भारी मतों से जीते। एक दिन शिकार के लिए जाते वक्त उन्हें नगर की दीवार पर अपने विरोध में एक कविता दिखी। उन्होंने बीरबल को कहा कि इस कविता को लिखने वाले को गिरफ्तार किया जाए। बीरबल उन्हें नगर की दूसरी तरफ ले गए जहां दीवार पर उनकी प्रशंसा में कई कविताएं लिखी थीं। बीरबल ने कहा कि आपको चुनने वाली जनता अब भी आपके साथ है और एक विरोध की कविता को आप तवज्जो देंगे तो वह कविता फिर घर-घर पढ़ी जाने लगेगी। अगर सौ में निन्यानवे लोग आज भी आपके साथ हैं तो फिर आपको उस कविता से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।
आज जब पूरी दुनिया में ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ पर सरकार और उसके खिलाफ दोनों के बोल सुन रहे हैं तो लगता है आज के आधुनिक अकबरों के पास एक बीरबल तक नहीं है। नब्बे के दशक के बाद भारत में बड़ा सियासी बदलाव हुआ और पूरी दुनिया ने उसे उम्मीद भरी नजरों से देखा। लेकिन इतने मजबूत बदलाव वाली सरकार अचानक ऐसे अजीबोगरीब फैसले कैसे ले लेती है कि वह जनता के खिलाफ खड़ी दिखने लगती है, जबकि जनता का एक बड़ा वर्ग पूरी तरह आज भी उसके साथ खड़ा है। इंटरनेट पर मेरिल स्ट्रीप का ट्रंप को लेकर दिया भाषण आज भी सुना जा सकता है। मजबूत लोकतंत्र में सरकारों को अपनी असहमतियों का स्वागत करने के लिए तैयार रहना चाहिए। अगर उस भाषण के बाद मेरिल का सरकारी स्तर पर दमन करने की कोशिश की गई होती तो आज उनके इंटरनेट पर वैसे कई भाषण होते और पर्दे से बाहर के उनके नायकत्व से सामना मुश्किल हो जाता।
अभिव्यक्ति की आजादी पर ताजा विवाद है वह योजना जिसमें ऐसे नागरिक कार्यकर्ता तैयार करने की बात कही गई है जो आनलाइन तथ्यों पर नजर रख कर सरकार को बताएंगे कि कौन किस तरह की पोस्ट कर रहा है। पायलट योजना के तहत कश्मीर और त्रिपुरा में इन नागरिक कार्यकर्ताओं को बाल यौन उत्पीड़न, बलात्कार, आतंकवाद, अतिवाद से लेकर ‘देश विरोधी’ गतिविधियों को रिपोर्ट करने के लिए कहा गया है। जाहिर सी बात है कि पिछले कुछ अनुभवों को देखते हुए ‘देश विरोधी गतिविधियों’ पर ही सबसे ज्यादा सवाल उठने थे, क्योंकि यह अभी तक किसी भी परिभाषा के दायरे से बाहर है। बिना उचित प्रशिक्षण के इस तरह की चुनिंदा नागरिक निगरानी नागरिकों के बीच दुराग्रह ही पैदा करेगी।
यह योजना लोकतांत्रिक और संवैधानिक तकाजों पर सीधे-सीधे खारिज हो जाती है। सवाल यह है कि आखिर ऐसे बेतुके फैसले किस खौफ में किए जा रहे हैं जो सरकार की साख पर सवाल उठा देती है। जमीन पर पूरी मजबूती से टिकी सरकारों को सोशल मीडिया से डर क्यों लगने लगता है। वह चाहे वामपंथी केरल की सरकार हो या बिहार तथा उत्तराखंड की सरकार, विरोध में बोलने वाले नागरिकों को हर कोई चुप करने पर क्यों आमादा है? आपातकाल के दौरान आंदोलन की उपज रहे नेता का प्रशासन कह रहा है कि हमारे खिलाफ लिखने वालों या सरकार विरोधी आंदोलन में भाग लेने वालों को सरकारी नौकरी नहीं दी जाएगी।
ट्विटर और फेसबुक बाजार का अहम हिस्सा बनने के साथ दुनिया भर की सरकारों के निशाने पर हैं। इसकी वजह है बाजार की पूंजी का एक जगह इकट्ठा होकर किसी खास घराने का एकाधिकार हो जाना। दरअसल, लड़ाई इस एकाधिकार के खिलाफ है जो सीधे सरकार से जा टकराती है। आज खेती भी सबसे बड़ा निजी क्षेत्र है इसलिए सबसे ज्यादा टकराहट उस पर एकाधिकार की है, सारी बहस वहीं केंद्रित है। कृषि सीधे-सीधे पर्यावरण और आबोहवा से भी जुड़ा मसला है इसलिए यह वैश्विक बहस के केंद्र में है। मानवता का इतिहास आगे किस ओर जाएगा, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि खेती-किसानी की क्या तस्वीर बनेगी?
खेती के बाद बाजार की टकराहट है जनसंचार के साधनों पर एकाधिकार की, जिसमें मुख्यधारा का मीडिया और सोशल मीडिया एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। मीडिया बनाम सोशल मीडिया की टकराहट भी पैदा हो गई है। मुख्यधारा के मीडिया पर एकाधिकार के खिलाफ प्रतिरोध का सुर सोशल मीडिया से ही उठता है। इसलिए वह दुनिया भर के बाजार से लेकर सरकार तक को खटकने लगा है। ट्विटर ने डोनाल्ड ट्रंप के खाते को प्रतिबंधित कर दिया तो हाल ही में भारत में उसकी पब्लिक पॉलिसी निदेशक ने इस्तीफा दे दिया है। अमेरिकी संसद में हिंसा बनाम लालकिले पर हिंसा को लेकर दोहरे मापदंड पर सवाल उठ रहे हैं।
इससे पहले हम सरकार और सोशल मीडिया की टकराहट अमेरिका में देख चुके हैं। वहां भी ट्विटर और फेसबुक सोशल मीडिया के बाजार पर एकाधिकार की स्थिति में पहुंच गए हैं। बड़ी पूंजी के रूप में उसका दखल इस कदर हुआ कि विदाई के पहले अमेरिकी राष्ट्रपति की ही ‘सोशल आवाज’ बंद करने की स्थिति में वह आ गया। एक तरफ अमेरिका का उदाहरण है तो दूसरी तरफ भारत में लोकतांत्रिक जमीन को सिकुड़ाने की कोशिश ऐसे विरोधाभास की ओर बढ़ रही है जिसमें असहमति की सांस लेने की जगह खत्म होती सी दिख रही है।
बाजार के विकास के लिए जरूरी है कि हर तरह के विचार के लिए जगह बनी रहे, खासकर भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधताओं वाले देश में। अभी तक सरकारों ने पहचान की राजनीति के नाम पर इसका अच्छी तरह प्रबंधन भी किया है। लेकिन आज अलग-अलग खड़े हितसमूहों के पास कोई साझी जमीन नहीं रहने दी गई है। अब या तो आप इधर हैं या उधर। जनता के इधर-उधर की निशानदेही के लिए ही निगरानी की नीति अपनाई जा रही है। इसकी शुरुआत हुई थी उत्तर प्रदेश में एंटी रोमियो दस्ते से जिसने सूबे में अराजकता की नई मिसाल खड़ी की थी। अगर यह समाज के लिए उपयोगी होता तो आज इसका भी कोई नामलेवा होता। पार्क और सार्वजनिक जगहों पर प्रेमी जोड़ों पर निगाह रखने वाले एंटी रोमियो दस्ते का विस्तार पूरे सोशल मीडिया की निगरानी के लिए होने लगे तो यह सीधे तानाशाही के मुहाने पर पहुंचने की बात है। राज्य पर नागरिकों की इस तरह की निगरानी के अध्याय से इतिहास की किताबें भरी पड़ी हैं। लेकिन उन अध्यायों का अंत यही है कि उनका अंजाम बुरा हुआ है।
भारत में अपनी तरह की मजबूत और ऐतिहासिक सरकार होने का खिताब जीत चुकी राजग सरकार इस तरह की नीति क्यों ला रही है जबकि अभी तक उसके लिए कोई बड़ी चुनौती खड़ी नहीं हुई है। यहां ऐसा भी कोई बहुत बड़ा डर पैदा नहीं हुआ है जो पूरे बाजार को डगमगा रहा हो। जनता के समर्थन वाला माहौल होने के बावजूद इस तरह के रवैये को रणनीतिक भूल ही कहेंगे। यह राजनीति के मैदान की रणनीति के हिसाब से गलत दिशा में बढ़ाया गया कदम है। इसका असर यह होगा कि जहां आपसे कोई डर नहीं है, वहां भी डर पैदा हो जाएगा। जिन मामूली विरोधाभासों को लोकतांत्रिक तरीके से खत्म किया जा सकता है, वहां इस तरह से आर है या पार वाला माहौल बनाना अपनी ही जमीन को दरकाने जैसा होगा। विरोध के हर स्वर को दबाने की कोशिश में कहीं आप खुद विरोधाभास के शिकार न हो जाएं।