भारतीय संस्कृति में आमंत्रण का एक सामाजिक अनुशासन रहा है। समारोह कितनी भी बड़ी जीत, खुशी, अनुष्ठान के रूप में हो, आयोजनकर्ता कितना भी शक्तिशाली हो, लेकिन आमंत्रण-पत्र की भाषा विनम्र, विनीत होती है। आमंत्रित को यह अहसास कराया जाता है कि आप विशिष्ट हैं। आमंत्रण पत्र भेजने के हकदारों में इतना अहंकार नहीं होना चाहिए कि आमंत्रितों को उनकी उम्र, सेहत, उनका राजनीतिक दल और वैचारिक प्रतिबद्धता की याद दिलाई जाए। राम मंदिर एक आंदोलन इसलिए बना और आपने उसे लेकर राजनीतिक बढ़त इसलिए हासिल की क्योंकि इस देश में राम आस्था की कड़ी हैं। राम उत्तर से दक्षिण को जोड़ते हैं। राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा पूरे देश के राम-भक्तों के लिए भावुक क्षण है। लेकिन, आपकी भाषा अयोध्या को आपके द्वारा आमंत्रितों तक महदूद कर रही है। आमंत्रण को स्वीकारने और नकारने पर बहस चलाई जा रही है। आम लोगों की आस्था कहती है कि देव-दर्शन किसी आमंत्रण-पत्र से नहीं किए जाते। राम के दर पर आमंत्रण को लेकर छिड़ी बहस पर प्रस्‍तुत है बेबाक बोल।

मूकं करोति वाचालंपंगुं लंघयते गिरिम्। यत्कृपा तमहं वंदे परमानंद माधवम्॥

भारतीय संस्कृति में आस्था एक ऐसी अश्रव्य पुकार है जो हर किसी को सुनाई नहीं देती है। लेकिन, जो इसे सुन लेता है वह अपनी आस्था से अशक्तता को भी मात दे देता है। आस्था को वैसी शक्ति की तरह देखा गया है जो मूक व्यक्ति को बोलने और पांव से अशक्त व्यक्ति को पहाड़ लांघने की ऊर्जा देती है। आस्था एक लक्ष्य को साधना है। यह चेतना का वह स्तर है जो किसी को किसी विचार के प्रति समर्पित करता है।

आस्था एक जीवन-दर्शन है। इस जीवन-दर्शन में इतनी सहिष्णुता है जो नास्तिकता को भी आस्था की ही श्रेणी में लाती है। भगवान के अस्तित्व को नकारने का भी अधिकार देती है जो खुद एक पंथ बन जाता है। राजमार्ग, रस्सीमार्ग, हवाईपट्टी बनने से पहले पहाड़ों पर या दुर्गम प्रदेशों के तीर्थ जाना इतना आसान नहीं होता था। गृहस्थ-धर्म को पूरा कर, बच्चों को जिम्मेदार बनाने के बाद ही लोग तीर्थ करने निकलते थे। जो देव-दर्शन कर आए अहंकार नहीं करते थे और जो तीर्थ पर नहीं जा पाते थे निराश नहीं होते थे।

आम लोगों की यही मान्यता होती थी कि जब ‘बुलावा’ आएगा तभी हम वहां जा सकते हैं। ‘बुलावा’ यानी आपकी स्थितियों के हिसाब से अनुकूल समय। भगवान के पास जाने का न्योता भी आस्था की बात है। जिसे भगवान चाहेंगे वही उनके पास जाएगा। बुलावा, न्योता को भारतीय संस्कृति में एक सांस्कृतिक, वैचारिक प्रतिबद्धता की तरह ही देखा जाता है।

ईश्वर किसी खास धर्म और जाति का नहीं, बल्कि आस्था का ही एक रूप है। अगर ऐसा नहीं होता तो दुनिया के ज्यादातर धर्मों में धर्मांतरण का विकल्प नहीं होता। दुनिया के कई बड़े लेखकों से लेकर कलाकारों तक ने अपना धर्म परिवर्तन किया है। ईश्वर के प्रति आस्था आत्म-जागरण ही है। भारतीय संदर्भ में याद करें अस्सी का दशक।

‘चलो बुलावा आया है माता ने बुलाया है’ के बोल से नरेंद्र चंचल ने जिस ‘जागरण’ भजन की अगुआई की वह पूरी हिंदी पट्टी में मुखर भक्ति की नई परिपाटी लेकर आया। नरेंद्र चंचल के गीत का भाव यही है कि यह बुलावा किसी आमंत्रण पत्र से नहीं आता है। ऐसे गीत गाते हुए देवी-भक्ति को लेकर भी नया जागरण हुआ था। लोग यह भजन गाते हुए अपनी आस्था की देवी के दर्शन के लिए रवाना हो जाते थे।

वैश्विक परिदृश्य से लेकर भारतीय संदर्भ में ‘जागरण’ एक प्रगतिशील शब्द है। जागरण का मतलब सिर्फ नींद से उठना भर नहीं, बल्कि अंतर्मन से जागरूक होना है। यह स्व से मुठभेड़ होता है। जागरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत हम अपने आंतरिक प्रदूषण को कम करने की, खत्म करने की कोशिश करते हैं। कुछ ऐसी सीखों को भूलने की कोशिश करते हैं जिसे सिखाया ही गलत तरीके से गया, जो गलतियों की वजह बना। जागरण सिर्फ सीखना नहीं अपने हासिल ज्ञान की समीक्षा करना भी होता है। अगर सीखा और सिखाया गया चेतना का विकास नहीं कर रहा है तो उसे खुद से झटक देना ही बेहतर है।

भक्ति के बढ़े बाजार ने ‘जागरण’ शब्द का जिस तरह से ह्रास किया है, उसी तरह से भगवान का बुलावा भी राजनीतिकों के आमंत्रण-पत्र में जाकर राजनीति का हथियार बन गया है। कौन, किसको, कैसे बुलाएगा यह अहम है। दक्ष प्रजापति अपनी पुत्री पार्वती के पति शिव से नाराज थे। दक्ष ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया, लेकिन उसमें पार्वती को निमंत्रित नहीं किया।

पार्वती अपने पिता के द्वारा किए गए अपमान से क्षुब्ध हो जाती हैं। वह इसे अन्याय मानती हैं और पिता के पास पहुंच जाती हैं। पिता के यहां न्योता को लेकर पार्वती की पीड़ा को लेकर लोक-गीत भरे पड़े हैं। महिलाएं जब पार्वती की पीड़ा को अपने गले में उतारती हैं तो अपनी पीड़ा को भी साझा करती हैं। विवाह के बाद पुत्री को पिता के घर भी बुलावे से ही आना है। उस बुलावे में पति के लिए अपमान हो तो फिर क्या किया जाए?

शिव-पार्वती के प्रेम को अस्मिता की जंग के रूप में भी देखा जाता है। इस प्रेम के साथ परिवार दुविधा बन कर आता है। दामाद भगवान का रूप तभी होता है जब वह पिता की पसंद हो। पार्वती के लिए इतना काफी नहीं था कि उन्होंने शिव को पति के रूप में पा लिया। वह अपने पितृ-गृह में अपने इस फैसले का सम्मान भी चाहती थीं। होंगे उसके पिता पर्वतराज। लेकिन, उन्हें अपनी पुत्री के पति का सम्मान रखना होगा। बैरागी शिव के सम्मान के लिए पार्वती की लड़ाई भारतीय संस्कृति के लोक-धुन में बसी हुई है। हर समुदाय की स्त्रियां इसे अपनी तरह से रचती हैं और गाती हैं। पितृ-घर में पुत्री को नहीं न्योते जाने की पीड़ा सुन सकते हैं तो सुनिए।

पर्वतराज हिमालय का पार्वती को नहीं बुलाना एक उकसावा था। इस बहाने वो पार्वती पर अपना शक्ति प्रदर्शन करना चाहते थे। दक्ष उस महादेव को न्योता नहीं दे रहे थे, जो मंगलमूर्ति हैं। जिनको न्योते बिना मंगल कार्य अधूरा है। ऐसा ही उकसावे का बुलावा अभी अयोध्या से भी प्रेषित हो रहा है। हां, यह ठीक है कि आपने इस आंदोलन की बुनियाद रखी थी। उस वक्त आपके रथ को रोक दिया गया था। आपका जीवन मंदिर-आंदोलन के लिए समर्पित था। अगर मंदिर आंदोलन को लेकर आपका इतिहास अप्रतिम है तो फिर आपकी उम्र बहुत ज्यादा होगी।

पहले आमंत्रण-पत्र में लिखा जाता था, ‘भेज रहे हैं स्नेह-निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को/हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को।’ अब शायद लिखा जाए, भेज रहे हैं स्नेह निमंत्रण, आपकी उम्र याद दिलाने को…आने के पहले अपनी उम्र, सेहत, राजनीतिक दल, वैचारिक प्रतिबद्धता का ध्यान रखिएगा। राम मंदिर के दर पर आने के लिए उम्र का ध्यान रखने की सलाह देने वाले आस्था के उन उदाहरणों को भूल जाते हैं जहां शारीरिक रूप से अशक्त या बुजुर्ग पहाड़ पर देव-दर्शन कर आता है और कोई सेहतमंद युवा बीच राह में ही हिम्मत छोड़ देता है।

मंदिर आंदोलन खास राजनीति का हिस्सा बना तो उन्हें भी आमंत्रण भेज दिया गया जिनकी राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक मंदिर निर्माण ‘राजधर्म’ नहीं है। आमंत्रण भेजने वाले को पता है कि सामने वाला नकारेगा ही। सामने वाले ने उन्हें एकदम सही साबित करते हुए नकार को सार्वजनिक किया। आमंत्रण नकारने के पहले यह ध्यान रखना था कि आपके नकार से भी वे अपने लिए ढेर सारा स्वीकार ले आएंगे कि भगवान के घर तो वही आ पाते हैं जिन्हें भगवान बुलाते हैं। यह उनके लिए लोगों को अपनी ओर ध्रुवीकृत करने का एक और मौका होगा।

दूसरी ओर, एक ही राजनीतिक दल से सोनिया गांधी और मल्लिकार्जुन खरगे को तो आमंत्रण दिया जाता है, लेकिन राहुल गांंधी को नहीं दिया जाता है। जब माता आमंत्रण के योग्य है तो फिर पुत्र को आमंत्रण नहीं भेजने की वजह भी साफ पता चल रही है। मंदिर आंदोलन का इतिहास दशकों पुराना है। लेकिन, आज आपके पास आमंत्रण का अधिकार है तो आप उसे लेकर गर्वित हो रहे हैं।

इस देश में राम सिर्फ भगवान नहीं एक भाव हैं। आस्था का भाव, प्रेम का भाव, विनम्रता का भाव। जहां आस्था हो वहां आमंत्रण की जरूरत नहीं है। जब सबको अयोध्या आमंत्रित नहीं किया जा सकता है तो बुलावा में उकसावा क्यों दिखाना? अपनी तरफ से आमंत्रण में सिर्फ आदर भेजिए, बाकी आमंत्रित के लिए छोड़ दीजिए।

राम को लेकर आस्था के महासमुद्र को एक दिन, एक जगह समेटना संभव नहीं तो फिर उसकी सूची पर बात कर किसी को सम्मानित या अपमानित क्यों करना? आपको तो कहना चाहिए था अपने राम को याद कीजिए, पहुंचिए उनके धाम। यह राम का घर है, यहां सबका स्वागत है।