नख-दंत विहीन…कुछ उदाहरणों को छोड़ दें तो भारतीय राजनीति में ‘उप’ का शब्द इसी को परिभाषित करता है। किसी को यह पद इसलिए दिया जाता है कि वह किसी और क्षेत्र में अपनी हैसियत रखता है और तुष्टीकरण के लिहाज से उसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता है। अगर प्रचंड बहुमत के बाद भी दो-दो उपमुख्यमंत्री रखे जा रहे हैं तो इसलिए कि यह पहले ही भांप लिया गया है कि किन क्षेत्रों में असंतोष उभर सकता है। साथ ही मौजूदा मुख्यमंत्री के लिए चेतावनी भी कि अगर आपका अनुशासन इधर-उधर हुआ तो दो और भी हैं। अब इसे चाहे जातीय समीकरण का नाम दिया जाए या कुछ और। लेकिन, मजबूत जनादेश वाली सरकार में मुख्यमंत्री के साथ दो-दो उपमुख्यमंत्री सरकार के चेहरे पर छुपे उस भय का प्रतीक हैं कि पता नहीं कौन सा खेमा कब नाराज हो जाए। भाजपा जैसी अनुशासित पार्टी में यह सावधानी उस खतरे को रोकने के लिए है जहां अ से अनुशानस के बाद अ से असंतोष भी हो जाता है। असंतोष की आशंका से उपज रहे दो-दो उपमुख्यमंत्रियों पर प्रस्‍तुत है बेबाक बोल।

अभी हम सांसदों, केंद्रीय मंत्री के विधायक बनने के बाद खिले-खिले चेहरे देख कर अभिभूत थे। विधायकी का प्रमाणपत्र लेते और सांसदी से इस्तीफा देते सांसद। राजनीति में यह कितनी आदर्श स्थिति दिखी कि न कोई सांसद है, न कोई विधायक है और न कोई मंत्री है। हर कोई सिर्फ पार्टी कार्यकर्ता है। जिसे जो कहा जाता है हंसते-हंसते अपने मिशन में लग जाता है।

अनुशासन का मतलब यही कि इनमें कोई संतोष व असंतोष का भाव नहीं है। ये गीता के पथ पर चलते हैं-कर्म किए जाओ फल की चिंता मत करो। हाथ में रसीले फल की जगह जंगली कंद-मूल मिले तो भी शिकायत नहीं। क्या इस स्थिति को देखते हुए इसे राजनीतिक आदर्शवाद का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण मान लिया जाए। यहां कोई असंतोष नहीं, किसी को पद-मोह नहीं सब सिर्फ एक अनुशासित पार्टी कार्यकर्ता हैं। बंपर बहुमत के रूप में भारतीय राजनीति बदल गई है।

लेकिन, इस नतीजे पर पहुंचने से पहले जरा ठहरिए। यह राजनीति का मैदान है जहां आशंकाएं वहीं से शुरू होती हैं जहां से पूरी तरह खत्म मान ली जाती हैं। अनुशासन-आख्यान के बाद जब फिजा में दो-दो उपमुख्यमंत्रियों के नाम गूंजते हैं तो पता चलता है कि घोर अनुशासन में भी असंतोष की आशंका भरपूर है। अनुशासन तो असंतोष की नाजुक डोर पर करतब कर रहा है जिसे हम सब आश्चर्य से देख रहे हैं। अनुशासन और असंतोष के बीच किसी अनहोनी से बचने के लिए ही भारतीय राजनीति में जन्म हुआ ‘उप’ का। प्रधान और मुख्य के बीच उप वह चेहरा है जो भारतीय राजनीति में ब्रह्मास्त्र की तरह निकाला गया था।

आजाद भारत के संविधान ने ‘उप’ के पद का प्रावधान नहीं रखा था। उपप्रधानमंत्री, उपमुख्यमंत्री ये संवैधानिक पद नहीं हैं। लेकिन, राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा, और किसी तरह के असंतोष की अनहोनी को नकारने के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल को उपप्रधानमंत्री का पद दिया गया था। आजादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस के लिए भी एक सर्वमान्य नेता को सामने लाना मुश्किल था।

नेहरू पहली पसंद के तौर पर उभरे थे तो पटेल की भी अपनी स्वीकार्यता थी। नेहरू व पटेल, दोनों सशक्त चेहरों के बीच टकराहट को कम करने का काम इस ‘उप’ ने कर दिया। हर तरह से सशक्त वजूद के बावजूद पटेल के लिए उपप्रधानमंत्री पद की जरूरत समझी गई। वहीं लालकृष्ण आडवाणी की राजनीतिक गरिमा को कायम रखने व उनके समर्थकों को असंतोष से बचाने के लिए ‘उपप्रधानमंत्री’ पद ने संकटमोचक का काम किया।

भारतीय राजनीति, असंतोष और उप के साथ के इतिहास में सबसे मजेदार किरदार देवी लाल हैं जिन्होंने वीपी सिंह की सरकार में शपथ-ग्रहण समारोह में मंत्री-पद के बजाए अपने ‘विवेक’ से उपप्रधानमंत्री की शपथ ले ली थी। देवी लाल का यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी पहुंचा। प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की कुश्ती पर विराम लगाने के लिए जिस ‘उप’ की शुरुआत हुई वह बाद में उपमुख्यमंत्री तक पहुंचा।

ऐतिहासिक, जादुई व अविश्वसनीय बहुमत मिलने के बाद भी अगर आपके यहां मुख्यमंत्री से ज्याद उपमुख्यमंत्री बनाने की माथापच्ची चल रही है तो मतलब साफ है कि दिल्ली दरबार की भी अपनी सीमा है जो राज्यों में उपमुख्यमंत्री की शक्ल ले रही है। अब आला कमान अपनी नाक और साख बचाने के लिए इसे कुछ भी नाम दे सकते हैं। इसे जातीय समीकरण को देखना, क्षेत्रीय संतुलन साधना कहा जा सकता है।

मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस की जीत के बीच बड़ा अंतर है। इतनी बड़ी जीत के बाद भी मध्य प्रदेश में एक चेहरे की कमान पर भरोसा नहीं किया गया। यहां दो दशक बाद फिर से उपमुख्यमंत्री शपथ ले चुके हैं। भाजपा आलाकमान ने चार बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चेहरे को दरकिनार कर कहा कि हम कमल के निशान पर चुनाव लड़ेंगे।

लेकिन, जीत के बाद सिर्फ एक चेहरे को राज्य की कमान देने में उस खतरे को महसूस किया गया जो पहचान की राजनीति से आई है। चार बार रहा एक लोकप्रिय चेहरा जिसका चुनाव में प्रदर्शन भी श्रेष्ठ रहा उसे हटाकर तीन चेहरे लाना? ये एक के बदले तीन का आंकड़ा बता रहा है कि बड़ी जीत को संभालना भी बड़ी मुश्किल का काम है।

छत्तीसगढ़ में आदिवासी पहचान को पासा पलटने वाला बताया गया। लेकिन, एक छोटे से राज्य में आदिवासी मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्री बता रहे हैं कि चौसर के आस-पास कई खिलाड़ी हैं जिन्हें खेल में बनाए रखने का वादा किया गया है।कोस-कोस पर बदले पानी चार कोस पर वाणी की कहावत अब पहचान की राजनीति में बदल गई है। एक राज्य में कई क्षेत्र अपनी अस्मितावादी पहचान के साथ वोट मांग रहे हैं। आप सारी पहचानों के साथ झुक कर जमीन पर बात कर आसमान पर उसे केंद्रीय निशान का झंडा बना कर फहरा दें। लेकिन, जमीन पर जितने सारे झंडे और निशान थे उनकी पहचान उपमुख्यमंत्री के दो-दो चेहरे बता रहे हैं।

पिछले कुछ सालों में ‘डबल इंजन’ शब्द लोकप्रिय हुआ। केंद्र और राज्य की सरकारें एक ही दल की हो तो विकास की गाड़ी तेजी से दौड़ सकती है यह कहा गया। इसी ‘डबल इंजन’ के इजाद के बाद केंद्रीय निशान पर वोट मांगे गए। लेकिन, उपमुख्यमंत्रियों के चेहरे बता रहे कि केंद्र अभी तक परिधि को दरकिनार नहीं कर पाया है। सत्ता सुख को निष्कंटक भोगने के लिए ही स्थानीय चेहरों को खुश किया गया है।

महाराष्ट्र की बात करें तो हमें पता चलेगा कि उपमुख्यमंत्री नामक विडंबना की शक्ल देवेंद्र फडणवीस जैसी होती है। महाराष्ट्र में उस दल का नेता मुख्यमंत्री है जिसके पास फिलहाल सबसे कम सीटें हैं। लेकिन अभी इसी कम सीटों वाले मुख्यमंत्री के पास आगे तुष्टीकरण की राजनीति की कमान है। उसकी नाराजगी में एक बड़े वर्ग की राजनीति छुपी है।

अभी तक के इतिहास से हम सब जानते हैं कि उप-मुख्यमंत्री का पद दंत-नख विहीन है। लेकिन, आप यह पद उन्हें देते हैं जिन्हें राजनीतिक रूप से संतुष्ट करना होता है। हां, अगर वह कोई मजबूत चेहरा है तो फिर अपने हिसाब से विभाग की मांग कर सकता है और अपना शक्ति-प्रदर्शन बनाए रख सकता है। जैसे कि हरियाणा में दुष्यंत चौटाला और बिहार में तेजस्वी यादव और महाराष्ट्र में अजित पवार। बिहार में बहुत से मुद्दों पर नीतीश कुमार से ज्यादा मुखर और पद के स्तर पर ‘तेजस्वी’ उपमुख्यमंत्री ही दिखते हैं।

जब उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश जैसे बड़े बहुमत वाले प्रदेश में दो-दो उपमुख्यमंत्री नत्थी कर दिए जाएं तो इसे सिर्फ और सिर्फ विभिन्न पहचानों के असंतोष को दबाने के तौर पर ही देखा जा सकता है। हालांकि, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में उपमुख्यमंत्रियों के बिल्कुल विपरीत हालात हैं क्योंकि दोनों जगह भाजपा के शक्तिबल का फल अलग-अलग निकलता है।

जहां आपकी राजनीतिक शक्ति ज्यादा है वहां उपमुख्यमंत्रियों के शपथ ग्रहण के बाद उनका चेहरा गुम हो जाता है सिर्फ उनके नाम की जाति की गूंज होती है कि फलां जाति के मुख्यमंत्री हैं। जहां संख्या बल कम है वहां कोई उपमुख्यमंत्री के रूप में भी मुख्यमंत्री से ज्यादा सशक्त आवाज बन जाता है। उपमुख्यमंत्री हिंदुस्तान की राजनीति में जातिगत असंतोष को दबाने का सबसे कारगर उपाय है।

नख-दंत विहीन उपमुख्यमंत्री के पद को जिन राज्यों में खारिज मान लिया गया था वहां प्रचंड बहुमत के बाद भी ये जोड़े में लौट चुके हैं तो यही समझिए कि जीत का निशान और तरीका बदला है, राजनीति वहीं जाति पर अटकी हुई है। महिला, गरीबी नहीं जाति ही असली जाति है।