जुबां से निकालेंगे गंद इतना कि हर गाली के बाद आलाकमान पूछे, बता क्या बना दूं तुझे? मकबूल शायर के शब्दों को इतना विद्रूप कर अगर हम इस विद्रूप समय को बयां कर पाएं तो यह गुस्ताखी की जा सकती है। देश के शौर्य के साथ सिंदूर जुड़ा। इन दो सुंदर शब्दों के जुड़ने के बाद सत्ता पक्ष के बदजुबान नेताओं ने सब कुछ असुंदर करना शुरू कर दिया। कर्नल कुरैशी पर विजय शाह की बदजुबानी के बाद आलाकमान को इस स्तंभ में आगाह किया गया कि अगर आप कार्रवाई की जिम्मेदारी से चूके तो पता नहीं आगे क्या होगा? इस समय की विडंबना है कि आशंका और अशुभ बोलते ही साकार हो जा रहे हैं। विजय शाह पर कार्रवाई नहीं की तो आगे क्या का जवाब लेकर प्रेम शुक्ला आ गए कि हम तो टीवी चैनल पर भद्दी गाली देंगे और हमारा कुछ नहीं बिगड़ेगा। साथ ही उन चैनलों का भी कुछ नहीं होगा जो ‘आपरेशन सिंदूर’ को भद्दी भाषा की बहस में भुना रहे।अब यह तसव्वुर करने की हिम्मत नहीं कि प्रेम शुक्ला पर कड़ी कार्रवाई नहीं की गई तो आगे क्या होगा? प्र-बकता बन गाली बकते धाकड़ नेताओं पर बेबाक बोल।
सवाल उठाने को ही हर तरफ अघोषित रूप से नाजायज घोषित कर दिया जाए तो क्या हो सकता है? ऐेसे हालात में एक समय ऐसा भी आता है, जब आपका नाम क्या है…जैसे बुनियादी सवाल पर भी मुंह से वह निकल जाता है जो एक राष्ट्रीय पार्टी और स्वघोषित दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के प्रवक्ता के मुंह से सरेआम टीवी चैनल पर निकला। सवाल उठाने वालों से या आपके सामने, आपके ही जैसी तीव्र आवाज बोलने वालों को आप दुनिया की सबसे गंदी गाली दे बैठते हैं। इनका हौसला इतना बढ़ चुका है कि किसी भी प्रश्नवाचक निशान को ये अपने खिलाफ मान कर सवाल करने वाले का किसी भी स्तर पर अपमान कर सकते हैं।
कर्नल सोफिया के बारे में मंत्री की अभद्र टिप्पणी से काफी किरकिरी हो चुकी है
गाली देना ही अपने आप में अपराध है और आपने गाली भी वो दी जिससे गंदी गाली खोजना भूसे के ढेर में सुई खोजने के समान है। मौजूदा सत्ता का गालीबाजों से प्रेम तो पूरी तरह सिद्ध हो चुका है। इसमें औरत-मर्द का कोई भेद नहीं है। साध्वी की रामजादों से लेकर …जादों तक की धुआंधार शुरुआत से मामला टीवी पर मां की गाली तक पहुंच गया। गोली मारो …को वाले से भी आपका असीम ‘अनुराग’ देखा गया। कर्नल सोफिया के बारे में आपके मंत्री की अभद्र टिप्पणी के बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किरकिरी होने के बावजूद वे विजय की मुद्रा में अपनी आलोचना करने वालों को ठेंगा दिखाते हुए मानो कह रहे थे कि जुबां से निकालेंगे गंद इतना कि हर गाली के बाद आलाकमान पूछे, बता क्या बना दूं तुझे?
2014 के बाद की सत्ता को अब तक का पूरा राजनीतिक माहौल बदल देने का श्रेय दिया जाता है। दार्शनिक जर्गन हैबरमास ने ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ की अवधारणा को समझाते हुए कहा था कि समानता पर आधारित परस्पर संवाद ही लोकतंत्र की बुनियाद है। गाली-गलौज की भाषा आते ही सबसे पहले समानता का सिद्धांत खत्म होता है। गाली हमेशा ही वर्चस्व स्थापित करने के लिए दी जाती है। गाली देने वाला सबसे पहले लोकतंत्र की बुनियादी समानता को दफन कर देता है।
नोम चोम्सकी बहुत पहले ही इस प्रवृत्ति की पहचान कर बता चुके हैं कि आज के समय की सत्ता की भाषा में आक्रामकता उसकी रणनीति का हिस्सा हो गई है। भाषाई आक्रामकता के सामने सारे मुद्दे दब जाते हैं। लंबे समय से यही रणनीति आपने अपना रखी है। भाषा में आक्रामकता लाने का मकसद ही संवाद की समानता को खत्म करना है।
अखबार को आम तौर पर तथ्यों को रखने के बाद वैचारिक रूप से तटस्थ रहना चाहिए, और अन्य संस्थाओं पर उसके हिस्से की जिम्मेदारी निभाने पर भरोसा करना चाहिए। माफी और अफसोस के साथ इस बार हम पक्ष ले रहे हैं। इस बार तो सुरेंद्र राजपूत की लिखी चिट्ठी शिकायत के रूप में दर्ज है। उनकी ही अपील पर संज्ञान ले लीजिए। क्या हर बार जरूरी है कि आलाकमान का काम अदालत ही करे? पिछले स्तंभ में हम यह भी स्पष्ट कर चुके हैं कि अदालत की अपनी सीमा है। अदालत पार्टी आलाकमान की भूमिका नहीं निभा सकती क्योंकि उसका संवैधानिक दायरा है।
Col Sofiya Qureshi: 17 दिन बाद जनता के सामने आए मंत्री विजय शाह, मीडिया से नहीं की बात
हमारी सबसे बड़ी चिंता है कि टेलीविजन पर इतनी भद्दी गाली देने के बाद भी हर तरफ के सांस्थानिक सन्नाटे का असर आगे क्या होगा? उत्साहित गालीवीर आगे कौन सी गाली देंगे जबकि हम पूरी दुनिया में इससे गंदी गाली ढूंढ़ने में असमर्थ हैं। विजय शाह पर आपने कार्रवाई नहीं कि तो हिम्मत बढ़ते ही एक मंच-वीर ने पहलगाम के शहीदों पर ही सवाल उठा दिए। सीधे-सीधे बक डाला कि उनका काम वीरांगनाओं जैसा नहीं था।
किसी स्त्री का इससे ज्यादा अपमान और क्या हो सकता है जब पति की हत्या के समय उसकी भूमिका पर सवाल उठा दिया जाए। यह कुत्सित और घृणित बयान उस वक्त दिया गया जब पूरा देश ‘सिंदूर’ शब्द के सम्मान में एकजुट है।
‘आपरेशन सिंदूर’ पर बहस के दौरान टीवी चैनल पर जो गाली दी गई उसके बराबर के जिम्मेदार चैनल भी हैं। चैनलों की भूमिका को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी किस पर है? अभी तो ऐसा लगता है कि अश्विनी वैष्णव के कार्यकाल पर जब कायदे से सवाल उठेंगे तो यह तय करना मुश्किल हो जाएगा कि वे ज्यादा नाकाम किस विभाग में हुए?
युद्ध के समय गलत खबर चलाना किसी अपराध से कम के खाते में नहीं डाला जाना चाहिए। चैनलों ने डंके की चोट पर गलत खबर चलाई और आपने क्या किया? पिछले दिनों प्रमुख रक्षा अध्यक्ष अनिल चौहान के दिए कई बयान बहसतलब हुए। शांगरी-ला वार्ता के दौरान जनरल चौहान ने एक बात ऐसी भी कही जिसके बाद अश्विनी वैष्णव का महकमा जोरदार सवालों के दायरे में आना चाहिए। चौहान ने कहा था कि आपरेशन सिंदूर के दौरान सशस्त्र बलों का लगभग 15 फीसद समय झूठी खबरों से निपटने में लगा।
सेना के अगुआ जब वैश्विक मंच पर यह बात कह रहे थे तो भारत में सूचना व प्रसारण मंत्रालय के अगुआ क्या उन्हें सुन रहे थे? युद्ध जैसे हालात में सेना के अहम 15 फीसद समय को लेकर क्या उन्हें अपनी जिम्मेदारी का अहसास हुआ? फर्जी खबरों को लेकर चैनलों को बैखौफ छोड़ देने का आगे का असर यही था कि टीवी पर ‘आपरेशन सिंदूर’ पर बहस में विपक्ष को अपमानित करने के लिए कुछ भी करने की छूट मिल गई।
सरकार के अनुसार जब ‘आपरेशन सिंदूर’ अभी जारी है और यह सवालों से परे है तो इस मुद्दे पर चैनल बहस आयोजित कर ही क्यों रहे हैं और पक्ष व विपक्ष दोनों इसमें बहस के लिए आमंत्रण कबूल क्यों रहे हैं? ‘आपरेशन सिंदूर’ को लेकर खबरों के फर्जीवाड़े का यह आलम रहा कि एक युवक ने खुद को पाकिस्तानी के रूप में पेश कर पाकिस्तान का मजाक उड़ाते हुए ‘रील’ बनाई तो चैनल ने उसे भी सच मान कर चला दिया।
मीडिया में आई खबरों के अनुसार ‘आपरेशन सिंदूर’ के सामने आने के बाद जब पूरा देश पहलगाम के शहीदों को श्रद्धांजलि दे रहा था तब एक कारोबारी समूह ‘आपरेशन सिंदूर’ नाम का पंजीकरण अपनी कंपनी के लिए करवाने के लिए दौड़ गया। इस अभियान को सिनेमा के पर्दे पर जो भुनाना था। इस खबर के सामने आते ही लोग गुस्से में आ गए और कारोबारी को अपना ‘तुरंता सिनेमा’ बनाने का अभियान स्थगित करना पड़ा। लेकिन टीवी चैनलों ने ‘आपरेशन सिंदूर’ को भुनाना जारी रखा और वैष्णव जी ने भी इन सबसे आंखें मूंद लीं।
नतीजतन चैनल ‘आपरेशन सिंदूर’ को लेकर हर तरह के अतिरेक में जाने लगे। युद्ध के दौरान फर्जी खबरें दिखाने के बाद भी चैनल अपनी दर्शक-संख्या बढ़ाने में नाकामयाब रहे। अब उनकी आखिरी उम्मीद ऐसे ही गाली-गलौज वाले विवादित टुकड़ों से है। अब जब लोग पूरा कार्यक्रम देखने नहीं आ रहे हैं तो विवादित हिस्से से सोशल मीडिया पर चैनल का वजूद दर्ज करवा दें। दर्शकों से दूर होते चैनलों की मदद करने के लिए सत्ता के प्रवक्ता जब गंदी गाली बकेंगे तो सत्ता कितने दिनों तक जनता के नजदीक बनी रहेगी यह सोचने की बात है। गाली अहंकार का चरम है और अब उसके बाद का चरण क्या होगा?
‘आपरेशन सिंदूर’ भारत पर पाकिस्तान के द्वारा थोपा गया था। सरकार और सेना अभी इसे पूरा नहीं मान रही है, लेकिन सत्ता पक्ष के नेता बेलगाम हो उठे। कोई सेना की विजय में भाई-बहन का रिश्ता ढूंढ़ रहा था और कोई किसी को जगदीश बना कर नतमस्तक था। आलम यह है सत्ता के नशे का कि कोई राष्ट्रीय राजमार्ग पर अपनी नृत्य-भंगिमाओं का धाकड़ प्रदर्शन कर रहा था।
इसी दौरान राजसत्ता के नशे में चूर नेता, प्रेम शुक्ला इसे जिस स्तर पर ले गए और उनकी गाली सोशल मीडिया पर गूंजती रही उससे ज्यादा उन आदर्शवादियों पर शर्म आती है जो ऐसे मौकों पर गूंगे हो जाते हैं। प्रवक्ता कब बक बक करने वाले प्र-बकता हो गए पता ही न चला। पार्टियां चाहे इन्हें सिर पर बिठाएं, इन्हें घर की बैठक से भगाने का समय आ गया है।
