Political Parties Democracy: आज के समय में जब चुनावी जीत ही सबसे बड़ा मूल्य है तो मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के लिए उनकी पार्टी की विचारधारा कोई मायने नहीं रखती है। पार्टी का संविधान से लेकर उसके अध्यक्ष पद तक अलंकारिक हो चुके हैं। मुख्यधारा का कोई भी राजनीतिक दल अंतिम आदमी की लड़ाई नहीं लड़ रहा है। उसके लिए जीत प्रथम है और जीत दिलानेवाला ही एकमात्र नायक। जीत ऐसा जवाब बन गया है जिसके आगे आपका अध्यक्ष कब और कैसे चुना जाएगा जैसे सवाल मायने ही नहीं रखते हैं। राजनीतिक दल संविधान की खानापूर्ति के लिए अपने राजनीतिक वृत्त पर खड़े लोगों में से किसी को भी ‘इंटी विंटी पापड़ टिंटी’ कहते हुए चुन लिया करते हैं। इसके बाद इस ‘इंटी-विंटी’ से चुने गए अध्यक्ष या मुख्यमंत्री को तुरुप का पत्ता भी करार दिया जाता है। जीतने वाले दल में अंदरूनी लोकतंत्र देखने की मनाही के बाद इसका सारा नैतिक बोझ विपक्ष पर आ गया। इस नैतिक बोझ के तहत कांग्रेस के नायक को अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा। जीत बनाम राजनीतिक मूल्य पर बेबाक बोल

अन्नामलाई…। तमिलनाडु में इन्हें बहुत धूमधाम से भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया। अपने जुझारू तेवर से इन्होंने राज्य भाजपा में जान फूंकने की पूरी कोशिश की। अन्नामलाई अफरशाही से राजनीति में आए उन नेताओं में से हैं जो फिलहाल दक्षिणपंथी सिद्धांतवादी राजनीति में भरोसा करते हुए दिख रहे हैं।अब इन दिनों माहौल ऐसा बन रहा है कि अन्नामलाई को तमिलनाडु भाजपा के अध्यक्ष पद के लिए बोझ सा माना जा रहा है। अपने वैचारिक आग्रहों की वजह से वे अध्यक्ष पद पर पार्टी को कई दफा असहज सा कर देते हैं। एक तरह से कहिए तो उनकी योग्यता ही उन्हें अपने पद के लिए अयोग्य करार देने की ओर ले जा रही है।

स्तंभ की शुरूआत तमिलनाडु के भाजपा प्रदेश अध्यक्ष से करने का एक खास मकसद है। इन दिनों चहुं ओर यह खबर बन रही है कि भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष कौन बनेगा। मीडिया पर लिखने-बोलने वाले स्तंभकार मीडिया के हाल पर हंस रहे हैं कि किसी को नहीं पता कि भाजपा अध्यक्ष कौन बनने वाला है। इसके लिए पूरी राजनीतिक पत्रकारिता को नकारा साबित किया जा रहा है।

बहुत दिनों के बाद इस स्तंभ में मौजूदा राजनीतिक टिप्पणीकारों, पत्रकारों पर वार करने के बजाय उनका बचाव करने की कोशिश होगी। राजनीतिक पत्रकारिता इस बात पर निर्भर करती है कि राजनीति कैसी है। आज जिस तरह सभी राजनीतिक दल वैचारिक मूल्यों से किनारा कर रहे हैं उसमें किस आधार पर कोई किसी नाम का पूर्वानुमान लगा सकता है?

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आज की वैचारिकी विरोधी राजनीति को देखते हुए यह खबर बनाने की कोशिश ही गलत है कि कौन बनेगा भाजपा अध्यक्ष। आखिर पत्रकार किस तरह से किसी को भावी अध्यक्ष बता सकता है। वह उनमें कौन से गुण देख कर विश्लेषण करे? राजनीतिक पार्टी जब तक जीत रही होती है तो उसे किसी और गुण की दरकार ही नहीं होती है। आज कोई पत्रकार कैसे भावी मुख्यमंत्री के नाम का विश्लेषण कर सकता है? क्या बताए कि इस भावी मुख्यमंत्री को अभी तक कोई नहीं जानता है, कायदे से इन्हें चंद विधायकों का भी समर्थन हासिल नहीं है। अभी तक ये पर्दे के पीछे रहे हैं…। ये अपनी तरफ से कुछ नहीं कहेंगे-करेंगे जब तक ऊपर से कोई आदेश न आ जाए। अभी तक गोदी-अगोदी पत्रकारों को अवगुणों की खोजी पत्रकारिता का प्रशिक्षण नहीं मिला है।

राजनीति, सार्वजनिकता की चीज है। लेकिन अभी गोपनीयता को तुरुप का पत्ता बना दिया गया है। इस गोपनीयता के नाम पर वैचारिक मूल्यों को ही गुमनाम कर दिया गया है। जब सार्वजनिकता ही अयोग्यता हो तो फिर नामालूम का मालूम सिर्फ उन्हें हो सकता है जो जीत रहे हैं। अगर आप जीत रहे हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी का अध्यक्ष लोकतांत्रिक तरीके से चुना जा रहा है या बच्चों के खेल की तरह ‘इंटी-विंटी-पापड़-टिंटी’ कहते हुए किसी की ओर अंगुली कर दें। पक्ष में भी सिर्फ एक जीतनेवाला नायक और विपक्ष में भी एक जीत की दावेदारी का नायक। पक्ष हो या विपक्ष, राजनीतिक दलों में अब एक ही बंदे को काफी मान लिया गया है यानी जो जीत रहा है या जो जीत सकता है। बाकी अध्यक्ष, उपाध्यक्ष सबके पद से लोकतंत्र की अलंकारिक रौनक बनी हुई है इसलिए इसे आगे भी बढ़ाया जा रहा है।

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विपक्ष के पास जीत नहीं है तो फिर कथित गोदी व कथित अगोदी दोनों पत्रकारों के पास उसकी पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र पर ढेरों सवाल होते हैं। इतने सवाल होते हैं कि विपक्ष को अपनी उम्मीदों के चेहरे को अध्यक्ष पद से हटा कर लोकतांत्रिक सांगठनिक चुनाव करवाना पड़ा। लेकिन वह इतना कथित लोकतांत्रिक था कि आरोप है, शशि थरूर अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ने के बाद से कांग्रेस में आंख की किरकिरी सी बन गए हैं। इसके बावजूद राहत की बात यह है कि हारने के कारण ही सही पूरे देश को कांग्रेस के सांगठनिक चुनाव और आंतरिक लोकतंत्र की चिंता हुई। जब सभी क्षेत्रीय क्षत्रप संतान के रूप में पिता के अध्यक्ष पद की विरासत हासिल कर चुके हैं तब भी राहुल गांधी को वंशवाद के आरोप में अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा।

आज के दौर में सभी दलों में ‘पार्टी अध्यक्ष’ अलंकारिक पद रह गया है। किसी भी राजनीतिक दल में उसकी विभिन्न इकाइयां विधिवत लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव के जरिए अपना अध्यक्ष नहीं चुन रही हैं। राजनीतिक दलों के संविधान के तहत अध्यक्ष चुनना जरूरी है इसलिए चुने जा रहे हैं। ज्यादातर क्षेत्रीय दलों के अध्यक्ष संस्थापक पिता के बाद उनकी संतान ही हो रहे हैं और किसी को भी इससे दिक्कत नहीं है। न तो राजनीतिक दलों को और न जनता को। आज के दौर में हम जनता से तो इस चेतना की उम्मीद न ही करें कि वह यह परखे कि कौन सा राजनीतिक दल कितने लोकतांत्रिक तरीके से अपना अध्यक्ष चुनता है। जनता के जेहन में यह बात आ ही नहीं सकती कि जब राजनीतिक दलों के भीतर ही लोकतांत्रिक रवायतों का पालन नहीं हो रहा है तो वे सत्ता मिलने के बाद इसकी कितनी कद्र करेंगे।

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भाजपा के मौजूदा निवर्तमान अध्यक्ष जेपी नड्डा को ही लीजिए। रेकार्ड समय से पार्टी अध्यक्ष हैं। क्या इतने समय में एक भी जीत इनके नाम की गई? बड़ी जीत इनके नाम नहीं है। यहां पर याद दिला दें जब इनके गृह प्रदेश हिमाचल प्रदेश में भाजपा विधानसभा चुनाव हार गई थी तो ठीकरा इनके सिर ही फूटा था।

आज भाजपा का अध्यक्ष चुनने में इसलिए देरी नहीं हो रही है कि दो साल से किन्हीं खास गुणों से भरा व्यक्ति नहीं मिला। देरी इसलिए हो रही है कि उसके बिना भी काम चल रहा है और उसकी बंपर जीत के आगे पार्टी के अंदरूनी लोकतंत्र के सवाल पूछना भी बेमानी मान लिया गया है। वहीं पार्टी में अविश्वास और दुविधा इतनी है कि ‘इंटी-विंटी’ वाली अंगुली किसी पर टिक ही नहीं रही है।

आज दुनिया जिस एक मसले पर एकध्रुवीय हो चुकी है, वह है जीत। पूरी दुनिया में राजनीतिक सफलता का पैमाना जीत और सिर्फ जीत को मान लिया गया है। आपने चुनाव जीत लिया है तो आपके हर तरह के ‘चुनाव’ को स्वीकार्यता मिलेगी। एक समय था जब कालेजों और विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति का बोलबाला था। आज की राजग सरकार के कई दिग्गज चेहरे छात्र राजनीति की ही उपज हैं। लेकिन धीरे-धीरे विश्वविद्यालयों में छात्र राजनीति को खलनायक के तौर पर पेश किया जाने लगा।

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देश का प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय सत्ता समर्थकों द्वारा इसलिए खारिज किया जाने लगा क्योंकि वहां छात्र राजनीति को बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार के तहत लिया जाता है। कहा गया कि विश्वविद्यालय राजनीति करने की जगह नहीं हैं। विश्वविद्यालय राजनीति करने की जगह नहीं हों, सवाल यह है कि फिर राजनीति सीखने की जगह कौन सी होनी चाहिए? राजनीति सीखने की दूसरी सीढ़ी राजनीतिक दल ही होते थे। इनकी छात्र इकाइयों से लेकर अन्य इकाइयों के प्राथमिक सदस्यों का आगे के लिए प्रशिक्षण होता था। पार्टी के अध्यक्ष की गरिमा सर्वोच्च होती थी। लेकिन अब राजनीतिक दलों में न तो प्रशिक्षण की परंपरा रही और न अध्यक्ष पद की गरिमा।

राजनीतिक दलों को अंदरूनी लोकतंत्र की चिंता नहीं है क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति की लड़ाई नहीं लड़ रहा। राजनीतिक वृत्त पर अंतिम व्यक्ति भ्रम बन चुका है। इस वृत्त के किसी भी हिस्से पर अंगुली रख कर उसे अंतिम करार दिया जाता है। बस अपनी जीत को अंतिम आदमी की जीत और अपने चुनाव को अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति का चुनाव करार दिया जा रहा है। आज की राजनीति में जब तक जीत है तब तक एक ही बंदा काफी है…का राग है। जनता जब कोऊ अध्यक्ष होऊ हमें क्या वाले भाव में हो तब कौन से नाम और उसके काम को खोजा जाए?