बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तेरी महफिल कभी ऐसी तो न थी
-बहादुर शाह जफर
चिकित्सा विज्ञान में ‘सुनहरे समय’ की अवधारणा है। हृदयाघात, पक्षाघात से लेकर सड़क हादसों तक के मामले में अगर मरीज को समय रहते चिकित्सकीय सहायता दे दी गई तो उसकी जान बच सकती है। यह नियम अपराध के आरोपों पर भी लागू होता है। अपराध के आरोप की सूचना मिलते ही संस्थागत कार्रवाई शुरू हो जाए तो उसे जल्द न्याय के दायरे में लाना आसान होता है। अन्य मामलों में तो हम घोर लापरवाही देखते रहे हैं, लेकिन जब देश की राजधानी के सबसे संवेदनशील क्षेत्र का मामला हो, आरोप की जद में न्याय के प्रतीक का आवास स्थल हो तब संस्थाओं द्वारा सुनहरे समय को गंवा देना पूरी व्यवस्था पर सवाल उठाता है। विपक्ष के भ्रष्टाचार पर वाचालों ने भी जब सुनहरे समय में बोलने का मौका गंवा दिया तो संस्थागत सुस्ती और चुप्पी पर बेबाक बोल।
कुछ साल पहले नई-नई आई व्यवस्था ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ी और अर्थव्यवस्था में पुराने नोटों की बंदी कर दी। चंद हजार, चंद लाख के खातेदार व्यवस्था के साथ होकर एक-एक नोट के लिए लंबी कतार में लगने के लिए तैयार हो गए। एक-एक मंत्री, व्यवस्था का एक-एक आदमी दावा कर गया कि पुराने के बदले लाए गए नए नोट भ्रष्टाचार को पूरी तरह खत्म कर देंगे।
भ्रष्टाचार को लेकर संवेदनशीलता जरूरी
आज व्यवस्था के उसी गढ़ में, व्यवस्था के शीर्ष के आधिकारिक आवास से जुड़े कमरे में नोटबंदी के बाद लाए गए नए नोट जलने के आरोप लगे। भ्रष्टाचार के खिलाफ लाए गए अकूत नोटों का धू-धू कर जलता हुआ वीडियो हर आम आदमी के फोन तक पहुंचा। देश की राजधानी के अति सुरक्षित क्षेत्र में ही अकूत धन होने का आरोप लग गया। भ्रष्टाचार पर आम आदमी के उम्मीदों के इस दहन पर पूरी व्यवस्था ने संभल-संभल कर मौन तोड़ा तो जरूर कुछ बात होगी। यह वीडियो असली है या नकली अभी इस पर फैसला होना बाकी है। लेकिन आपकी चुप्पी को देख कर आम लोग मायूस हो सकते हैं कि भ्रष्टाचार को लेकर आपकी दिखाई संवेदनशीलता नकली थी।
जिस मुद्दे पर व्यवस्था मौन हो जाती है उस पर मुखर होना मुश्किल होता है। मामले में संस्थागत जांच शुरू होने के बावजूद हमने फैसला किया इस पर लिखने का क्योंकि यहां सवाल एक व्यवस्था और उससे जुड़ी विश्वसनीयता का है। यह उस संस्था से जुड़ा सवाल है जिसे ध्रुवतारा कहा जाता है। जब नागरिक से लेकर संस्थाएं तक भटक जाती हैं तो यह ध्रुवतारा ही रास्ता दिखाता है। व्यवस्था का रास्ता क्या हो जब इसी पर विवाद हो तब इस संस्था के बताए रास्ते को हर पक्ष कबूल कर लेता है। सही और गलत की हर बहस के बीच इस संस्था के सुनाए फैसले को ‘इंसाफ’ कहते हैं।
‘उन्हें जज के पद से हटा देना चाहिए…’ जस्टिस यशवंत वर्मा के ट्रांसफर को लेकर CPI सांसद का तीखा बयान
हमारे स्तंभ के इस बार के विषय को आम भाषा में ‘इंसाफ’ ही कहा जाता है। ‘इंसाफ’ की इस बहस में हम तीन स्तंभों को ही मान्यता दे रहे हैं। चौथे स्तंभ की हर तरफ अस्वीकृति बना दी गई है। हम खुद भी चौथे स्तंभ की तरफ से किसी भी तरह की दावेदारी नहीं करेंगे क्योंकि हमें हमारे नहीं होने का अहसास दिला दिया गया है। हर तरफ मूक मुनादी कर दी गई है कि चौथे स्तंभ के बिना लोकतंत्र चल रहा है। जितने भी स्तंभ बचे दिख रहे हैं उनमें अभी तक न्यायपालिका को शीर्ष का स्तर हासिल है। यहां तक कि संविधान की व्याख्या करने का अधिकार भी इसके पास है।
किस्सा बहुत सीधा है। शीर्ष सरकारी स्तर की हस्तियों के लिए बने आवास क्षेत्र के ‘बाहरी गृह’ में आग लगी। आरोप है कि जान-माल को बचाने के लिए दमकल के अधिकारी पहुंचे तो वहां इतने ‘माल’ को जलते हुए पाया कि सकते में रह गए। आग लगने पर पत्रकार राहत भरी खबर लिखते थे, किसी भी तरह के जान-माल का नुकसान नहीं हुआ। अपराध क्षेत्र के पत्रकारों के लिए यह मौका हो सकता था जब ‘माल’ के नुकसान की व्याख्या करते। खत्म कर दी गई कौम को भला यह मौका क्यों मिलना था?
Justice Verma Case: क्या SC या HC जज से ज्यादा कमाता है एक वकील? कैसा है सैलरी स्ट्रक्चर
आज जब हर हाथ में कैमरा है तो यह सोचना ही फिजूल है कि कमरे में भरे जलते नोटों का सजीव दृश्य कैद न किया गया होगा। मोबाइल में नोटदहन को कैद करना इसलिए लाजिम रहा होगा, शायद पहली बार था कि जिस काम को करने के लिए नहीं गए हैं वह दिख रहा था। अभी तक की ‘अफवाह’ के मुताबिक दमकल ने अपने आगे के विभाग को इसकी सूचना पहुंचाई। हर किसी को अपने शीर्ष से मार्गदर्शन की जरूरत महसूस हो रही थी क्योंकि जहां कथित रूप से नोट जल रहे थे उस जगह पर देश की न्यायपालिका के एक प्रतीक रहते हैं। इस तरह यह सूचना अदालत तक गई। जिन विभागों से त्वरित रास्ता दिखाने की तवक्को की जाती रही है, आरोप है कि वे ‘कुछ’ सामने आने के इंतजार में समय बिता रहे थे।
जब देश में भ्रष्टाचार की निगहबानी के नाम पर एक-एक पैसे का हिसाब-किताब मांग लिया जाता है तो इतने बड़े हादसे के बाद किसी विभाग की तरफ से फौरी हलचल क्यों नहीं हुई? हादसे के स्थल को उसी वक्त सील क्यों नहीं किया गया? लंबे समय तक सबूतों के साथ छेड़खानी की इजाजत क्यों दी गई?
न्यायपालिका के नुमाइंदे के आवास क्षेत्र में इतनी बड़ी मात्रा में नकदी पाए जाने के आरोप के बाद संस्थाओं व जनप्रतिनिधियों ने चुप्पी और सुस्ती का रास्ता पकड़ा। हालांकि उपराष्ट्रपति ने इस मसले पर अगुआई की। लेकिन इसे सत्ता से जुड़ा मुद्दा कालेजियम बनाम राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग से भी जोड़ दिया गया।
व्यवस्था से जुड़े लोगों की सभी टिप्पणियां तब सामने आईं जब मामला आम लोगों के फोन तक पहुंचने लगा। जिस मुद्दे पर पूरे देश में बहस होनी थी उसे लेकर राजनीतिक हलकों में आखिर किस वजह से इतनी बड़ी चुप्पी छा गई? जिनके आवास क्षेत्र में हादसा हुआ, वे बाहर थे। अपराध-स्थल पर एक हफ्ते तक अपने तरीके से सब कुछ सामान्य रहा और सारी संस्थाएं कुछ असामान्य के सामने आ जाने तक समय बर्बाद करती रहीं।
यह सिर्फ नकदी बरामदगी का आरोप और उसके बाद की चूक का मामला भर नहीं है। खबरों के अनुसार दमकल के अधिकारी ने बयान दिया कि मामले में किसी नकदी की बरामदगी नहीं हुई। वहीं सुप्रीम कोर्ट की ओर से ही ऐसे आरोप के तथ्यों को सामने लाया गया। उपराष्ट्रपति ने भी सुप्रीम कोर्ट के इस रवैये की तारीफ की।
इन सबके बीच अपने प्रतिनिधियों की चुप्पी देख कर आम लोगों के मन में कई सवाल चीख रहे हैं। अकूत पैसे जलने का आरोप लगा है तो कथित पैसा किसका था और इससे किसे फायदा पहुंचना था। आम लोगों की भावानाएं उस भ्रष्टाचार से जुड़ी हैं जिसके खिलाफ मौजूदा सरकार ने जंग छेड़ने का दावा कर रखा है।
जहां नोट मिलने के आरोप लगे वह आवासीय इलाका दिल्ली के उच्च सुरक्षा क्षेत्र में है। वहां एक कमरे में इतनी नकदी होना राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे की घंटी है। इस इलाके में सुरक्षा का चौतरफा घेरा है। देश के शीर्ष मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री तक का आवास इसी उच्च सुरक्षा वाले वृत्त में है। क्या इस पूरे क्षेत्र में सीसीटीवी कैमरे नहीं लगे हैं? व्यवस्था के देर आयद ने आम लोगों के बीच पूरा शक पैदा किया कि भ्रष्टाचार के खात्मे के दावे को लेकर यह व्यवस्था दुरुस्त नहीं है।
विपक्ष के किसी नेता के यहां कुछ लाख तक की बरामदगी के बाद पूरी व्यवस्था के साथ कथित रूप से वह चौथा खंभा भी सक्रिय हो जाता है जिसे हमने शुरुआत में खत्म मान लिया है। चौथे खंभे की मौत का हमारा दावा इस मुद्दे पर उसके मौन से है। आम लोगों के फोन तक पहुंचने से पहले कथित जलते नोटों के दृश्यों के साथ कोई वाद-विवाद नहीं हुआ। पक्ष के नेताओं को बुलाया ही नहीं गया तो जो विपक्ष का बड़ा हिस्सा कई मामलों में अदालती फैसलों के आए बिना राजनीतिक व्यवस्था द्वारा भ्रष्टाचारी घोषित हो चुका है उसे क्यों ही बुलाया जाता। आम लोगों के बीच बहस बनने तक वे सभी संस्थाएं सामूहिक अवकाश पर चली गईं जो किसी आम कलाकार के सरकार विरोधी बयान देने के बाद उसके खाते तक पहुंच कर वित्तीय अनियमितता का नोटिस दे देती हैं।
कुछ ही दिनों में यह मामला भ्रष्टाचार के खात्मे के वादे की तरह भुला दिया जाएगा तो आप अपने आज के मौन की खुशी मनाएंगे। लेकिन आज पूरा देश आपके मौन का मातम मना रहा है क्योंकि आपका दावा था कि हम वो हैं जो बाकी नहीं। जिस व्यवस्था ने भ्रष्टाचार रोकने के नाम पर लोगों के पैसे पर पहरा लगा कर नोटबंदी की थी आज उसके गढ़ में नोटदहन के आरोप पर गहरा मौन क्यों है? राष्ट्र के ज्वलंत मुद्दों पर वाचालों के मौन ने उनकी याद दिला दी जिन पर मौन रहने का इल्जाम था। अब समझ आ रहा है, वे मौन नहीं थे बस बोलते तभी थे जब जरूरत हो और बेवजह तो कभी नहीं बोलते थे।