आरक्षण पर सटीक तर्क है कि यह कोई गरीबी उन्मूलन योजना नहीं है। लेकिन, आरक्षण कोई रोजगार सृजन योजना भी नहीं है। आज मुख्यधारा का ऐसा कोई भी राजनीतिक दल नहीं है, जो आरक्षण के खिलाफ हो। मुखालफत की बात तो दूर, जो ‘राष्ट्रवादी’ संगठन अब तक इसके खिलाफ सबसे ज्यादा तर्क देता था वह भी अपने अस्तित्व के रक्षण में आरक्षण की शरण में है। उत्पादन के साधनों में दखल देने के बजाय मौजूदा राजनीतिक दल सरकारी नौकरियों में ही आरक्षण के फीसद से लेकर उपवर्गीकरण का सहारा लेकर जनता की रोजगार की जरूरतों को पूरा करना चाह रहे हैं। जिन राहुल गांधी को जनता ने विकल्प के रूप में देखा वह भी रोजगार समाचार के नाम पर जाति जनगणना की बात कह नमस्कार कर रहे हैं। जाति जनगणना और उत्पादन के साधनों के रिश्ते की गंभीरता इनमें भी नहीं दिख रही है। विपक्ष से लेकर सत्ता तक जब रोजगार के नाम पर कौशल का ही विकास करने का ढांचा दे रहे हैं तो आरक्षण व जाति जनगणना पर इनका सिर्फ अपना रक्षण करने की सूरत व नीयत पर बेबाक बोल।

सबके लिए रोजगार के नए विकल्प की जरूरत

यह बहुत दिनों पहले नहीं, अभी-अभी की बात है। एक बड़ा परिवार था और उसका एक मुखिया था। परिवार की कमाई के साधन कम होते जा रहे थे और परिवार बड़ा होता जा रहा था। पहले परिवार के हर सदस्य के हिसाब से खाने की थाली आ जाती थी। लेकिन, धीरे-धीरे बीस आदमी पर दस ही थाली आने लगी। परिवार के मुखिया को चाहिए था कि वह अपने दायरे से बाहर निकले और परिजनों के लिए रोजगार के नए विकल्प खोजे ताकि सबके लिए थाली आ सके। लेकिन, मुखिया अपने दायरे से बाहर निकलना नहीं चाहता था। अब वह हर रोज खाने के समय अलग-अलग तरह की गिनती करता। एक दिन उम्र के हिसाब से गिनती करता, दूसरे दिन लैंगिक। तीसरे दिन ऐसी ही कोई गिनती और अपनी पारिवारिक सत्ता के समीकरण के हिसाब से खाने की थाली का बंटवारा करता।

परिवार के मुखिया ने गिनती के सभी तरीके आजमा लिए, लेकिन ऐसा कोई काम नहीं किया जिससे खाने की थाली उतनी आ सके, जितनी खाने वाले। मुखिया की इस गिनती वाली रणनीति के कारण परिवार के लोग एक-दूसरे को अपना दुश्मन समझने लगे। छोटे बड़ों के तो मर्द औरतों को अपना विरोधी समझने लगे…।

चुनाव के मैदान में तय होता है नेताओं की रणनीति

इस कहानी के अंत पर नहीं जाकर संसद के बजट सत्र में चलते हैं। वहां ऐसी ही तस्वीरों, कहानियों से इक्कीसवीं सदी के इस मुश्किल समय की रणनीति तय हो रही है। संसद में नेताओं की रणनीति कैसी होगी यह चुनाव के मैदान में तय हो जाता है कि वोट किस भाषा में मांगा गया था।
आप में से कौन ओबीसी, दलित, आदिवासी हैं नाम बताइए…। जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी…। चुनाव के मैदान में राहुल गांधी जब इन बातों को बोल रहे थे तब लगा यह ‘इंडिया’ गठबंधन की राजनीतिक मजबूरी है। वर्ना आम जनता सिर्फ एक ही शब्द के लिए राहुल गांधी की मुरीद थी-रोजगार। रोजगार शब्द इतना भारी भरकम था कि उसके आगे सत्ता के सारे ‘म’ और ‘इंडिया’ गठबंधन के अन्य वादे नाकाम थे।

बजट सत्र में चर्चा के दौरान पूरा देश राहुल गांधी के हस्तक्षेप को सुनने के लिए बेचैन था। अफसोस, राहुल गांधी दिखाने के लिए एक तस्वीर लाए। बजट के हलवा रस्म की फोटो दिखाते दुए उन्होंने पूछा कि इसमें कितने ओबीसी…हैं। बजट में सरकार ने रोजगार को ‘इंटर्नवीरों’ के हवाले कर दिया तो जनता को उम्मीद थी राहुल के पास इसका तीखा हमला होगा। लेकिन, बजट परिचर्चा जैसे अहम मसले पर चुनावी भाषणों की तरह हमारी सरकार आएगी तो जाति जनगणना कराएगी का वादा कर उन्होंने अपना दखल खत्म कर दिया।

आज जब अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक रोजगार के मुद्दे पर ठिठका हुआ है तो भारत जैसे देश को कितना सतर्क होना चाहिए जो विश्व की सबसे बड़ी जनसंख्या का खिताब पाने के करीब है। जब भारत की सभी राजनीतिक शक्तियां रोजगार के मुद्दे पर मुंह फेर बस आरक्षण पर ही बहस को अपना रोजगार बना लेंगी तो आगे क्या होगा? आरक्षण के साथ राजनीतिक दलों ने अपने रोजगार को विस्तार दिया है जाति जनगणना में। सत्ता पक्ष के सांसद भले ही नेता प्रतिपक्ष की जाति पूछने की गलती कर बैठें, लेकिन वह भी जाति और आरक्षण की धुरी पर ही घुर्णन कर रहा है। जाति गणना को वह कभी भी कथित तुरुप के पत्ते की तरह इस्तेमाल कर सकता है।

बात यहां उनकी, जिन्हें अठारहवीं लोकसभा के चुनाव में सबसे ज्यादा फायदा मिला। राहुल गांधी ने खेती-किसानी से लेकर जनता के हर मुद्दे पर गंभीरता दिखानी शुरू कर दी तो जनता उन्हें लेकर गंभीर हो गई। लेकिन, वे भी ‘इंडिया’ के मैदान पर आते ही ओबीसी, जाति जनगणना की बातें करने लगे। हालांकि, वो जिस तरह किसी पत्रकार या किसी अन्य पर लक्षित हमला कर जाति पूछने लगे तो उसी समय दिखा कि इस मसले पर उनमें कोई गंभीरता नहीं है। पहचान की राजनीति में अपनी पहचान बनाने की कोशिश भर कर रहे हैं।

संसद में भी जब उन्होंने जाति जनगणना की बात उठाई तब भी गंभीरता नहीं दिखी। जो समूह अपनी पहचान के साथ ज्यादा दिख रहा है, मुखर है, उसकी मनोदशा का तात्कालिक फायदा उठाना भर ही दिखा। जाति जनगणना के साथ ही राहुल गांधी ने भाजपा सत्ता में आई तो संविधान बदल देगी का राग अलापा था। लेकिन, इस संविधान बदलने के डर को भी आरक्षण तक ही सीमित रखा। संविधान बदलने का पर्याय आरक्षण खत्म करना हो गया। सत्ता पक्ष और राहुल गांधी दोनों के आरोप-प्रत्यारोप का यही मर्म था कि संविधान का मकसद सिर्फ और सिर्फ आरक्षण लागू करवाना है।

भारत जैसे देश के संदर्भ में आरक्षण का संदर्भ सशक्तिकरण से जुड़ा हुआ है। आज पूंजीवाद और निजीकरण की चरम स्थिति में इसका दायरा सिकुड़ा हुआ है। कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार ने निजी कंपनियों में स्थानीय लोगों के लिए जो आरक्षण का प्रावधान किया उसका कंपनियों ने कड़ा विरोध किया। वहां की सरकार तुरंत प्रभाव से जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी का नारा भूल गई। निजी कंपनियों के खिलाफ न किसी अदालत में गई और न कहीं उनके मालिकों की तस्वीर दिखा कर जाति पूछी गई।

यानी आपके रोजगार-ए-आरक्षण के लिए बचता है सिर्फ सरकारी क्षेत्र तो, फिर इसके लिए संसद से लेकर अदालत तक में लड़ाई चल रही है। सरकारी क्षेत्र में मलाईदार तबके पर भी आप पैर पीछे खींचने के लिए तैयार नहीं हैं और तर्क दे रहे हैं कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। जी बिल्कुल नहीं है। तो, आप यह भी मान लीजिए कि आरक्षण रोजगार सृजन कार्यक्रम भी नहीं है।

जातिगत बराबरी और भेदभाव को तब तक खत्म या कम नहीं किया जा सकता है जब तक जो दलित और पिछड़ी कही जाने वाली जातियां हैं उनकी उत्पादन के साधनों में भागादारी न दिलाई जाए। आज सबसे बड़ा जो दलित और अत्यंत पिछड़ा तबका है वो खेतिहर मजदूरी से जुड़ा हुआ है। आप चाहते तो भूमि सुधार के जरिए इस रिश्ते को बदल सकते थे, कमजोर तबके का उत्पादन के साधन के साथ संबंध बदल सकते थे। लेकिन, इसके लिए सबसे पहले आपको अपनी ‘मलाई’ छोड़नी पड़ती इसलिए आपने संस्थागत दखल से परहेज किया। उत्पादन के साधनों पर तो आपने आधारभूत संबंध नहीं बदले, अब जातियों की गिनती के बाद हिस्सेदारी की बात कर रहे हैं।

आज विपक्ष और राहुल गांधी से एक गंभीर सवाल है कि जातिगत जनगणना का स्वरूप क्या है? जाति को संख्यावार जान लेने के बाद उसे किस तरह के विस्तृत दायरे में देखेंगे? आप जाति जनगणना को संपत्ति, खेती, व्यवसाय, उत्पादन संबंधों जैसे सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं पर रखने की समझदारी भरी बात कहते, विमर्श स्थापित करने की कोशिश करते तो समझा जा सकता था कि इस पर आपकी गंभीर नीयत है। पत्रकार से लेकर वित्त मंत्रालय के चंद अधिकारियों की जाति के उदाहरण देकर शोर करना यही बता रहा कि आपकी नजर उसी सरकारी नौकरी की डगर भर है।

पहचान की राजनीति मजबूत होने के साथ ही कांग्रेस की जमीन दरकती गई। राहुल गांधी भी छलांग लगा कर पहचान की राजनीति के बनाए कंगूरे पर ‘इंडिया’ के साथियों के साथ बैठ गए। लेकिन, उस कंगूरे पर जगह तंग है। क्षेत्रीय दल अपनी पहचानों का झंडा गाड़ चुके हैं। अभी भाजपा के ध्वस्त करने के बाद विपक्ष मलबे से साथ-साथ उठ कर पहचान बना रहा है। लेकिन, जल्द ही जब पहचानों की टकराहट होगी तो आरक्षण से लेकर जाति जनगणना के झंडाबरदार आपको सबसे पीछे कर देंगे। संसद में ‘यूपी वाले लड़कों’ की ‘ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे’ वाला राग जब टूटेगा तो उसकी वजह यही पहचान की राजनीति होगी, जिसमें आपकी बुनियाद पहचान को खारिज किया जाएगा। रोजगार के मुद्दों पर उम्मीदों से भरी जनता के साथ आप सिर्फ आरक्षण से अपने अस्तित्व का रक्षण कब तक कर सकते हैं, सवाल यही है?