राजनीति में जब तक कुर्सी सुरक्षित रहती है, तब तक बहुत तरह की छूट मिलती है। भले ही कोई राजनीतिक पार्टी प्रचंड बहुमत से अल्पमत में आ जाए, लेकिन पार्टी अध्यक्ष पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें अपनी कुर्सी पर बैठे रहने की छूट मिली हुई है। भले ही पर्चाफोड़ से पूरी शिक्षा व्यवस्था टूटी-फूटी दिखने लगे, लेकिन उसके प्रधान को भी कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि कुर्सी सलामत रहने की छूट है। भले ही रेलगाड़ी पटरियों से उतरती रहे, लेकिन मंत्री जी को कुर्सी पर बैठे रहने की छूट के साथ अन्य विभाग की कुर्सी भी पकड़ा दी जाती है। दायित्वों से दूर रहने की छूट ही छूट की ‘महासेल’ विदेश नीति में दिख रही है। अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमा, भूटान, बांग्लादेश सभी पड़ोसी देश भारत के दुश्मन होकर चीन के साथी हो रहे हैं। बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन के साथ भारत विरोध का झंडा लहरा रहा है। जेलेंस्की ने भारत की छवि ऐसे देश की बना दी जो बिना सोचे-समझे हर किसी को गले लगा रहा है। कुर्सी सलामत रहने पर जिम्मेदारों के लिए दायित्वों की ‘छूटनीति’ का विश्लेषण करता बेबाक बोल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दस सालों में वैश्विक पटल पर जिस तरह अपनी दृश्यता बढ़ाई उससे यकीन होने लगा था कि विदेश नीति पर कुछ सकारात्मक ही निकलना है। आजाद भारत के गुटनिरपेक्षता की बुनियाद पर खड़े होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दुनिया की कथित दो ध्रुवीय शक्तियों से लेकर उन शासकों को गले लगाया जो आज वैश्विक नक्शे पर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। एक राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर नरेंद्र मोदी ने विदेश नीति को बेहतर करने के लिए जितनी ऊर्जा और समय दिया आज उसका हासिल क्या है? प्रधानमंत्री की निजी ऊर्जा के बरक्स हम विदेश नीति की सामूहिक ऊर्जा पर बात करें तो हालात ऐसे हैं कि भारतीय अधिकारियों को बयान जारी करना पड़ता है कि बांग्लादेश में बाढ़ की वजह सीमाई इलाकों पर ज्यादा बारिश होना है न कि भारत का बांध खोल देना। हवा-हवाई आरोपों पर आधिकारिक बयान देने की परिस्थिति कैसे बनी?

युवाओं के लिए स्वतंत्रता दिवस के मायने अब बदल गए हैं

बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन युवाओं के आंदोलन का नतीजा है और आज वहां के अकादमिक संस्थानों से लेकर सड़क पर आंदोलन कर रहे युवा भारत के खिलाफ बयान दे रहे हैं। किसी भी देश के इतिहास में साढ़े सात दशक का समय लंबा होता है। आज भारत की युवा पीढ़ी के लिए स्वतंत्रता दिवस और आजादी की लड़ाई के वह मायने नहीं हैं जो चालीस और पचास के दशक में थे। आज टीवी पर पंद्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी को गांधी, नेहरू, पटेल या अंग्रेजों के अत्याचार पर फिल्में नहीं दिखाई जाती हैं। आज ‘बार्डर’ जैसी फिल्में दिखाई जाती हैं कि अपने पड़ोसियों से सीमा की सुरक्षा करने में हमारे सैनिकों को कैसा बलिदान देना पड़ता है।

बांग्लादेश की नई पीढ़ी के लिए भारत की छवि बंग-निर्माता की नहीं रही

‘अंग्रेजों के जमाने वाले’ पारंपरिक सात समुंदर पार वाले दुश्मन को छोड़ गली-मोहल्ले में इस बात की चर्चा हो रही है कि किस तरह से चीन हमारे सारे पड़ोसियों का मेहमान बन कर अब उन देशों की तरफ से भारत विरोधी मेजबानी कर रहा है। यही हालत अन्य देशों में भी है। बांग्लादेश की नई पीढ़ी के लिए भारत की छवि बंग-निर्माता की नहीं रही है। बांग्लादेश की नई पीढ़ी जब बंग-बंधु की मूर्ति का विध्वंस कर रही थी उसके मलबे में हमारी विदेश नीति से सवाल था कि पड़ोसी देशों में विपक्षी दलों को लेकर हमारा क्या रवैया रहा है? भारतीय कूटनीतिज्ञ क्या वहां भी मौजूदा सत्ता के 2047 तक होने की कल्पना कर रहे थे?

बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन से पहले की जनता यानी विपक्ष का आरोप यह था कि भारत की मदद से ही शेख हसीना चुनावों को एकतरफा करवा कर लोकतंत्र का दमन कर देती हैं। हम अतीतव्यामोह से ग्रसित होकर दुहाई देंगे कि बांग्लादेश का राष्ट्रगान रवींद्रनाथ ठाकुर का लिखा हुआ है तो क्रोधित युवा पीढ़ी नया गीत लिखने पर उतारू हो जाएगी। एक समय ऐसा भी आता है जब कोई कौम अपने वर्तमान से नाराज होकर अपने इतिहास को कसूरवार मानने लगती है।

तालिबान के कब्जे के समय चीन ने राजनयिक मिशन की सक्रियता जारी रखी थी

इसके पहले अफगानिस्तान में भी सत्ता पर तालिबान के कब्जे के बाद भारतीय दूतावास वीरान हो गया था तो चीन ने अपने राजनयिक मिशन की सक्रियता जारी रखी थी। पिछले साल अफगानिस्तान में अपना राजदूत भेज कर चीन ने वहां अपनी दखल के पूरे संकेत दे दिए। अफगानिस्तान के संदर्भ में भारत के सीमाई इलाके की सुरक्षा को देखते हुए दृश्य इसके उलट बनने चाहिए थे। लेकिन, भारतीय कूटनीतिज्ञों ने आसानी से चीन को तालिबान का कंधा पकड़ा दिया जिसके सहारे वह भारत के सीमाई इलाकों को परेशान कर सकता था।

श्रीलंका में तख्ता पलट के बाद वहां से महिंदा राजपक्षे तेजी से निकले या चीन की कूटनीति वहां घुसी दोनों की गति का तुलनात्मक अध्ययन मुश्किल है। श्रीलंका से जिस तरह भारत का सामाजिक व सांस्कृतिक नाता है, उसके बाद अगर वहां भारत विरोधी मानसिकता तैयार होती है तो वह ज्यादा खतरनाक है। श्रीलंका से सामाजिक-सांस्कृतिक तानेबाने की संवेदनशीलता का नतीजा हमारे पूर्व प्रधानमंत्री की शहादत है। राजीव गांधी जैसे नेता की शहादत भी श्रीलंका को चीन के चंगुल में फंसने से नहीं बचा सकी तो इसलिए कि नौकरशाही समझ नहीं पाई कि हम दोस्त बदल सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं।

मालदीव में भी भारतीय नीतिकार वहां की सत्ता को ही सब कुछ समझ बैठे थे। तभी भारत विरोध के राजमार्ग पर फर्राटे से दौड़ लगाते हुए विपक्ष के नेता मोहम्मद मोइज्जू वहां की सत्ता पर काबिज होते ही चीन के दोस्त हो गए। जिस तरह से अफगानिस्तान, मालदीव, बांग्लादेश में भारतीय विदेश सेवा की नौकरशाही विपक्ष को नहीं समझ पाई उसी तरह उसे यूक्रेन को समझने में भूल हुई। अभी जेलेंस्की की अगुआई में यूक्रेन का मिजाज पूरी तरह विपक्ष का है। विपक्ष के पास सत्ता व संसाधन कम होते हैं लेकिन लड़ने का हौसला ज्यादा होता है। विपक्ष के पास खोने के लिए कुछ नहीं रहता और संघर्षरत होकर पाने के लिए अंतहीन विकल्प। रूस जाने के बाद प्रधानमंत्री यूक्रेन गए और पुतिन के बाद जेलेंस्की को भी गले लगाया। लेकिन, प्रधानमंत्री के लौटते ही जेलेंस्की ने पीड़ित विपक्ष की तरह जिस तरह से भारत विरोधी बयान देने शुरू किए उससे बड़ी कूटनीतिक विडंबना कुछ और नहीं हो सकती।

जेलेंस्की ने भारत की छवि बिना सोचे-समझे हर किसी को गले लगा देने वाली बना दी है तो अब इसकी सख्त जरूरत है कि भारतीय विदेश नीति में इसके जिम्मेदारों पर बात कर सरकार उन्हें अपने गले से अलग करे। अफगानिस्तान, श्रीलंका से लेकर मालदीव तक के मसले पर सीधे-सीधे दिखा कि हमारी विदेश नीति किसी गलत दिशा पर चल रही है। भारत से सांस्कृतिक रिश्ते वाले नेपाल का सबसे बड़ा संबंधी आज चीन है। नेपाल के बाजार से लेकर राजनीति पर चीन का दबदबा है।

खुशी का सूचकांक सबसे ऊंचा रखने वाला भूटान भी आज भारत को लेकर खुश नहीं है। वहां भी अब भारत को चीन के नजरिए से देखा जा रहा है। मणिपुर के जलने के बाद जिस तरह म्यांमा की सीमा भारतीय कूटनीति से वीरान है वहां भी चीन के कदमों की कूच का शोर मच रहा है।
भारत की विदेश नीति क्या यह नहीं देख रही है कि हम ऐसे वृत्त में परिवर्तित हो रहे हैं जिसकी परिधि पर हमारे पड़ोसियों की शक्ल दुश्मन में बदलती जा रही है? गलवान पर यह गलफत बरकरार है कि विपक्ष के आरोप झूठे हैं या केंद्र सरकार की सफाई झूठी है? जिस कूटनीतिक उग्रता से चीन भारत की सीमा पर पड़ोसी देशों को दुश्मन के रूप में खड़ा कर रहा है, उसकी काट क्या है?

राजनीतिक नेतृत्व सिर्फ दृष्टि दे सकता है। उसे जमीन पर उतारना मंत्री व नौकरशाही का काम है। जिन दो विभागों रेल व विदेश पर सबसे ज्यादा सवाल उठ रहे हैं उनके नेतृत्वकर्ताओं की लगातार शक्ति बढ़ा कर उन्हें पुरस्कृत ही किया जा रहा है। देश में चुनाव के लिए ‘महाभारत’ को राजनीतिक मोक्षद्वार बनाया जा सकता है। विदेश मंत्री मीडिया के सामने महाभारत पर बोल कर काम चला लेते हैं। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री रूस से लेकर यूक्रेन में जाकर बोलते हैं कि यह युद्ध का समय नहीं है। जेएनयू के अकादमिक के रूप में सही है कि आप किताब लिखें और विद्वान के रूप में अपना प्रचार पा कर संतोष करें। लेकिन, विदेश नीति के अगुआ के रूप में यही देखा जाएगा कि भारतीय सीमाओं पर पड़ोसियों को दुश्मन होने से बचाने के लिए आपका किताबी ज्ञान कितना काम आया?

देखना यह है कि पड़ोस की पूरी दीवार दरकने के बाद आपके पास उसकी मरम्मत की कोई दूरदृष्टि है या नहीं? अपनी पोथी से निकल कर ‘अटल ’ वाक्य याद करें-हम अपना पड़ोसी नहीं बदल सकते हैं। सरकार से भी सवाल है कि पड़ोसियों को दोस्त नहीं बना पा रहे कूटनीतज्ञों को बख्शने की छूटनीति कब तक जारी रहेगी?