उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री नंबर एक के बीच लोकसभा चुनाव में हुई हार पर कथित तकरार की बात चल रही है। भाजपा को लगा था कि एक मुख्यमंत्री के इंजन के साथ अन्य जातियों के दो उपमुख्यमंत्रियों का डिब्बा जोड़ देंगे तो जनता पकौड़े तलने को ही रोजगार मान बैठेगी। सेना में ‘अग्निवीर’ योजना ने जनता को सावधान की मुद्रा में ला दिया। सेना जैसे संवेदनशील क्षेत्र में स्थायी भर्तियों में कटौती कर सरकार ने आगे नौकरियों को लेकर अपने रवैये पर मुहर लगाई तो जनता ने विरोध में विपक्ष का बटन दबाया। लेकिन, अभी भी सत्ता को जनता का संदेश समझ नहीं आया। उसके नेता सबका साथ छोड़ सिर्फ अपने साथ वालों के विकास की बात करने लगे हैं। सबका विकास छोड़ने की बात कहना मजबूरी है क्योंकि रोजगार तो आप पकौड़े तलने को बता चुके थे और इस दिशा में पंक्चर बनाने तक आगे बढ़े हैं। जब जनता बेरोजगारी से परेशान है तो वह मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्रियों का रोजगार क्यों झेले? बजट सत्र से पहले सवाल पूछता बेबाक बोल कि ‘लाल बस्ते’ से नौकरियां कितनी निकलेंगी?
हम आज पीएम कालेज आफ एक्सीलेंस खोल रहे हैं। मैं सभी से एक चीज दिमाग में रखने की अपील करता हूं कि इन कालेज की डिग्रियों से कुछ नहीं होने वाला है। इसके बजाय कम से कम पैसा कमाने के लिए बाइक के पंक्चर ठीक करने की दुकान खोल लेनी चाहिए।’
मध्य प्रदेश के गुना विधानसभा क्षेत्र में पीएम कालेज आफ एक्सीलेंस के उद्घाटन में भाजपा विधायक पन्नालाल शाक्य ने ये बातें उसी अंदाज में कहीं जैसे आज आम घरों के बेरोजगार युवा बोल रहे हैं कि डिग्री से क्या होता है? नौकरियां कहां हैं? भाजपा अभी पकौड़े के सदमे से बाहर नहीं आई थी कि ‘प’ से पंक्चर हो गया।
प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा कि केंद्र सरकार ने पिछले तीन से चार साल में आठ करोड़ नौकरियां प्रदान की हैं। विपक्ष ने कहा कि अगर इतनी नौकरियां दी गई हैं तो उसका असर क्यों नहीं दिख रहा? यह तो अलग बहस का विषय है कि अब सरकार या आरबीआइ ‘नौकरी’ किसे मान रही है। जो नौकरियां दी गई हैं उनका स्वरूप कैसा है?
साक्षात्कार के दौरान हुई भगदड़ जैसी स्थिति
पिछले दिनों गुजरात के भरूच जिले में पांच पदों के लिए हुए साक्षात्कार में सैकड़ों लोगों के पहुंचने पर इसे भगदड़ जैसी स्थिति बताते हुए लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने कटाक्ष करते हुए कहा था कि देश में बेरोजगारी महामारी की तरह फैल रही है और भाजपा शासित राज्य इसके केंद्र बिंदु हैं। जिस होटल में नौकरियों के लिए यह साक्षात्कार होने वाला था वहां के मुख्य द्वार पर भीड़ की स्थिति का वीडियो बता रहा था कि बेरोजगारी किस चरम पर है।
रोजगार का मुद्दा इतना अहम हो चुका है कि इसे सिर्फ पक्ष और विपक्ष के वार-पलटवार के रूप में नहीं देखा जा सकता है। राजनीतिक विश्लेषक दावा कर रहे हैं कि रोजगार ही वह मुद्दा है जिस कारण पिछले दस सालों में कोई विकल्प नहीं का दावा कर रही भाजपा के सामने जनता ने ‘हैलो माइक टेस्टिंग’ के तहत संभावित विकल्प का ढांचा खड़ा कर दिया। अठारहवीं लोकसभा का पहला सत्र विपक्ष ने ‘जय संविधान’ के नाम रखा तो बजट सत्र शुरू होने के पहले सत्ता ने ‘संविधान हत्या दिवस’ का दांव चल दिया।
बजट सत्र शुरू होने से पहले सत्ता पक्ष से उम्मीद कर सकते हैं कि वह रोजगार के मुद्दे की गंभीरता को समझ गई होगी। तो क्या बजट में रोजगार का सवाल ही मुख्य केंद्र होगा? किसी भी देश के बजट का सीधा संबंध वहां के लोगों के रोजगार से होता है। सरकार का बजट जनता की जेब से तय होता है। केंद्रीय बजट का एक वर्गीय संदर्भ भी होता है। एक वर्ग पर ज्यादा कर लगा कर दूसरे वर्ग के लिए कल्याणकारी योजनाएं लागू की जाती हैं। यानी मध्य-वर्ग और उससे ऊंचे वर्ग के दिए आयकर से कमजोर आर्थिक तबके के लिए योजनाएं बनती हैं।
पिछले लंबे समय से चले रोजगार के संकट ने इस वर्गीय ढांचे को भी ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। एक समय था जब सुरक्षित नौकरियों के कारण मध्य-वर्ग एक सम्मानित तबका था। मध्य-वर्ग की ध्वनि से एक ऐसे समूह की गूंज आती थी जो रोटी, कपड़ा और मकान की जरूरतें पूरी कर सकता था। पारिवारिक खुशियों का प्रतीक मध्य-वर्ग ही होता था। सरकारें इसी मध्य-वर्ग को खुश करने की कोशिश में रहती थीं।
पिछले कुछ बजटों का विश्लेषण किया जाए तो सरकार के केंद्र में अब मध्य-वर्ग नहीं है। आर्थिक समीकरण बदलने से यह वर्ग किसी आर्थिक या अन्य हादसे के बाद निम्न वर्ग में समा सकता है। सुरक्षित नौकरियों में लगातार आ रही कमी से यह तबका राजनीतिक शक्ति के तौर पर भी हाशिये की ओर जा रहा है।
एक वक्त था जब आम बजट पेश होते वक्त मुख्य मीडिया के विश्लेषण केंद्र में मध्य-वर्ग होता था कि उसने क्या खोया-क्या पाया। अब जबकि नौकरियों के संदर्भ में उसके पास लगातार खोना ही है तो बजट में उसके पाने की परवाह क्यों की जाए?
अग्निवीर योजना का असर मध्य-वर्ग पर
आजादी के बाद से सेना की नौकरी वह संबल था, जिसने कृषि के संकट झेल रहे कृषक वर्ग की संतानों को मध्य-वर्ग में शामिल होने का मौका दिया। जय जवान, जय किसान का नारा अन्योन्याश्रय संबंध रखता था। किसानी की खेती पर ही देश की सीमा पर जांबाज नौजवानों की फसल लहलहाती थी। बेटा सीमा की रक्षा के लिए गया तो खेत में खड़े मां-बाप और अन्य परिजनों की देखभाल देश का जिम्मा था। अपने साथ सरकार और देश का संबल देख कर ही सीमा पर शहीद हुए जवान के परिजनों की आंखों में गम से ज्यादा गर्व की भावना आती थी।
‘अग्निवीर’ योजना के जरिए निम्न आय वर्ग के किसानों की संतानों का मध्य-वर्ग में आने का सपना भी टूट गया। इसका असर अन्य क्षेत्र के युवाओं पर भी पड़ा। समाज में सीधा संदेश गया कि जब सेना जैसे संवेदनशील क्षेत्र में स्थायी नौकरी खत्म कर दी गई तो अन्य क्षेत्रों का क्या हाल होगा? जब सेना के जवानों के लिए चार साल की नौकरी पर्याप्त मानी जा रही है तो आम नागरिकों के लिए रोज कमाओ और खाओ वाली हालत होगी। यानी रोज कुआं खोदो और पानी पियो। ‘अग्निवीर’ के जरिए सरकार ने जनता के सामने उस ‘अग्निपथ’ को रख दिया जहां नौकरियों में कटौती के लिए कोई भी राह चुनी जा सकती है।
चुनाव निपट गए और संविधान जैसे स्पष्ट मार्गदर्शक को लेकर पक्ष और विपक्ष हल्ला बोल हैं। संविधान एक पवित्र ग्रंथ तभी रह सकता है जब समाज में ऐसा माहौल बने कि एक बड़ा तबका यह सोच कर आशंकित न हो कि उसके साथ कल क्या होगा। बजट सत्र को लेकर क्या महंगा, क्या सस्ता के बजाय जनता की नजर इस बात पर होगी कि नौकरी कितनी टिकाऊ रहने वाली है? पहला सवाल सत्ता पक्ष से कि कार्यकाल के पहले बजट में रोजगार को लेकर क्या है? स्व-रोजगार एक अच्छी बात है, लेकिन जब पूरे समाज को स्व पर छोड़ दीजिएगा तो वह सरकार का क्या करेगा?
दिल्ली-एनसीआर के कई इलाकों में कोरोना के दौरान नौकरियां जाने के बाद कई लोगों ने खान-पान का रोजगार शुरू किया। कोई बेकरी उत्पाद बना रहा था तो कोई टिफिन। लेकिन, जल्द ही एक ही इलाके में इन उद्यमियों की संख्या इतनी ज्यादा हो गई कि मुनाफे की गुंजाइश कम होती गई। पंक्चर बनाने की कला सीखना बेहतर रोजगार है। लेकिन, हर एक किलोमीटर पर एक पंक्चर बनाने वाला युवा अपनी दुकान खोल कर बैठ जाए तो क्या होगा? हिंदी फिल्मों का वह दृश्य तो याद होगा कि पंक्चर की दुकान चलाने वाले प्रतियोगिता में क्या करने लगे? सड़कों पर कील फैला देते थे ताकि लोगों की गाड़ी पंक्चर हो जाए और वे दुकान पर आएं। इससे रोजगार और अर्थव्यस्था का पंक्चर ठीक होने वाला तो नहीं है।
कागज पर कौशल विकास के कार्यक्रम शुरू करना अलग बात है और दुरुस्त मशीनरियों के साथ उसे जमीन पर उतारना और बात है। संसद के बजट सत्र में जनता इस पर नजर जरूर रखेगी कि रोजगार देने के कौशल में आप कितना विकास कर पाएंगे। सिर्फ जातिगत समीकरण को साध कर आप लंबे समय तक नहीं टिक सकते। इस चक्कर में आपने सिर्फ मुख्यमंत्रियों के रोजगार का विस्तार किया है कि एक मुख्यमंत्री के साथ दो से तीन उपमुख्यमंत्री बना दे रहे हैं। अपनी जाति के उपमुख्यमंत्रियों को देख जनता रोजगार का मुख्य सवाल भूल जाएगी इस गलतफहमी में न रह जाइएगा। बजट सत्र के पहले सरकार सारे जमीनी आंकड़ों को देख-परख ले। सब यही संदेश देते हैं कि अगर रोजगार की राह पर सकारात्मक नहीं चले तो यह एक राजनीतिक विस्फोट लाएगा।
फिलहाल भाजपा और कांग्रेस दोनों गलतफहमी की शिकार लग रही हैं। लोकसभा चुनाव के बाद अभी भी भाजपा को लग रहा है कि कुछ नहीं बदला और कांग्रेस को लगता है कि सब कुछ बदल गया। अपने दिए नतीजों के आधार पर जनता यही देखेगी कि रोजगार के रास्ते पर क्या बदला?