यकुम जून है
चार का इंतजार है
फिर सबसे पूछेंगे
क्या हाल है?
(अमीर कजलबाश से माफी के साथ)
आधुनिक मानव के इतिहास में लोकतंत्र की शुरूआत तब हुई जब इंसान ने नागरिक बनकर अपनी सरकार चुनने के लिए मतदान किया। लोकसभा चुनाव 2024 के लिए अंतिम चरण के मतदान के बाद चार जून का इंतजार होगा। लेकिन, चार जून के बाद सरकार से सवाल करने का हक उनके पास ही होगा जिन्होंने मतदान किया। आप मैदान के मतदाता होते हुए पहाड़ को दरकाने वाली भीड़ का हिस्सा बन कर मतदान के दिन पहाड़ से सोशल मीडिया पोस्ट लिखेंगे कि सरकार को पहाड़ की सुध नहीं, यहां दिल्ली जैसी गर्मी है तो फिर आप इस तरह की किसी चिंता जताने और सरकार से सवाल करने का हक खो चुके हैं। इस चुनाव में सबसे ज्यादा बातें संविधान की हुई। आज भी देश का एक बड़ा तबका सरकारी मशीनरियों पर भरोसा करते हुए कड़ी धूप में वोट करने के लिए खड़ा हुआ। धूप या अन्य दिक्कतों को दरकिनार कर वोट देनेवाली जनता की कतार देख कर संविधान तसल्ली कर सकता है कि उसे कोई खतरा नहीं है। सत्ता पक्ष के दावे के बीच हम भी करें इंतजार-ए-चार या चार सौ का इंतजार।
दो महीने तक चली चुनाव प्रक्रिया आज पूरी हो जाएगी
लगभग दो महीने तक चली चुनाव प्रक्रिया आज पूरी हो जाएगी। सात चरणों के पूरे होने के बाद आज से नतीजों का इंतजार होगा। पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी-अपनी सरकारें बनाने का दावा पहले से ही कर चुके हैं, कहीं पर तो मंत्रिमंडल गठन की बातें भी होने लगी हैं। सात चरणों में चली मतदान प्रक्रिया के बाद अब हर किसी को इंतजार है तारीख-ए-चार का, फिर चाहे जिन्होंने वोट दिया या नहीं दिया। आज हमारी दखलंदाजी सिर्फ इतनी सी है कि इस चार जून का इंतजार और उसके बाद सवाल पूछने के हकदार कौन हैं?
इंतजार-ए-चार के बाबत बात करेंगे उन लोगों की जिन्होंने अपने घर से निकल कर वोट दिया। मतदान के दिन किनकी बात होती है, किनकी तस्वीरें छपती हैं? वोट देने जाती नब्बे साल की बुजुर्ग, शारीरिक चुनौतियां झेल रहे व्यक्ति का अंगुली पर अपना नीला निशान दिखाना। जिन गांवों, कस्बों की मुख्य सड़कों, चौपालों पर हमेशा पुरुष ही पुरुष दिखते हैं, वहां के मतदान केंद्रों पर महिला मतदाताओं की लंबी कतार।
कड़ी धूप में रैली में जाने वाले लोग ही असली जनता हैं
वोट देने के पहले इनमें से बड़ी जनसंख्या अपने नेताओं के भाषणों को भी सुनने गई थी। कड़ी धूप में घंटों नेताओं का इंतजार किया है। किसी खास रैली में आए वो लोग होते हैं, जिनका पक्ष पहले से तय होता है। लेकिन, दलों की रैली में आना और भाषण सुनना भी लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा होता है। वोट नहीं देने वाले और किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधि को टेलीविजन और सोशल मीडिया की खिड़की से झांक कर देखने वाले लोग आम तौर पर इन्हें ‘भाड़े का’ कह कर खारिज कर देते हैं, रैलियों में जाने वाली जनता को ‘निम्नवर्गीय’ कह कर नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं। लेकिन, लोकतंत्र में यही वह जनता है जिसने राजनीति को जिंदा रखा है। यही वह जनता है जिसके कारण ‘चुनाव का मैदान’ शब्द आज भी अस्तित्व रखता है।
उत्तर-पूर्वी दिल्ली की जनसभा में ‘इंडिया’ गठबंधन के उम्मीदवार कन्हैया कुमार उन लोगों को संबोधित कर रहे थे जिनके लिए शिक्षा और स्वास्थ्य का मतलब ही सरकारी है। अगर शिक्षा और स्वास्थ्य सरकार के स्तर पर नहीं मिलेंगे तो यह वर्ग इन्हें हासिल ही नहीं कर सकता है। कन्हैया कुमार ने अपने भाषण में कहा, ‘मैं जेएनयू में पढ़ा हूं, मैं आप लोगों के टैक्स के पैसे से पढ़ा हूं…मैं डाक्टर कन्हैया कुमार…।’ यह उदाहरण एक खास उम्मीदवार के लिए नहीं उस जनता के लिए है जिसे आम तौर पर मध्य-वर्ग नहीं माना जाता है। मध्य वर्ग नहीं तो करदाता भी नहीं। एक रेहड़ी चलाने वाला ईंधन से लेकर अपनी अन्य जरूरतों के सामान के साथ जो कई स्तर के कर देता है मीडिया का विश्लेषण करदाता के तौर पर उसे भुला देता है।
इसी चुनावी रैली में एक रेहड़ी पटरी वाला इस बात पर गर्व कर सकता है कि जेएनयू जैसा शिक्षा संस्थान, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान (एम्स) जैसा स्वास्थ्य संस्थान उसके कर के पैसे से चलते हैं। एक अकादमिक विद्वान और डाक्टर को तैयार करने में उसकी भी भूमिका है।
जनता को तो धूप में खड़े रहने की आदत है
इस चुनाव में कोई दल मुफ्त पांच किलो अनाज दे रहा था और दूसरा दस किलो देने का वादा कर रहा था, वोट करती जनता यह जान-समझ कर जाती है कि उसे मुफ्त कुछ नहीं मिल रहा है। देश के सारे संसाधन जनता के हैं, और जनता तय करेगी कि उन संसाधनों को पांच सालों तक कौन और कैसे खर्च करेगा। संसदीय लोकतंत्र में चुनावी प्रक्रिया की सबसे अच्छी बात है कि पहले जमाने के बूथ लूट वाले दृश्य हों या ईवीएम पर उठे सवाल, इन सबको दरकिनार कर जनता का एक बड़ा वर्ग सक्रिय होता है जिसे जनता कह कर राजनीतिक दल जिम्मेदाराना व्यवहार करने की कोशिश करते हैं। इस जनता को तो धूप में खड़े रहने की आदत है तो इसे रिझाने और अपने पाले में लाने के लिए वे भी कड़ी धूप में पसीना बहाते हैं।
आज की पहली तारीख में चार का इंतजार सबको है। लेकिन, इस नतीजे के बाद राजनीति और उसके मूल्यों को लेकर शिकायत करने का अधिकार सिर्फ उन्हें होगा जिन्होंने इस राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी की। कार्ल मार्क्स इतिहास की शुरुआत उस समय से मानते हैं जब मनुष्य ने उत्पादन शुरू किया था।
इसी तरह से आधुनिक मानव इतिहास में लोकतंत्र की शुरुआत तब हुई जब मनुष्य ने नागरिक बनकर मतदान शुरू किया। लोकतांत्रिक राजनीति ने नागरिकों को संविधान के साथ नैतिकता की समान संहिता भी दी है। सांवैधानिक राजनीतिक संरचना नागरिकों को नैतिक भी बनाती है। आप निजी तौर पर कितनी भी अनैतिक बातें बोल लें, लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में आपको सार्वजनिक तौर पर सांवैधानिक बात ही बोलनी होगी। लेकिन, लोकतंत्र का यह मूल्य तभी बचेगा जब आप संविधान और उसके दायरे में खड़े किए गए राजनीतिक ढांचे पर भरोसा करेंगे।
मतदान के दिन पहाड़ पर रहने वालों को उम्मीद का हक नहीं
संविधान पर भरोसा कर राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बन कर मतदान करने वाले लोग ही इंतजार-ए-चार के बाद सत्ता और संविधान के संबंध पर बोलने के हकदार होंगे। बहुत लोग किसी मजबूरी के कारण मतदान नहीं कर पाते हैं, यह लेख उनका सम्मान करता है। लेकिन, आप चुनाव में मतदान न कर मतदान वाली छुट्टी के साथ चार दिन के लिए निकल कर, चार धाम में पहाड़ों को हिलाने वाली जानलेवा भीड़ को बढ़ा चुके हैं, मतदान के दिन अपने मतदान केंद्र न जाकर किसी रमणीय पहाड़ी स्थल से सोशल मीडिया पर पोस्ट कर रहे हैं कि पहाड़ों में पहले वाली बात नहीं रही, यहां दिल्ली जैसी गर्मी है, सरकार कुछ करती क्यों नहीं? मैदान के वोटर होकर मतदान के दिन पहाड़ पर रहने वाले लोगों को वैसे भी सरकार से कुछ उम्मीद करने का हक तो नहीं बनता है।
चार जून के इंतजार का लुत्फ उन लोगों के लिए नहीं है जो लोकतंत्र की चिंता छोड़ कर पहाड़ बचाने की चिंता कर रहे हैं। चार जून का इंतजार उन लोगों के लिए है जिन्होंने तपती धूप में खड़े होकर, बर्फीले पहाड़ को लांघ कर, नदी को पार कर संविधान और राजनीतिक ढांचे पर भरोसा किया। आश्चर्यजनक तरीके से 2024 के लोकसभा चुनाव का सबसे अहम मुद्दा बन गया संविधान। जो जनता अपनी मुश्किलों के बीच भी वोट करने के लिए निकली, मशीन पर उठे विवाद के बाद अदालत पर भरोसा किया, उससे बड़ा संविधान को मानने वाला कोई नहीं है।
इस देश की जनता का संविधान के प्रति विश्वास देखना है तो जरा देश भर की अदालत परिसर के बाहर घूम आइए। जिला न्यायालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक आपको कई ऐसे लोग मिलेंगे जो अपने मामले में इंसाफ मिलने के लिए सालों से इंतजार कर रहे हैं। तारीख पर तारीख के बाद दूसरी तारीख को कबूल करते और संविधान के दिए न्याय को पाने के लिए पहुंचते हैं। यहां आपको वो लोग भी मिल जाएंगे जो सरकार से पांच किलो अनाज लेने वाले खंड में हैं और वो भी जो इस खंड को लाभार्थी कहते हैं। अदालतों के बाहर सालों पुरानी अपनी फाइल लेकर नई तारीख के साथ चेहरे पर नई मुस्कान के साथ देख लें तो फिर इन्हें लाभार्थी नहीं कहेंगे। लाभार्थी तो वह सत्ता और संविधान है जिन पर इनका भरोसा बाकी है।
‘इंतजार-ए-चार’ में बस उनके जज्बे को सलाम, जिनकी वजह से संदेश गया कि देश में राजनीति, लोकतंत्र, संविधान जिंदा है। हर लोकतंत्र की जनता अच्छे दिन के लिए ही वोट देने के लिए निकलती है। जनता अपने अच्छे दिन के लिए जिसे भी चुनेगी, उनके साथ यह लोकतांत्रिक राजनीतिक यात्रा आगे बढ़ेगी इसी उम्मीद के साथ हम सब करें इंतजार-ए-चार।