सरकार बनाम स्त्री के बराबरी के अधिकार की इस बहस के साथ एक छोटी सी बातचीत। कभी अपने बाल-बच्चों में मसरूफ रहने के कारण भगवान के आगे हाथ जोड़ने के लायक समय भी नहीं निकाल पाने वाली एक महिला आज बुजुर्ग हैं और उनके पास पर्याप्त समय है। अब वो भगवान के लिए फूल चुनने, पड़ोसियों के लिए पूजा-पाठ की सामग्री का इंतजाम करने में व्यस्त रहती हैं। एक दिन उनकी बेटी ने उनसे सख्ती से कहा कि भगवान-वगवान कुछ नहीं होता, तुम क्यों अपना समय बर्बाद करती हो, छोड़ो यह सब। उन्होंने ध्यान से अपनी बेटी की बात सुनी और कहा कि बचपन में जब तुम डॉक्टर सेट से अपनी गुड़िया की जांच करती थी तो क्या मैंने कभी यह कहा कि इस गुड़िया में जान नहीं है तो यह डॉक्टर सेट ही क्यों खरीदना था? जब तुम गुड़िया की शादी कर उसे दुलहन के कपड़े पहना खुश होती थी तो कभी कहा कि जो पैदा ही नहीं हुई उसकी शादी कैसी? बचपन में तुम्हारी खिलौनों पर आस्था थी और कोई भी अभिभावक उस आस्था को नहीं तोड़ता। भगवान हैं या नहीं, इस बहस का अंत तो नहीं लेकिन तुम इस बुढ़ापे में मुझसे इस आस्था का अधिकार क्यों छीन रही?
कहते हैं हिंदुस्तान में तैंतीस करोड़ देवी-देवता हैं। यह मान्यता तब से चली आ रही है जब शायद हिंदुस्तान की जनसंख्या ही तैंतीस करोड़ हो। यानी हर का अपनी तरह का देवता। हिंदू धर्म में देवी-देवता का कोई एक सर्वमान्य आकार-प्रकार नहीं। कहीं देवी बलि स्वीकार करती हैं तो कहीं उनका विस्तार वैष्णो तक है, सब कुछ निरामिष। छोटे-छोटे समुदायों ने अपनी आस्था के अनुसार देवताओं को रचा, अपने अनुसार उन्हें आकार-प्रकार और रंग-रूप दिया। महाश्वेता देवी के साहित्य का बड़ा हिस्सा आदिवासियों की जीवन-पद्धति और संस्कृति का इतिहास लिखता है और इस बात के तर्क देता है कि क्यों उनकी जीवनपद्धति को मुख्यधारा के साम्राज्यवाद के चपेटे में नहीं लेना चाहिए।
‘बार्बी’ बच्चों (हमारे समाज में बच्चियों) के खिलौनों के ब्रांड का ऐसा उत्पाद है जो हमेशा वैचारिक बहस के लपेटे में आया है। इसका निर्माण अमेरिका जैसे विकसित देश में हुआ तो इसका रूप-रंग और पहनावा उसके जैसा था। पहचान की राजनीति के संग्राम में इस्लामी देशों ने बार्बी जैसी गुड़िया को बुर्का पहना दिया तो किसी देश में उसके गोरे रंग पर सवाल उठाकर उसे श्यामल भी किया गया। वैसे ब्रांड को बाजार में सिर्फ मुनाफे से मतलब है। उपभोक्ता उसे बुर्का पहनाने की मांग करे या उसकी प्लास्टिक की चमड़ी का रंग कैसा भी करे। बाजार सबको खुश कर देता है। जैसे उपभोक्ता वैसा माल। खाने के सामान के पैकेट पर शाकाहार और मांसाहार का निशान बना दिया जाता है। दोनों तरह के आहार वालों के लिए विकल्प है। डिब्बाबंद मांस खाने वालों को स्वाद से तो पता चल नहीं सकता कि वह झटके का है या हलाल का, लेकिन धार्मिक आस्था की संवेदनशीलता को देखते हुए अब कई जगहों पर इसकी भी जानकारी देनी शुरू कर दी गई है।
परंपराओं से लेकर लिखित और स्वीकृत संविधान, तक भारत जैसे प्राचीन देश की यात्रा बहुत लंबी है। जब एक राष्टÑीय राज्य की कल्पना नहीं थी तो वह धार्मिक आंदोलन ही था जो पूरे भारत को एक सूत्र से जोड़ रहा था। सती से लेकर डायन तक की कुप्रथा को इस समाज ने कानून और आपसी समझ के जरिए नकारा। कोई स्त्री इसलिए नहीं जलाई जा सकती कि उसके पति की मौत हो गई। तीन तलाक को नाकबूल कर उसे अपराध घोषित करने का पूरे देश ने समर्थन किया। सती कुप्रथा हो या तीन तलाक यह एक नागरिक के रूप में महिलाओं के जीने के अधिकार को कुचलती थी। राज्य से लेकर समाज ने इसे साझे तौर पर नकारा। इसके साथ ही अभी महिला अधिकारों की लंबी लड़ाई बाकी है।
इन सबके बीच सबरीमलय में भगवान अय्यप्पा के भक्त कहते हैं कि हमारी भक्ति और आस्था का सम्मान करो और युवा महिलाओं को इस मंदिर से दूर रखो, हम भी इस देश के नागरिक हैं और हमें अपनी आस्था के अनुसार चलने का पूरा अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने महिलाओं को अधिकार दिया और उसके राजनीतिक फायदा उठाने के परिणाम के रूप में सामाजिक और राजनीतिक टकराव भी सामने आया। अब पुनर्विचार याचिका भी दाखिल है। उच्चतम न्यायालय तो सर्वोच्च है और उसके फैसले का पूरा सम्मान है। लेकिन क्या आस्था के मामलों में कोई मूर्त न्याय जैसी चीज होती है? अयोध्या में रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद देश में चलनेवाला सबसे पुराना कानूनी मामला है और अदालत ने इस पर अपना फैसला सुना दिया। क्या हिंदुस्तान का हर तबका इस फैसले को एक सुर में न्याय मानता है? तर्कों और तथ्यों के आधार पर जब फैसला पूरी तरह से हिंदू पक्षकारों के पक्ष में था तो मस्जिद के लिए जमीन क्यों दी गई जिसकी मांग ही नहीं थी? अदालत भी जानती है कि ऐसे मामलों में इंसाफ जीतने वाले तक ही सीमित होता है और हारा हुआ पक्ष भी अपना ही है। इस फैसले का मकसद राजनीतिक और सामाजिक समरसता थी, क्योंकि इतने लंबे चले मामले में हमने अपने देश का बहुत अमन-चैन खोया है।
हिमाचल प्रदेश के शाह तलाई में बाबा बालकनाथ का मंदिर है, जिसमें परंपरागत रूप से महिलाएं नहीं जाती हैं। उसी मंदिर की प्रतिकृति चंडीगढ़ में बनाई गई तो उस आधुनिक ढांचे में भी महिलाओं ने जाने की जरूरत नहीं समझी क्योंकि यह एक खास समुदाय की आस्था का सवाल है। बाबा बालकनाथ ही नहीं पूरे देश में बहुत से ऐसे मंदिर हैं जिसमें खास उम्र के बाद की महिलाएं प्रवेश नहीं करतीं। बहुत से ऐसे धार्मिक स्थल और कर्म-कांड ऐसे हैं जो सिर्फ महिलाओं तक महदूद हैं। दक्षिण भारत के मंदिरों में महिला हो या पुरुष खास परिधानों में ही प्रवेश कर सकते हैं। कई गिरजाघरों में कठोर नियम है कि बिना बाजू के परिधान पहन कर प्रवेश नहीं कर सकते हैं। यह पश्चिमी मान्यता है कि घुटने के नीचे खुला शरीर चलेगा, लेकिन खुली बाजू नहीं चलेगी। खास विश्वास और परंपराओं के तहत बने मंदिर-मस्जिद और चर्च जैसे ढांचों में आधुनिक विमर्श के आंदोलन का क्या काम? इन्हें एक धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में ही क्यों न रहने दिया जाए।
संविधान ने स्त्रियों की अस्मिता की रक्षा की और बराबरी का अधिकार भी दिया। हम इस जंग को सलाम भी करते हैं। लेकिन मंदिर को आंदोलन की जगह बनाने की जिद ने उस सरकार के लिए भी मुश्किल पैदा कर दी है जिसके पास सबसे प्रगतिशील होने का तमगा है। याद रखें, ऐसे मामलों में अदालत फैसला ही सुना सकती है। भगवान अय्यप्पा के भक्त सरकार और संविधान दोनों के सामने पूछ रहे हैं कि हमारे अधिकार का क्या?
अयोध्या मामला हमारे सामने है कि आस्था-अनास्था का सवाल समुदायों को खुद के स्तर पर सुलझा लेना चाहिए। साफ हवा-पानी और रोजी-रोटी की जंग लड़ रहे हिंदुस्तान के सामाजिक सौहार्द को ऐसे टकराव बहुत पीछे की ओर धकेल देते हैं। हम आपस में टकराएंगे और राजनीतिक दल इसका फायदा उठाएंगे। यह वक्त सबको साथ लेकर आगे चलने का है, जिसमें ऊंचे पहाड़ पर स्थित भगवान के भक्त भी हैं।
सबरीमलय कोई आंदोलन की जगह नहीं है। सरकार लोकप्रियता बटोरने के लिए मंदिर में घुसने की कोशिश करने वालों की मदद नहीं करेगी। -कडकमपल्ली सुरेंद्रन, केरल के देवास्वोम मंत्री।
भक्त व सामजिक कार्यकर्ता में फर्क कैसे कर सकते हैं? हम दोनों हैं? -तृप्ति देसाई, सामाजिक कार्यकर्ता