घर से निकल कर कॉलेज और विश्वविद्यालय परिसरों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के अभिभावकों की चिंता आज बदल गई है। मां-बाप को यह चिंता नहीं है कि उसके बच्चे को नंबर कितने आ रहे हैं, उसके प्लेसमेंट का क्या होगा और करियर किस दिशा में जाएगा। आज अभिभावकों की पहली चिंता यह है कि उसके बच्चे पर पुलिस लाठी तो नहीं चला रही, उसे सड़क पर घसीट कर थाने तो नहीं ले जाया जा रहा, लाठी और पत्थर से घायल हो किसी अस्पताल में तो नहीं पड़ा है। सबसे बड़ी चिंता यह कि उसकी राष्ट्रीयता और नागरिकता पर तो कोई शक नहीं किया जा रहा। किसी भी लोकतांत्रिक देश के विद्यार्थी उसके लिए सबसे अहम सार्वजनिक संसाधन होते हैं। शासन-प्रशासन विद्यार्थियों के साथ जैसा व्यवहार करता है उससे देश के हालात तय होते हैं। हिंसा और शको-शुबह के शिकंजे में आए विश्वविद्यालय के युवाओं पर बेबाक बोल।

‘मेरी हस्ती से हर शख्स बेजार क्यों है
मेरा सवाल, मेरा मजहब, मेरा किरदार और अब मेरी किताब
आपके दुश्मनों की फेहरिस्त पर हैरान हूं मैं
लगेगा वक्त थोड़ा मुझे खुद को पहचान लेने में
अब तक तो समझता था हिंदुस्तान हूं मैं’

विश्वविद्यालय परिसर में एक छात्रा कैमरा लिए सवाल करने वालों से रोते हुए कह रही है, आप को क्या मतलब कहां जाऊंगी मैं, ऐसे भी लड़कियों को मारा जाता है, लाइब्रेरी में घुस गए। जिनको पढ़ाई करनी थी, जो सड़क पर नहीं थे उन्हें भी मारा। मुझे बहुत डर लग रहा है। मुझे नहीं पता मैं कहां जाऊंगी। बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की चिंता छोड़ अभिभावकों का नया डर यह है कि कहीं मेरे बच्चे को पुलिस घसीट तो नहीं रही, कहीं वो अस्पताल में तो भर्ती नहीं, कहीं उसकी राष्ट्रीयता पर तो शक नहीं किया जा रहा।

पिछले लंबे समय से हम विश्वविद्यालयों में चल रहे विरोध प्रदर्शन पर लिख रहे हैं। सार्वजनिक मंच पर सबसे खराब विधा होती है मैं-मैं करके लिखना, यह मेरा बच्चा और आपका बच्चा भी हो सकता है का उदाहरण देना। समस्या को एक नागरिक के तौर पर नहीं यह तुम्हारा भी हो सकता है करके देखना। लेकिन इस बार दिल दहल गया। सभी बच्चे बाहर पढ़ते हैं और हम गर्व और भरोसे की नींद सोते हैं कि वे डीयू, जेएनयू, जामिया जैसे परिसर में रहते हैं। इन परिसरों में दाखिले की सूची में अपनी औलाद का नाम देख मां-बाप जवान हो उठते हैं। अपनी औलाद के साथ अभिभावक भी डीयू, जेएनयू, जामिया का हिस्सा हो जाते हैं। विश्वविद्यालय परिसरों में घर के बने लड्डू-मठरी पहुंचते हैं तो छुट्टी में घर लौटते बच्चों से फरमाइश होती है कि अपने पुस्तकालय से अच्छी किताबें लेते आना। दिल्ली का कोई केंद्रीय विश्वविद्यालय अपने एक छात्र के साथ दूर के किसी शहर, कस्बे और गांव तक पहुंच जाता है।

हिंदुस्तान के कोने-कोने से लोग अपने बच्चों को यहां पढ़ने भेजते हैं क्योंकि इन संस्थानों ने हमें भरोसा दिलाया है। औलाद घर में है यह जितनी ज्यादा तसल्ली देता है उससे ज्यादा बेफिक्र हम इस बात को लेकर होते हैं कि वे विश्वविद्यालय परिसर में हैं, छात्रावास में हैं और सबसे सुखद पुस्तकालय में हैं। बेटा और बेटी फोन कर कहते हैं कि मोबाइल साइलेंट रहेगा, आज देर रात तक पुस्तकालय में रहेंगे। बच्चे नींद को दूर भगा रात भर किताब पढ़ेंगे यही बात सोच कर हम हिंदुस्तानी अभिभावकों को चैन की नींद आ जाती है। विश्वविद्यालय में किताब पढ़ती औलाद, एक आम अभिभावक के लिए इससे सुखद स्थिति कुछ नहीं हो सकती है।

पुस्तकालय में किताब पढ़ते विद्यार्थियों पर पुलिस ने लाठियां चला दीं। सर्द रात में अभिभावक तस्वीरें देख रहे हैं, उनके बच्चों के पढ़ने की जगह पर बिखरे खून की बूंदें, सुनसान पड़ा जलपानगृह और सांय-सांय करता परिसर। एक किताब नीचे गिरी है जिसके बीच में बुक मार्क लगा है। विद्यार्थी जीवन में बहुतों का जुनून होता है कि किताब पसंद आ गई तो उसे पहली बैठकी में ही खत्म कर देना है। यह किताब अधूरी पड़ी है और उसे पढ़नेवाला पता नहीं अस्पताल में है या अपने गृह प्रदेश लौट चुका है। लाइब्रेरी में एक कोने में स्वेट-शर्ट फेंका पड़ा है। जिस बच्चे की होगी उसके अभिभावकों की आत्मा कितनी सर्द हो गई होगी।

जब विश्वविद्यालय परिसर के अंदर और वो भी पुस्तकालय में बच्चे सुरक्षित न हों तो एक आम नागरिक क्या करे। वह अपने बच्चों को क्या कह कर दिलासा दे। ऐसा क्यों और कैसे होने दिया गया। जामिया की कुलपति कह रही हैं कि पुलिस उनकी इजाजत के बिना परिसर में पहुंची। कुलपति की आवाज में ग्लानि का भाव था कि उनके विद्यार्थी खुद को कितना डरा हुआ और अकेला महसूस कर रहे हैं। इसके साथ ही जामिया के द्वार से अपना सामान बांध कर घर लौटते छात्र-छात्राओं की तस्वीरें सामने आती हैं। शीतकालीन सत्र की समाप्ति के पहले इन्हें परिसर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है। लड़कियों के चेहरों की उदासी बता रही है कि प्रशासन की असावधानी ने कितने सपने और देश के लोगों का कितना बड़ा भरोसा तोड़ दिया है।

कुछ समय पहले काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की लड़कियों ने शैक्षणिक माहौल को लेकर प्रदर्शन किया तो प्रशासन ने छात्राओं से संवाद के बजाए उनसे सख्ती से निपटना बेहतर समझा। प्रदर्शन कर रही लड़कियों पर लाठीचार्ज हुआ और इस हिंसक माहौल के बाद छात्राओं को हॉस्टल खाली करना पड़ा। बहुत सी लड़कियां अत्यंत साधारण परिवार से थीं और अपने परिवार में कड़ा संघर्ष कर विश्वविद्यालय के छात्रावास पहुंची थीं। उन्हें पढ़ाई-लिखाई के साथ अतिरिक्त मेहनत अभिभावकों को यह समझाने में करनी पड़ती थी कि विश्वविद्यालय परिसर उनके लिए कितना सुरक्षित है। छात्राओं के प्रदर्शन पर पुलिस की कार्रवाई का सबसे बुरा असर इन्हीं लड़कियों के करियर पर पड़ा। कुछ लड़कियां ऐसी थीं जो पुलिस की लाठी खाने के बाद दुबारा कॉलेज पढ़ने न आ सकीं। उनके साधारण परिवेश के अभिभावकों को लगा कि ऐसी पढ़ाई से बेहतर है इनकी शादी कर देना। विश्वविद्यालय परिसर के पहुंचने तक उनके संघर्ष को एक पुलिसवाले की लाठी ने बहुत पीछे की ओर धकेल दिया। पूरी दुनिया में ऐसे उदाहरण पड़े हैं कि हिंसक माहौल का सबसे बुरा असर लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई पर पड़ता है। सबसे पहले उनके ही हाथों से कलम छीन कर सुरक्षा के नाम पर घर में कैद कर लिया जाता है।

विश्वविद्यालयों के युवा संधि रेखा पर होते हैं। आज पढ़ रहे हैं तो कुछ ही समय में इन्हें पढ़ाने और शोध करने के काम में लगना है। हर लोकतांत्रिक देश अपने इस प्रबुद्ध तबके पर गर्व करता है, इन्हें सबसे बड़ा सार्वजनिक संसाधन मानता है। देश की संसद ने नागरिकता कानून में संशोधन को पास किया। इसे लेकर भारत जैसे बहुलतावादी देश के विद्यार्थियों में शंका और जिज्ञासा का भाव उठना स्वाभाविक था। हमारे देश में नागरिकता और आजादी का एक-दूसरे से नाभिनाल संबंध रहा है। भारत में नागरिकता का विमर्श स्वतंत्रता संग्राम के साथ ही आया है। 1947 के बाद जन्मे नागरिकों के लिए आजादी प्राकृतिक है तो उसके साथ नागरिकता भी प्राकृतिक है। अब ऐसा संदेश गया कि एक नागरिक को राष्ट्र राज्य को साबित करना होगा कि वो नागरिक है। इतने जटिल मसले पर विश्वविद्यालय परिसरों में बहस होना स्वाभाविक है। लेकिन विद्यार्थियों के सवाल के साथ संवाद कैसे करना है इसमें शासन और प्रशासन से बड़ी चूक हुई है।

विश्वविद्यालय बौद्धिकता का केंद्र रहे हैं और पूरे देश के लिखने-पढ़ने, सोचने-समझने वाले युवा आहत हैं कि उनकी मांगों पर संवाद करने के बजाए, उनकी शंकाओं का समाधान किए बिना हिंसक तरीके से डराया जा रहा है। आज पुलिस के डंडे से अपने साथी को बचाने के लिए एक युवा लड़की सामने आ जाती है। डंडे के सामने अपनी ऊंगली उठाने की हिम्मत करती है। देश के कई विश्वविद्यालयों में प्रदर्शन की अगुआई लड़कियां कर रही हैं। ये लड़कियां उस जमीन को खोने के लिए तैयार नहीं हैं जो उन्हें आसमान छूने का हौसला देता है। सवाल पूछतीं इन निर्भीक लड़कियों और अपने विद्यार्थियों को सबसे अहम संपत्ति मानने वाली वीसी ने साबित कर दिया है कि विश्वविद्यालय परिसर अपनी भूमिका में खरे उतरे हैं। विश्वविद्यालय परिसरों का इतिहास गवाह है कि उन्होंने उन पुलिसवालों के मानवाधिकारों की भी जंग लड़ी है जिनके डंडे उन पर पड़े हैं। इन परिसरों को और बेहतर बनाने की जंग इसलिए और भी जरूरी है क्योंकि नागरिकों के साथ खड़ा होने वाला बेहतर शासन और बेहतर पुलिस प्रशासन भी यहीं से निकलना है।