‘काबा किस मुंह से जाओगे गालिब, शर्म तुम को मगर नहीं आती’ हाल में पांच विधानसभा चुनाव संपन्न कराने में गंभीर खामियों को लेकर तीखी आलोचना के खिलाफ चुनाव आयोग अदालत पहुंच गया। अपनी स्वायत्तता को भूलने के बाद वह अपना काम करने की कोशिश कर रही अदालत और मीडिया की स्वायत्तता पर ही लगाम लगाने की सिफारिश कर बैठा। भारत में स्वायत्त संस्थाएं इससे पहले भी सवालों के घेरे में रही हैं, लेकिन जिस तरह चुनाव आयोग पर देश की चार उच्च अदालतों में सवाल उठे हैं वे अभूतपूर्व हैं। जब केंद्र और राज्य ऑक्सीजन आपूर्ति पर ‘तू-तू मैं-मैं’ कर रहे थे तब सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें कड़ी फटकार लगाते हुए खुद की निगरानी में समिति बना डाली। अदालत ने संवैधानिक दायरे में अपनी जिम्मेदारी निभाई। अपने ही सदस्य की असहमति की आजादी को रोकने वाले चुनाव आयोग को उसके विरासत पुरुष टीएन शेषन की याद दिलाता बेबाक बोल

समर शेष है, नहीं पाप का, भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा, उनके भी अपराध
रामधारी सिंह दिनकर की इस ऐतिहासिक चेतावनी को ध्यान में रख कर ही शायद अखबारों और अन्य माध्यमों में मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुशील चंद्रा के पूर्ववर्ती लिख रहे हैं कि चुनाव आयोग ठीक से काम नहीं कर रहा है। आयोग की मौजूदा टीम ने ऐसा हाल कर दिया है कि इसके पूर्ववर्ती सदस्य इन दिनों असहज महसूस कर रहे हैं और अपने हिस्से के ‘अपराध’ से बचने की कोशिश में हैं। हालात ऐसे ही रहे तो आने वाले समय में हम चुनाव आयोग का हिस्सा थे…यह बात वे गर्व नहीं दुख और क्षोभ के भाव से कहेंगे। महज कुछ सालों में चुनाव आयोग ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है कि वह अपनी स्वायत्तता को भुलाने के बाद मीडिया की आजादी पर हमला करने के लिए अदालत तक पहुंच गया।

किसी इल्जाम को नकारने का तिलिस्म तो कई लोगों के पास होता है, लेकिन उसका माकूल जवाब देने का इल्म हर कोई नहीं सीख पाता। हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों में आयोग की गंभीर खामियों पर सवाल उठने के बाद अदालत में उसकी दलील सुनिए-अगर दूर के इलाके में केंद्र और राज्य के बड़े नेताओं की रैली में दो लाख लोग जुट जाएं तो हम क्या कर सकते है?

यह भाषा है उस आयोग की जिस पर भारतीय लोकतंत्र की साख टिकी है। उसकी दलील से जिस तरह की गैरजिम्मेदारी और अहंकार टपक रहा है वह भारतीय लोकतंत्र के विकास की किताब में काले अध्याय के रूप में दर्ज होगा। पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के बाद चुनाव आयोग जिस तरह सवालों के घेरे में आया, वह दुखद है। लेकिन इससे ज्यादा दुखद है इस अहम संस्था का अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना, गलती मान सुधार की ओर बढ़ने के बजाए लोकतंत्र के लिए बिगाड़ की भाषा में बात करना। पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के बाद देश में कोरोना विस्फोट से हुए मरघटी मंजर का बड़ा जिम्मेदार चुनाव आयोग को माना गया और मद्रास हाई कोर्ट ने तो तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा कि आखिर क्यों न उस पर हत्या का मुकदमा दर्ज किया जाए। लेकिन देश की चार उच्च अदालतों द्वारा सवालों के घेरे में आने वाला आयोग पूछता है कि हम क्या कर सकते हैं?

हम क्या कर सकते हैं…यह सवाल अदालत में पूछने के बजाए चुनाव आयोग अपने तय दिशा निर्देश भर ही पूरे कर देता तो भारतीय लोकतांत्रिक संस्थाओं के चमकते इतिहास का वह हिस्सा बन जाता। उसे बस कोविड दिशा-निर्देश का उल्लंघन करने वाले नेताओं पर कार्रवाई शुरू करनी थी। आयोग दो लाख की भीड़ जुटाने वाले नेता के चुनाव प्रचार पर प्रतिबंध लगाता चाहे वह कोई भी हो। लेकिन आपने प्रतिबंध लगाने में भी निष्पक्षता नहीं बरती इसके उदाहरण असम से बंगाल तक हैं। नियमों के उल्लंघन पर आयोग बिना पक्षपात के प्रतिबंध लगाने की नजीर पेश करता तो अदालतों को अपना काम छोड़ उसके काम पर टिप्पणी करने की जरूरत ही नहीं पड़ती।
कोरोना महामारी की दूसरी लहर की आशंकाओं के बीच आपने चुनाव कार्यक्रम घोषित किए और तब आपको कहीं भी संक्रमण नहीं दिखाई दिया। चुनावों के बीच जब कोरोना का संक्रमण ऊंचाई पर पहुंच गया, तब भी आपने बंगाल में आठ चरणों की लंबी समयावधि कम करने की अपील पर ध्यान नहीं दिया।

केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के अलावा सब आपसे इस अवधि को छोटा करने की मांग कर रहे थे और आप उनकी मांग को शायद इसलिए छोटा समझ रहे थे क्योंकि वे केंद्रीय सत्ता में नहीं हैं। लेकिन चुनाव बीतने और नतीजे आने के बाद आपको छोटे उपचुनाव करते वक्त नंगी आंखों से भी कोरोना विषाणु दिखने लगा और आपने ‘छोटे चुनावों’ की संवैधानिक जिम्मेदारियों से हाथ खड़े कर दिए।

कोई संस्था स्थायी होती है और उसके सदस्य अस्थायी। इन्हीं अस्थायी सदस्यों के काम से संस्थान की साख बरसों तक बनी रहती है। चुनाव आयोग लोकतंत्र को लेकर अपनी जिम्मेदारी ताक पर रख उस मीडिया के खिलाफ अदालत पहुंच गया जो अपना काम करने की कोशिश कर रहा था। यहां तक कि मीडिया रिपोर्टिंग को लेकर अपने सदस्य राजीव कुमार की असहमति को भी दबा दिया।

चुनाव आयोग में आपसी मतभेद कोई नया नहीं है, अशोक लवासा से लेकर कई उदाहरण पहले के भी हैं। इसके साथ ही आयोग के पास टीएन शेषन का स्वर्णिम अध्याय है। शेषन ने उस बिहार से चुनाव सुधार की शुरुआत की थी जो बूथ लूट और बाहुबलियों की गुंडागर्दी के लिए बदनाम था। तत्कालीन कद्दावर नेता लालू प्रसाद और शेषन का टकराव देश के लोकतंत्र में याद रखा जाएगा। शेषन के कड़े कदमों ने बिहार के मतगणना बूथ की अपराध मुक्त तस्वीर जो आयोग के इतिहास में नत्थी की इस बार बंगाल में प्रवेश के पहले आप देख तो लेते। शेषन की विरासत को भुला आप जिस तरह से देश के लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं वह भी याद रखा जाएगा।

यह सच है कि इस समय हर संस्था सवालों के घेरे में है। लेकिन आपकी तरह बेसाख कोई और संस्था नहीं हुई है। आपने अपने चुनाव आयुक्त की असहमति का अधिकार ही छीन लिया कि वह अपनी ही बात लिख कर कह सकें। वे अपनी बातों को अदालत में रखना चाहते थे और आपने ऐसा नहीं करने दिया। आप अपने सदस्य की आजादी के साथ मीडिया पर प्रतिबंध लगाने की तानाशाह मंशा भी दिखा बैठे। जब आप अपने संस्थान के सदस्य के अधिकार को दबा रहे हैं तो आपसे दूसरों के अधिकार की रक्षा करने की उम्मीद ही बेमानी है।

आपको संविधान ने सुधारवादी कदम उठाने का दायित्व दे रखा है। आप चाहते तो इस समय एक नजीर पेश कर सकते थे। आपको किसी व्यक्ति विशेष के चुनाव प्रचार पर प्रतिबंध लगाने में परेशानी थी तो आप आम रोक तो लगा सकते थे। कोविड को लेकर यह आदेश तो दे सकते थे कि सिर्फ राज्य के नेता चुनाव प्रचार करेंगे। बाहरी नेताओं के आने पर रोक लगाई जा सकती थी। तृणमूल कांग्रेस का आरोप था कि पूरे देश से भाजपा और अन्य दलों के लोग आ रहे हैं और वापस भी जा रहे हैं। वे या तो अपनी जगहों से संक्रमण लेकर आए या बंगाल से संक्रमण लेकर अपने शहर और कस्बे से लेकर गांवों तक गए। यह तो सभी ने देखा कि बहुत से नेता दिल्ली में ठीक थे और जब बंगाल से लौटे तो संक्रमित हो गए। ऐसे कई नेता हैं जिन्हें कोरोना हुआ और अपने हिसाब से ठीक होते ही चुनाव प्रचार के लिए बंगाल पहुंच गए, जबकि कोरोना विषाणु के उनके अंदर होने की आशंका रही होगी।

चुनाव लोकतंत्र को विस्तार देने के लिए कराए जाते हैं। लेकिन पांच विधानसभा चुनावों में आयोग ने जो संकुचित रवैया अपनाया उससे लोकतंत्र की दीवार ढहने का खतरा मंडराने लगा। देश के लोकतंत्र में चुनाव आयोग की अहमियत क्या है यह जानने के लिए सुशील चंद्रा की अगुआई वाली टीम हाई स्कूल की कक्षाओं में पढ़ाए जाने वाले नागरिकशास्त्र की ही किताब पढ़ लें तो लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए कुशास्त्र गढ़ने में माहिर होने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आप वह कुम्हार हैं जिसके ऊपर देश के लोकतंत्र का चेहरा गढ़ने की जिम्मेदारी है। आपकी स्वायत्त संस्था पर भरोसा कर देश का चुनाव होता है और आप इस भरोसे को तोड़ रहे हैं। आपके इस बुरे दौर की नजीरों के साथ नागरिकशास्त्र की किताबों में अलग अध्याय होगा जिन्हें पीढ़ियों तक विद्यार्थी पढ़ेंगे-चुनाव आयोग को क्या नहीं करना चाहिए।

2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान असहमति के सुर को लेकर अशोक लवासा काफी चर्चा में आए थे। मामला था आदर्श चुनाव संहिता का और छह मामलों में आयोग नरेंद्र मोदी और अमित शाह को क्लीन चिट देना चाहता था। लवासा भाजपा के इन दोनों नेताओं को क्लीन चिट देने के पक्ष में नहीं थे। लवासा चाहते थे कि उनकी इस असहमति को दर्ज किया जाए। अपने विरोध के तहत उन्होंने चुनाव आयोग की बैठकों में जाना बंद कर दिया था।