लाभार्थी…। उत्तर प्रदेश के चुनाव ने जनसंचार माध्यमों को नया विश्लेषण दिया है। हिंदी भाषा में यह शब्द कोई नया नहीं है। आमतौर पर सरकारी काम-काज के लिए इस्तेमाल होने वाले इस शब्द ने योगी आदित्यनाथ को दूसरी बार उत्तर प्रदेश की सत्ता दिला दी है, ऐसा दावा किया जा रहा है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में राशन और भाषण तो आजादी के बाद से सभी दलों के चुनावों का हिस्सा रहे हैं। लेकिन आजादी के 75 साल बाद राशन और सुशासन का भाषण अगर योगी आदित्यनाथ के लिए अमृत महोत्सव जैसा साबित हुआ तो उसकी वजह है उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन की भूमिका। संगठन जन-जन तक यह बात पहुंचाने में सफल रहा कि ये सारे लाभ मोदी-योगी की जोड़ी की वजह से हैं और बाकी सब हानि है। हिंदुत्व के छाते के साथ उत्तर प्रदेश की जमीन पर खड़े हुए योगी आदित्यनाथ के दूसरी बार लाभार्थी बनने पर बेबाक बोल।
आप किस बिरादरी की हैं? वरिष्ठ पत्रकार ने जब कैमरे के सामने यह सवाल पूछा तो जवाब को सुनकर कैमरा उनके चेहरे के असमंजस को कैद करने से रोक नहीं पाया। उत्तर प्रदेश की जमीन पर उम्मीद से परे (हम हिंदू हैं) जवाब के बाद पत्रकार की महिला को लेकर प्रतिक्रिया थी कि आपके परिवार से कोई नहीं आया है और वो इधर-उधर देखने लगे। बिरादरी पूछने के सवाल पर महिला का खुद को हिंदू बताना और पत्रकार का बगलें झांकना ही उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों का सार है। उनके चेहरे का भावानुवाद कुछ ऐसा था-अरे यह महिला है, इसे तो जाति व धर्म का अंतर भी नहीं पता। किस गलत इंसान से सवाल पूछ लिया।
उत्तर प्रदेश के नतीजों पर बात करने के पहले हमें चुनाव आयोग के दिए आंकड़े पर भी ध्यान देना होगा। आयोग के मुताबिक पांच राज्यों में संपन्न चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या में इजाफा हुआ है। इस बार पुरुषों के मतदान का फीसद लगभग 68.78 था तो महिला मतदाताओं का फीसद 70.42 के आसपास रहा। पिछले कुछ सालों में चुनावों के दौरान महिला मतदाताओं की सक्रियता उल्लेखनीय तरीके से बढ़ी है।
खेतों-खलिहानों, राशन की दुकानों से लेकर कीर्तन और जगरातों में वे अपनी राजनीतिक अभिव्यक्ति को लेकर मुखर हो रही हैं। वे मुखर हैं उस राजनीति को लेकर जिसके कार्यकर्ता उन तक उनके भाव और अभाव के साथ पहुंच रहे हैं। उन तक वह राजनीतिक संगठन पहुंच चुका है जो उन्हें अपनी जाति-नहीं, हिंदू की पहचान पर गर्व करने का पाठ पढ़ा चुका है।
किसान आंदोलन के बाद एकबारगी लग रहा था कि भाजपा-संघ का लोगों को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के छाते तले लाने का एजंडा नाकाम हो सकता है। लेकिन हिंदुत्व का यह एजंडा उत्तर प्रदेश में पूरी तरह सफल रहा। उत्तर प्रदेश में लगातार दूसरी बार भाजपा के सरकार बनाने में हिंदुत्व के साथ योगीत्व का भी योगफल रहा है।
पूरे देश में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री या तो बदले जा रहे थे या कड़ी फटकार पा रहे थे। योगी आदित्यनाथ भी दिल्ली दरबार में हाजिरी दे रहे थे। लेकिन योगी न सिर्फ बरकरार रहे बल्कि दिल्ली दरबार से आई मोदी और योगी की जोड़ी की तस्वीर को उपयोगी बताकर दोहरे इंजन का प्रचंड प्रचार किया।
यहां सवाल उठ सकता है कि इसी हिंदुत्व के शामियाने को लेकर भाजपा बंगाल में भी गई थी तो वहां यह नारा-ए-नाकाम क्यों बन गया। दिल्ली में भाजपा ऐसा क्यों नहीं कर पाई? इसका जवाब यह है कि दोनों जगह ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल की निजी छवि भी थी। उसी तरह उत्तर प्रदेश में योगी ने हिंदुत्व के साथ खुद की छवि को भी विस्तारित किया। हिंदुत्व के साथ योगीत्व को भी नत्थी किया।
योगीत्व, मतलब हर तरह की परंपरा को तोड़ना। जहां मठों के महंतों को परंपराओं का वाहक माना जाता है वहीं योगी ने एक रंगरेज की तरह परंपराओं के रंग ही बदल डाले। उन्नाव और हाथरस मामले राष्ट्रीय स्तर पर आए और उत्तर प्रदेश शासन की छवि बेहद खराब हुई। योगी ने इस छवि को सामूहिक स्मृति से मिटाने की पूरी कोशिश की।
लखीमपुर खीरी कांड का सारा दोष केंद्र सरकार पर गया और योगी के नेतृत्व में भाजपा ने लखीमपुर की सभी आठ सीटें जीत लीं। नोएडा से लेकर गाजियाबाद और लखनऊ तक अफसरों को डांटने की छवि ही योगी ने आम लोगों तक पहुंचाई।
उत्तर प्रदेश संघ की प्रयोगशाला है तो योगी उसके अहम वैज्ञानिक। योगी की जमीन इसलिए मजबूत हुई क्योंकि वहां संघ ने अपने कार्यकर्ताओं को पूरी तरह झोंक दिया। शहरों की सोसायटी के आरडब्लूए से लेकर पार्क में महिलाओं की कीर्तन मंडली व गांवों में शादी-ब्याह के घर तक। हर जगह संघ के कार्यकर्ता मोदी-योगी की जोड़ी को उपयोगी समझाने में जुटे हुए थे।
संघ ने जो मतदाता वर्ग तैयार किया वह मुश्किल वक्त में भी यह बताते हुए योगी के साथ खड़ा रहा कि उनकी वजह से जीवन आसान हुआ। मुफ्त राशन और आवास योजना जैसी जनकल्याणकारी योजनाएं हर सूबे और शासन में होती हैं। योगी के खाते में इन योजनाओं का योगफल भी चक्रवृद्धि ब्याज की तरह आया। जब किसी पार्टी का सांगठनिक ढांचा मजबूत होगा तभी वह जनता के वोट को अपने खाते में हस्तांतरित करने का ढांचा बना पाता है।
उत्तर प्रदेश के 2017 के चुनावी नतीजों को ध्रुवीकरण का नाम दिया गया था। पिछले विधानसभा चुनाव में यह ध्रुवीकरण ऊपर से थोपा हुआ था। एक तरफ सपा-कांग्रेस जैसा गठबंधन था तो दूसरी तरफ भाजपा थी। अगर हम 2022 के नतीजों को किसी तरह के ध्रुवीकरण का नाम देना चाहते हैं तो इस बार यह जनता का ध्रुवीकरण है जो ऊपर से नहीं थोपा गया, जमीन पर बनाया गया।
उत्तर प्रदेश में सभी दलों ने अपने दौर की इस अहम राजनीतिक लड़ाई को लड़ा। इस बार दल अलग-अलग थे तो जनता का मानसिक गठबंधन हो चुका था। वह हिंदुत्व को लेकर चलने वाले योगीत्व को लेकर एकतरफा हो चुकी थी। यही वजह है कि सपा को छोड़ कर अन्य दल पूरी तरह गायब हो चुके हैं।
बसपा के पतन के साथ दलित राजनीति हिंदुत्व के साये में सिमट चुकी है (इस संदर्भ में पंजाब का विश्लेषण अगले स्तंभ में)। कांशीराम की विरासत के पास आज कोई जवाब नहीं है। अखिलेश यादव के समर्थक जाति समीकरण को लेकर जितने उग्र हो रहे थे मायावती उतनी ही चुप थीं। एक समय था जब मायावती ने उत्तर प्रदेश में इतिहास रचा था तो आज उनका पतन भी ऐतिहासिक ही है।
स्वामी प्रसाद मौर्य के भाजपा छोड़ने के साथ ही उत्तर प्रदेश के चुनावी समीकरणों को जाति से जोड़ दिया गया था। सामाजिक न्याय की खातिर अपना मुंह खोलने के लिए पांच साल तक वैचारिक रूप से मुर्दा पड़े नेता को जमीन पर कोई तवज्जो नहीं मिली। मौर्य की हार ने कथित सामाजिक न्याय वाली राजनीति का पाठ्यक्रम ही बदल दिया है।
हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के योगफल के साथ योगीराज भाग-दो आ चुका है। उत्तर प्रदेश के खाते में देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने का श्रेय आता रहा है। लेकिन उनमें से ज्यादातर की कर्मभूमि उत्तर प्रदेश नहीं रही और दिल्ली वाली पहचान बनी। योगी आदित्यनाथ में उत्तर प्रदेश के लोग अपना वह नायक देख रहे हैं जिसे उन्होंने खड़ा किया है। चुनाव सिर्फ नेता नहीं जनता भी लड़ती है।
‘योगीत्व’ का यही सार है कि जब जनता आपके लिए खड़ी हो उठती है तो राजनीति की किताब में नए अध्याय बनते हैं। यह तय है कि नब्बे के दशक के बाद शुरू हुई अस्मितावादी राजनीति के औजार से उस हिंदू राष्ट्रवाद का मुकाबला नहीं किया जा सकता जिसके सहारे योगी ने देश के सबसे बड़े राज्य की जनता को अपने पक्ष में कर अपना प्रचारक बना लिया।
विपक्ष के लिए संदेश है कि जमीनी बदलाव कोई पांच साला राजनीतिक पाठ्यक्रम नहीं है कि आप परीक्षा के कुछ समय पहले रट्टा मार कर उत्तीर्ण हो जाएंगे। राशन और सुशासन का भाषण तो सभी दलों के पास है, लेकिन भाजपा के पास वह संगठन है जो लोगों को बताता है कि जो मिला सिर्फ इनकी वजह से मिला। लोकतंत्र में हर तरह की जनसुविधा पाना जनता का हक है, लेकिन संघ जैसे जनसंगठन की पाठशाला ने जनता को इसका लाभ समझाकर असली ‘लाभार्थी’ योगी को बनवाया।
उत्तर प्रदेश की जनता ने सभी दलों को उसके हिस्से का गृह-कार्य दे दिया है। अब यह राजनीतिक दलों, टिप्पणीकारों, स्वयंभू राजनीतिक पंडितों की मर्जी है कि वे इस मुश्किल पाठ को ककहरे से शुरू करें या फिर जनता को ही खारिज कर दें।