पांच अगस्त 2019 को कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म होने के बाद सारी दुनिया की नजर इस बात पर थी कि यहां जनतंत्र बहाली का रास्ता कैसे तैयार होता है। लगभग दो साल बाद इस दिशा में केंद्र के सकारात्मक कदम उठाते ही पीडीपी प्रमुख ने इसके लिए पाकिस्तान से वार्ता का राग छेड़ दिया। महबूबा मुफ्ती की विडंबना है कि उनके पिता ने ही सरकार बनाने के लिए वादी में उस दल का प्रवेश करवाया जिसके लिए अनुच्छेद-370 का खात्मा राजनीतिक मिशन था। कश्मीर के राजनीतिक दलों ने जिस सकारात्मक लहजे में केंद्र से वार्ता की वह इस बात का इशारा कर रहा है कि पिछले दो साल में घाटी का राजनीतिक मिजाज बहुत बदल चुका है। कश्मीर के क्षेत्रीय दल समझ चुके हैं कि वहां की राजनीति में पाकिस्तान की ओर जाने वाली सड़क बंद हो चुकी है। कश्मीर में अलगाववाद के खात्मे और लोकतंत्र की बहाली की ओर उठे कदम पर बेबाक बोल

‘अगर कश्मीर मसले का समाधान हो जाता है तो पाकिस्तान को परमाणु हथियार की जरूरत नहीं है’ पाकिस्तान के वजीर-ए- आजम इमरान खान ने हाल ही में कश्मीर पर ऐसा भड़काऊ बयान दिया था। पाकिस्तान में अपनी साख बचाने के लिए हुक्मरानों की कश्मीर पर आग उगलने की मजबूरी समझ में आती है। दुखद है कि हिंदुस्तान की जमीन पर कश्मीर में विपक्ष की नेता और पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती इस मजबूरी को अब भी ढो रही हैं, जब वहां भारत सरकार लोकतंत्र बहाली की तरफ कदम उठा रही है। आज जब जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 इतिहास बन चुका है तब भी इनका अलगाववादी सुर पाकिस्तान राग शुरू कर ही देता है। कश्मीर की मुख्यधारा के राजनीतिक दलों को केंद्र सरकार से बातचीत का न्योता मिलने के बाद महबूबा मुफ्ती ने वादी की जमीन पर कहा था कि इस वार्ता में पाकिस्तान को भी शामिल करना चाहिए। हालांकि उन्होंने दिल्ली की बैठक में इस तरह के रुख से परहेज किया।

पांच अगस्त 2019 को विशेष राज्य का दर्जा खत्म होने के बाद पूरी दुनिया की नजर कश्मीर पर टिकी है कि वहां लोकतंत्र बहाली का रास्ता कैसे तैयार होता है। लगभग दो साल बाद इसकी राह निकलते ही महबूबा मुफ्ती जैसी नेता के व्यवहार को देख लग रहा कि वे चाहती ही नहीं हैं कि कश्मीर आम जनतांत्रिक जगहों की तरह विकास करे। अपने राजनीतिक भविष्य को गर्त में जाते देख वे हवा में ऐसी बात उछाल रही हैं जिसका मकसद सिर्फ अपनी क्षेत्रीय राजनीति को बचाना है।

आज इमरान खान वैश्विक मंच पर कहते हैं कि पाकिस्तान अफगानिस्तान में किसी तरह का संघर्ष नहीं चाहता है और वह वहां की किसी भी सरकार के साथ मिल कर बिना किसी का पक्ष लिए काम करेंगे। बलूचिस्तान के सियासतदान पाकिस्तान सरकार के अत्याचार से बचने के लिए हिंदुस्तान से मदद की मांग करते ही रहते हैं। कुछ बलूची नेता तो यहां तक कह चुके हैं कि हिंदुस्तानी हुकूमत हमारा अधिग्रहण कर ले। ऐसे हालात में भी जब महबूबा भारत में पाकिस्तान को पक्ष बनाने की पैरोकारी की बात उठा देती हैं तो उनकी सियासी नीयत पर सवाल उठेंगे ही।

भारत के नितांत घरेलू मामले में पाकिस्तान को शामिल करने के महबूबा मुफ्ती के पहले के बयान के पीछे के दबाव को समझने की कोशिश की जा सकती है। अगर 2014 के बाद नरेंद्र मोदी ने देश की सियासत को बदल दिया तो कश्मीर में महबूबा मुफ्ती के पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद वही नेता थे जिन्होंने भविष्य को भांप कर जम्मू कश्मीर का इतिहास बदल दिया। उनकी अगुआई में पहली बार पीडीपी और भाजपा की गठबंधन सरकार बनी। वे पीडीपी के अगुआ सईद थे जिन्होंने कश्मीर में भाजपा सरकार का प्रवेश करवाया। इसके पहले दिल्ली की सरकार के लिए वहां पूरी तरह नकारात्मक माहौल ही बनाया जाता था। जाहिर सी बात है कि भाजपा वहां अपनी मुख्यधारा की राष्ट्रीय राजनीति ही करती जिसके बाद इनकी क्षेत्रीय पहचानों की साख पर खतरा पैदा हो गया।

एक तरह से देखा जाए तो 2015 में पीडीपी-भाजपा के गठबंधन के बाद कश्मीर में अलगाववादी सुरों की राजनीति को खात्मे के कगार पर पहुंचा दिया गया। कश्मीर में बदलाव की इस बयार से सबसे ज्यादा परेशानी महबूबा मुफ्ती को हुई, जिनकी पार्टी ने वहां उस दल का प्रवेश कराया जिसके लिए अनुच्छेद-370 का खात्मा राजनीतिक मिशन था। ऐसे माहौल में वे अपनी साख को किसके बरक्स रखेंगी? क्या यह साख कश्मीर के अवाम के अर्थ में होगी? अब भी अगर वे अनुच्छेद-370 की वापसी का राग अलापती रहेंगी तो उनके पास थोड़े समय और टिकने के लिए पाक जैसे हथकंडे के अलावा और कोई चारा नहीं है।

किसी भी तरह का आजाद और कमजोर क्षेत्र न तो भारत के फायदे में है न ही कश्मीरी अवाम के। इसमें फायदा सिर्फ साम्राज्यवादी ताकतों का है जिनके हाथों पाकिस्तान भारत के खिलाफ खेलता रहता है। साम्राज्यवादी ताकतों का इतिहास रहा है कि वे कश्मीर के जरिए भारत और पाकिस्तान दोनों को नियंत्रित करने की कोशिश करती रही हैं।

ऐसी स्थिति में कश्मीर में जनतंत्र बहाली की नीति से बेहतर कुछ नहीं हो सकता। भाजपा समझ चुकी है कि कश्मीर में भारत की पकड़ जनतंत्र की जड़ से ही मजबूत हो सकती है। अब क्षेत्रीय दलों को भी जनता को गुमराह करने की कोशिश करने के बजाए जनतंत्र के नाम पर साथ और अपनी साख हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए। जनता के बीच इनकी साख इसलिए खत्म हो रही क्योंकि वे वहां भारतीय संविधान के हिसाब से जनतंत्र लागू होने के हिमायती नहीं होते थे, जिस कारण कश्मीरी अवाम के बुनियादी नागरिक अधिकार निलंबित होते रहते थे।

पाकिस्तान से कभी भी और कैसी भी वार्ता होगी तो वह भारत सरकार के तहत होगी। यह भारत की केंद्रीय सरकार का क्षेत्र है। उस क्षेत्र में शांति कायम करने के लिए पाकिस्तान से बातचीत की नीति हो सकती है। लेकिन भारतीय जनतंत्र की बहाली में पाक राग अलापने का कोई औचित्य नहीं है। कश्मीर में भाजपा को लाने में, उसके साथ सरकार बनाने में और उसके कारण कश्मीर से अनुच्छेद-370 की विदाई के बाद पीडीपी की जमीन पूरी तरह खिसक चुकी है। आज पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी दक्षिण एशिया में शांति की बहाली के लिए कश्मीर को फिलस्तीन जैसे मसले के समकक्ष रख कश्मीर में अलगाववादी भावना को उकसा रहे हैं तो महबूबा भी उनके ही हाथ मजबूत करती दिख जाती हैं।

भारत में कश्मीर को जन्नत का खिताब दिया गया है। लेकिन वैश्विक राजनीतिक शक्तियों की उस पर नजर उसके सामरिक महत्व के कारण है। चीन से लेकर अमेरिका तक इसमें दखलंदाजी करते रहे हैं। कश्मीर वह क्षेत्र है जहां से कई देशों पर नजर रखी जा सकती है। इसलिए वैश्विक महाशक्तियां भारत की इस शक्ति को कमजोर ही देखना चाहती हैं। उनके साम्राज्यवादी लक्ष्य के लिए कमजोर और ‘आजाद’ कश्मीर ही सबसे अनुकूल हो सकता है। यही कारण है कि अफगानिस्तान से अमेरिका के रुख्सत होने के बाद भारत ने अफगानिस्तान के मामले में व्यावहारिक नजरिया रखते हुए सभी पक्षों से बातचीत का रुख अख्तियार किया। अफगानिस्तान वह क्षेत्र है जिसका इस्तेमाल पाकिस्तान कभी भी भारत के खिलाफ कर सकता है।

कश्मीर का वर्तमान सच यह है कि वहां राजनीतिक राह बनाने के लिए अब पाकिस्तान की सड़क पर चलने की नीति नहीं चलेगी। जो नीति भारत सरकार की नहीं, वो अब कश्मीर की भी नहीं हो सकती। वादी की जमीन पर पाकिस्तान को बुलावे की बात कर महबूबा मुफ्ती अपने चुनावी क्षेत्र के कुछ अलगाववादियों को खुश कर सकती हैं। लेकिन वे कश्मीर के भविष्य नहीं हैं।

इतिहास पीछे की ओर नहीं लौटता। विशेष राज्य का दर्जा बीते वक्त की बात है। हालांकि यह मामला अभी अदालत में है। लेकिन अब मुख्यधारा की कोई भी पार्टी अनुच्छेद-370 की वापसी को मिशन की तरह लेकर नहीं चल पाएगी। कश्मीर की अस्मिता भी वही तिरंगा और संविधान है जो पूरे भारत की साझी अस्मिता है। कश्मीर अब अनुच्छेद-370 की पुन:बहाली नहीं बल्कि जनतंत्र की बहाली करने वालों का होगा। अलगाव की ओर जानेवाले हर रास्ते को एक दिन बंद होना पड़ता है, दिल्ली में हुई बैठक में क्षेत्रीय नेताओं ने यह संदेश दे ही दिया है। वैसे भी किसी क्षेत्र के केंद्रशासित प्रदेश होने के बाद वहां क्षेत्रीय राजनीति की जमीन बहुत मजबूत नहीं रह जाती है। कश्मीर में अब अनुच्छेद-370 की पुन:बहाली नहीं जनतंत्र की बहाली करने की राजनीति मजबूत होगी।

कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उस वक्त अपनी पहचान बनानी शुरू की थी जब वादी में अब्दुल्ला परिवार शक्ति केंद्र था। 1989 में वे भारत के पहले मुसलिम गृहमंत्री बने थे। अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्होंने विरोधी विचारधारा की पार्टी के साथ चलने से भी परहेज नहीं किया। सईद ने जब 2015 में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई तो सवाल उठे थे कि यह विरोधाभासी साथ कितना लंबा चल पाएगा।