मुकेश भारद्वाज

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजियो ज्ञान…इस कबिराई भाव में बह 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद राजनीतिक टिप्पणीकार कह रहे थे कि हिंदुत्व और राष्ट्रवाद ने जाति के मुद्दे को हाशिए पर धकेल दिया है। लेकिन महज सात साल बाद उसी उत्तर प्रदेश में चुनाव को जाति के ध्रुव पर टिका दिया गया जहां हिंदुत्व की पहचान के साथ अपने कदम जमा कर भाजपा केंद्रीय सत्ता में आई। मंडल आयोग के दौर में जो चेहरे आरक्षण के विरोध में सड़क पर प्रदर्शन कर रहे थे आज वो संसद के जरिए जाति को केंद्रीय मुद्दा बना चुके हैं। एक तरफ हॉकी खिलाड़ी वंदना कटारिया को उनकी जाति के कारण अपमानित करने की कोशिश होती है तो दूसरी तरफ भाजपा अध्यक्ष खास जाति से जुड़े मंत्रियों के सम्मान समारोह में शिरकत करते हैं। जाति ही पूछो की नई राजनीतिक मुहिम के इन दृश्यों को एक साथ समझने की कोशिश करता बेबाक बोल

मजहबी बहस मैंने की ही नहीं
फालतू अक्ल मुझ में थी ही नहीं।
– अकबर इलाहाबादी
अकबर इलाहाबादी ने जिस ‘अक्ल’ को कठघरे में रखा है आज वह सामाजिक और राजनीतिक प्रयोगशाला का सबसे बड़ा प्रयोग बन चुका है। कुछ समय पहले कपड़े धोने की मशीन बनाने वाली एक कंपनी ने प्रचार किया कि उसकी वाशिंग मशीन ‘फजी लॉजिक’ (अस्पष्ट तर्क) से लैस है। बजरिए कंप्यूटर की दुनिया के इस शब्द के जरिए कंपनी ने कहा कि उसकी वाशिंग मशीन सच और झूठ के इतर सत्य के तर्क को परखने की क्षमता रखती है। यानी उसमें सूती, ऊनी और रेशमी हर तरह के कपड़ों को पहचान कर उनकी जरूरत के हिसाब से धोने की क्षमता है।

आज हमारा देश जिस दौर में जी रहा है, वह मशीन के इसी संस्करण की तरह व्यवस्था का नया रूप धर रहा है। यह हमारा नया युग-बोध है। इस समय को उत्तर आधुनिक के बाद उत्तर सत्य तक का नाम दिया जा चुका है। आज के समय में हमारे सामने समाजवाद जैसी कोई स्पष्ट चुनौती नहीं रह गई है। यानी हमारे सामने कोई एक प्रतिद्वंद्वी नहीं है। अगर सामने कोई स्पष्ट चुनौती होती है तो हम उसके खिलाफ खास तरह की रणनीति बनाते हैं। लेकिन स्पष्ट चुनौती के बिना व्यवस्था चाहती है कि सबको अलग-अलग कपड़ों की तरह धोया जाए। हम किसी एक लक्ष्य, किसी एक भाव के साथ आगे नहीं बढ़ें।

ओलंपिक जैसे वैश्विक खेल समारोह में तोक्यो में इजराइल की राष्ट्रधुन बजती है तो भारत में संगीतकार अनु मलिक की चोरी पकड़ ली जाती है। आरोप लगता है कि उन्होंने फिल्म ‘दिलजले’ के देशभक्ति गीत ‘मेरा मुल्क, मेरा देश, मेरा ये वतन’ की ‘प्रेरणा’ यहीं से ली थी। हॉकी के खेल में भारतीय महिला खिलाड़ी इतिहास रच कर आगे बढ़ती हैं तो पूरे देश की बेटी होती हैं। लेकिन भारतीय टीम के हारते ही टीम की एक सदस्य को भारत में इस तरह जलील किया जाता है, मानो धुन की चोरी उसी ने की हो। उसके परिजनों को कहा जाता है कि वे दलित हैं इसलिए हार मिली है। पीवी सिंधु ने महिला खिलाड़ी के तौर पर ओलंपिक में लगातार दूसरी बार पदक जीत कर इतिहास रचा तो भारत में इंटरनेट पर सबसे पहले उनकी जाति खोजी जाने लगी। कई अन्य खिलाड़ियों की सफलता को भी जाति के आधार पर वर्गीकृत किया गया। एक वर्ग ने नीरज चोपड़ा के भाले को महाराणा प्रताप के साथ जोड़ कर राष्ट्रवादी करार दिया तो इसी वजह से दूसरे वर्ग ने चोपड़ा की स्वर्णिम सफलता को ‘सांप्रदायिक’ बता दिया। नीरज का प्रदर्शन ‘फेंकने’ के व्यंग्य में तब्दील कर दिया जाता है और एक सौ साला राष्ट्रीय उपलब्धि मीम और चुटकुलों का हिस्सा बन जाती है।

वंदना कटारिया की जाति, नीरज के भाले के तर्क के बाद जब खिलाड़ी अब तक के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के साथ देश लौटे तो उस वक्त सुर्खियों में थे जंतर-मंतर पर एक खास समुदाय के खिलाफ दिए जा रहे नारे। वहीं दिल्ली में दलित बच्ची के बलात्कार के दोषियों के आरोपियों को पकड़ने के लिए हुए प्रदर्शन को लेकर पुलिस कहती है कि आपको अपना मजमा लगाने की इजाजत नहीं मिलेगी।

कटारिया, चोपड़ा से लेकर जंतर-मंतर के नारों में हमें सीधा-सीधा कोई तारतम्य नहीं दिखेगा। लेकिन यह सब एक साथ चल रहा है। इसी समय भारतीय संसद के वीडियो सामने आते हैं। संविधान निर्माताओं ने कभी नहीं सोचा होगा कि भारतीय संसद के उच्च सदन से इतने निम्नतम दृश्य आएंगे। सांसदों की अराजकता भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार कर रही होती है। वहीं जंतर-मंतर पर ही चल रही किसान संसद शांति के साथ समाप्त हो जाती है और उन आंदोलनकारियों को इतने व्यवस्थागत तरीके से सुरक्षा के साथ जंतर-मंतर से ले जाया जाता है मानो किसी अति विशिष्ट का काफिला जा रहा हो। एक तरफ चुनी हुई संसद नहीं चल रही है और दूसरी तरफ उन्हें चुन कर उनसे सवाल पूछने वाले किसान पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ चल रहे हैं। वहीं सुप्रीम कोर्ट लगातार एक के बाद एक ऐसे फैसले दे रहा है जो पूरी पुलिस व्यवस्था की अराजकता को सामने ला रहा है। रद्द कानूनों पर लोग जेल भेजे जा रहे हैं, जेल को अनिवार्य और जमानत को अपवाद बनाया जा रहा है।

देश में चल रहे इतने संदर्भों के दृश्यों पर एकबारगी लग सकता है कि कोई आपसी रिश्ता न हो। अगर हम इन सबको बिना रिश्ता जोड़े देखेंगे तो अराजकता के सिद्धांत की बात कर सकते हैं। दरअसल व्यवस्था भी चाहती है कि ऐसी अराजकता बनी रहे। इसलिए हम कह सकते हैं कि यह अराजकता व्यवस्थागत है, कपड़े धोने की मशीन के संदर्भ में ‘फजी लॉजिक’ है। व्यवस्था को अपना मकसद पूरा करना है इसलिए वह ऐसे हालात पैदा होने देती है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री को ‘अब्बाजान’ कहने से लेकर जंतर-मंतर पर खास समुदाय के खिलाफ लगाए गए नारे में एक आम आदमी रिश्ता नहीं खोज पाएगा।

वह नहीं समझ पाएगा कि ओवैसी और अन्य नेता टीवी चैनल के उस बहस में बाखुशी कैसे खड़े हैं जहां तराजू पर ओम और चांद के निशान को अलग-अलग पलड़ों पर रखा गया है। जो सरकार एक राष्ट्र और एक हिंदू पहचान के नारे के साथ आगे बढ़ रही थी वह अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण का ‘तुरुप का पत्ता’ कैसे चल रही है? उसके मंत्रिमंडल के विस्तार में जातिगत समीकरण क्यों हावी है?

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओबीसी वर्ग के मंत्रियों का अलग से सम्मान समारोह क्यों करते हैं? वहीं साइकिल वाले समाजवादी भगवान परशुराम की तस्वीर के साथ जयकारे लगा रहे हैं तो बसपा ब्राह्मणों को न्याय दिलाने की बात कर रही है। पूरे मानसून सत्र के दौरान विपक्ष के हंगामे की बौछार तब खत्म हो गई जब लोकसभा में ओबीसी सूची बनाने से जुड़े संविधान संशोधन विधेयक को पारित होना था। यह संशोधन विधेयक 385 बनाम शून्य मतों से पारित हो गया। किसी विधेयक को लेकर ऐसा शून्य विरोध बता रहा है कि बजरिए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, 2024 के आम चुनाव में जाति को ही केंद्रीय मुद्दा बनाया जाएगा। उन विश्लेषकों को अब अफसोस होगा जिन्होंने 2014 में राजग की ऐतिहासिक जीत के बाद कहा था कि भारतीय चुनाव का मैदान राष्ट्रीय हो चुका है और यहां जाति का मुद्दा अब नहीं चलेगा। जिस भाजपा को राजनीति का नया मुहावरा गढ़ने का श्रेय दिया जा रहा था वह जाति के पुराने पाठ्यक्रम पर लौट आई है।

व्यवस्था चाहती है कि जनता जाति के मुद्दे पर ही उलझी रहे। जनता भारत को छोड़ पूरी दुनिया को पेगासस के लिए जिम्मेदार माने, संसद ठप होने का जिम्मेदार किसानों को माने। लेकिन ओलंपिक में पदक मिल रहा है तो उसका तमगा अपने सिर पर रखने में सरकार एक क्षण न गंवाए। और ठीक इसका उलटा हो जाए तो हॉकी में हार के लिए नास्तिक लोग आस्तिक बन शुभ-अशुभ का खेल खेलने लगें।

यह असंगति इस दौर का मूल भाव बन गई है। व्यवस्था हमारी अक्ल में घालमेल कर, सारे तर्क को अस्पष्ट बना जनता को ऐसा ‘दिलजले’ बना चुकी है जो कभी जाति, तो कभी मजहब के नाम पर जलने और जलाने के लिए तैयार बैठी है। हर किसी को अलग-अलग पहचान के ‘असली’ के पीछे लगा दिया गया है जहां उसे 32 लाख अच्छी गुणवत्ता की वेतन वाली नौकरियां घटने का सवाल भी नकली लगने लगता है।