इन दिनों हर राजनीतिक बदलाव और उसका असर इतना क्षणिक होता है कि राजनीतिक टिप्पणीकारों के लिए यह अवकाश पर जाने का समय हो गया है। राजनीति की परिभाषा सीटों के जुगाड़ से बनी सरकार तक सीमित हो गई है। भाजपा हैदराबाद में सत्ताधारी द्वारा स्नेह प्रदर्शन की बात करती है, लेकिन बिहार में उसके अध्यक्ष क्षेत्रीय दलों के जल्द खत्म हो जाने का एलान करते हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों पर राजद से जुदा होने वाले नीतीश कुमार की नई सरकार में वह कानून मंत्री शपथ ले रहे थे जिन्हें अदालत में समर्पण करना था। नीतीश कुमार के ताजा पलटमार के बाद बिहार में जाति की राजनीति की वापसी दिख रही है। जिस जाति की राजनीति को भाजपा ने हिंदुत्व की राजनीति के समीकरण से सिमटा दिया था वह फिर से भाजपा के लिए विपक्षावतार के रूप में खड़ी हो रही है। बिहार में हुआ बदलाव महाराष्ट्र से ज्यादा व्यापक है। मंडल बनाम कमंडल की राजनीति के पलटमार पर बेबाक बोल

‘आने वाले दिनों में तमाम क्षेत्रीय दल खत्म हो जाएंगे।’ भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने पिछले दिनों ये बातें बिहार की उस जमीन पर बोली थीं जहां 2014 के बाद भाजपा को अच्छी-खासी मुश्किल आती रही है। केंद्रीय नेतृत्व के जादू के बावजूद उसे जद (एकी) के साथ सरकार बनानी पड़ी। यह सब तब, जब बिहार की जनता ने राजद के रूप में अपने लिए विपक्ष का भी इंतजाम किया।

वामपंथी दल को भी पुनर्जन्म दिया। अगर जनता ने अपने लिए सत्ता के साथ विपक्ष को भी चुना तो इसे जनादेश का ही सम्मान समझना चाहिए। विपक्ष को एकदम से नकारात्मकता के खाते में डालने की रणनीति तो हर पक्ष बनाता है, लेकिन इस तरह विपक्ष-मुक्त राजनीति के एलान को लोकतांत्रिक तकाजों से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है।

विपक्ष में छटपटा कर पक्ष बन जाने की जो बेचैनी महाराष्ट्र में दिखी उसके बाद यही कहा जा रहा था कि अब अगली बारी झारखंड की हो सकती है। लेकिन, महाराष्ट्र की आग के जलों को देख कर जिसने सबसे ज्यादा फूंक-फूंक कर चलना शुरू किया, वे नीतीश कुमार ही हैं। नब्बे के दशक के बाद से जिस तरह की राजनीति शुरू हुई है उसमें नीतीश कुमार के लिए पलटूराम जैसा शब्द कह देना सबसे आसान है। लेकिन एकध्रुवीय राजनीति के माहौल में बचे रहने का जो कौशल नीतीश कुमार ने दिखाया है, उसे समझना उतना भी मुश्किल नहीं है।

नीतीश कुमार ने पिछले विधानसभा चुनाव में अपनी आंखों के सामने कभी मौसम वैज्ञानिक कहे जाने वाले रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) को अधमरा होते देखा है। देश के अलग-अलग नक्शे पर भाजपा को हरा कर सरकार बनाने वाला राजनीतिक दल जल्दी ही हार मान जा रहा है। ऐसे में अगर नीतीश कुमार थोड़ा सा पलटते नहीं, मुड़ कर देखते नहीं तो शायद उद्धव ठाकरे की तरह आधिकारिक मुख्यमंत्री आवास से अपना सामान बांध रहे होते।

बिहार की घटना मंडल बनाम कमंडल राजनीति की पलटमार

बिहार में जितनी तेजी से घटनाक्रम बदला उसका असर भी उतना ही व्यापक हुआ है। यहां महाराष्ट्र की तरह सिर्फ एक दल से दूसरे दल का सत्ता में आ जाने भर का मामला नहीं है। यह उस पूरे मंडल बनाम कमंडल राजनीति की पलटमार है जिसने पिछले तीन दशकों से हिंदी पट्टी की राजनीति की दशा और दिशा तय की है।

मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई के चश्मे से देखें तो भाजपा ने बिहार में अच्छी बढ़त बना ली थी। बिहार में अपनी जंग को सोशल इंजीनियरिंग का नाम देकर मंडल के बने रास्तों पर अपनी राह बनाने के लिए जबरदस्त विस्फोट किए। इसी सोशल इंजीनियरिंग के कारण हिंदी प्रदेश में एक बार फिर से भाजपा का वर्चस्व कायम हो पाया। अक्सर बिहार-यूपी को सहचर शब्द की तरह देखा जाता था। यानी बिहार टंकित करते ही यूपी स्वचालित तरीके से आ जाता था। उत्तर प्रदेश में तो भाजपा का परचम पूरी तरह लहरा गया और बिहार में भी वह तेजी से अपने वजूद को मजबूत करने में आगे बढ़ रही थी।

हिंदी क्षेत्र में भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग के पदार्पण के बाद पिछड़ी जाति की राजनीति की ज्यादातर जमीन छिन गई। उसने सबको हिंदुत्व के छाते के अंदर लाकर जाति की राजनीति को नकारात्मकता के खाते में डाल दिया। सत्ता में एक बार फिर से सवर्णों का वर्चस्व स्थापित हुआ लेकिन उसे जाति का रंग देने से परहेज किया गया।

राजनीति के शब्दकोश में ‘विकास’ ब्रह्मांडीय सत्य के रूप में स्थापित हो चुका था और उसे जाति निरपेक्ष चेहरा दिया गया। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ में भाजपा ने इच्छित विकास पा लिया, यह दूसरी बात है कि अभी वह राजस्थान व छत्तीसगढ़ की सत्ता में नहीं है। लेकिन, इन दोनों राज्यों की सत्ता इस भय के साथ सोती है कि पता नहीं कल का सूरज देख पाएं या नहीं।

बिहार में नीतीश कुमार राजनीति का ध्रुवतारा बन चुके थे। ध्यान से देखें तो वहां इसी सोशल इंजीनियरिंग का इस्तेमाल करके भाजपा ने नीतीश कुमार की ताकत को कम किया। नीतीश कुमार सत्ता में थे, लेकिन पूरी तरह से भाजपा पर निर्भर। जब नीतीश कुमार धीरे-धीरे टूट रहे थे, तभी सबक ले रहे थे कि अपना हाल लोजपा की तरह नहीं करना है।

जाति के आधार पर पहचान बनाने वाले नए-नवेले नेताओं को भाजपा मान-सम्मान देकर अपनी तरफ कर ले रही थी। इन सबके बीच नीतीश कुमार कश्मीर, नागरिकता संशोधन कानून से लेकर इतिहास फिर से लिखने तक की बात पर अपनी बात जोर से कह देते थे। बात निकल कर दूर तलक जाती थी और भाजपा की परेशानी बन जाती थी।

बिहार में एक दौर था जो उसे विशिष्ट बनाता है। यह लालू यादव का दौर था जहां पर राजनीति के दो ध्रुव बन जाने वाली स्थिति आ गई थी। एक तरफ सवर्ण जातियां थीं तो दूसरी तरफ पिछड़ी व अति पिछड़ी जातियों का समूह। इन सबके बीच लालू यादव का एकछत्र अधिकार था। दलित और अति पिछड़े सब एक मंच पर थे। धीरे-धीरे इसमें मुसलमान भी शामिल हो गए। जल्दी ही लालू यादव की छवि अजेय वाली हो गई। इसका संदेश दूसरे राज्यों में भी गया।

लालू यादव के ध्रुवीय वर्चस्व को तोड़ने के साथ ही भाजपा ने विपक्ष को बुरी तरह तितर-बितर किया

लालू यादव के इसी अजेयावतार के खिलाफ भाजपा ने जमीनी काम करना शुरू किया। हिंदुत्व की अवधारणा के साथ जातियों के अलग-अलग नेतृत्व को ‘अन्य’ बना कर खुद को जातिगत राजनीति के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया। लालू यादव के ध्रुवीय वर्चस्व को तोड़ने के साथ ही भाजपा ने विपक्ष को बुरी तरह तितर-बितर कर दिया। जो सवर्ण अब तक कांग्रेस के साथ थे वे भी अब भाजपा के हो गए।

राजनीतिक इतिहास के इस सार से साफ-साफ समझा जा सकता है कि भाजपा के लिए बिहार में अब पलटमार की स्थिति हो सकती है। जिनकी राजनीतिक ताकत को तोड़ा गया था अब वे फिर से उठने की कोशिश कर रहे हैं। भाजपा ने नीतीश कुमार के जरिए ही उस एकता में दरार डाला था। कुमार ने पिछड़ा, अति पिछड़ा, दलित, महादलित इतनी सारी श्रेणी बनाकर लालू यादव को कमजोर बना कर उन्हें सिर्फ यादवों और मुसलमानों तक सीमित कर दिया था।

जब नड्डा क्षेत्रीय दल के खत्म होने की बात करते हैं तो नीतिश को लगा अब वहीं से शुरू करना होगा

भाजपा की शतरंज पर नीतीश ने विपक्ष के मोहरे राजद, लोजपा को कमजोर किया। आरसीपी सिंह के घटनाक्रम के बाद उन्हें भी अपनी कमजोरी का अहसास हुआ और समझ गए कि अगला नंबर उनका है। इसके साथ ही पिछले दिनों में भाजपा के केंद्रीय नेताओं के वर्चस्ववादी दौरों के सामने वे अपने कद को और बौना पा रहे थे। इस हाल में जब नड्डा क्षेत्रीय दल के खत्म होने की बात करते हैं तो नीतिश को लगा अब वहीं से शुरू करना होगा जहां से दूसरों को कमजोर करने का काम किया था।

हैदराबाद में हुई बैठक में प्रधानमंत्री ने सत्ता के स्नेह प्रदर्शन का जो पाठ पढ़ाया था नड्डा बिहार जाते ही उसे भूल गए। किताब की अच्छी बातों का रट्टा लगाना आसान होता है, उसे अमल में लाना मुश्किल। सत्ताधारी के लिए शक्ति प्रदर्शन जितना आसान होता है स्नेह प्रदर्शन उतना ही मुश्किल। लेकिन यही शक्ति-प्रदर्शन दूसरों को भी फिर से उठने के लिए प्रेरित कर सकता है।

जहां विपक्ष-मुक्त भारत का नाम लिया जाएगा, जहां सबकी सत्ता को पूरी तरह समाप्त कर देने की राजनीति अहम हो जाएगी तो फिर से ‘जागो रे’ का नारा भी लग सकता है जिसके बारे में भाजपा को सोचना बाकी है। इसी स्तंभ में भाजपा की हैदराबाद की कार्यकारिणी परिषद की बैठक में उठे सबको साथ लेकर चलने की भाव-भंगिमा की तारीफ की गई थी। यहीं से यह भी याद दिलाना जरूरी समझते हैं कि भाजपा ने ‘जीते को जो पैगाम’ दिया था उसका एक बार पुनर्पाठ कराए।

वहीं, नीतीश कुमार को इस बात पर सतर्क रहना होगा कि अब भ्रष्टाचार के मसले पर वे भाजपा के सीधे निशाने पर होंगे। दागी कानून मंत्री, दागियों से भरा मंत्रिमंडल, आधिकारिक बैठक में सत्ताधारी के जमाई की मौजूदगी जैसा जो बुरा आगाज हुआ है इन सबके साथ नीतीश कुमार आगे अपने सुशासन कुमार वाली छवि का प्रबंधन कैसे करेंगे यह देखने की बात होगी।