क्या किसी कारोबारी समूह का शेयर बाजार से जुड़ा हिस्सा पूरा देश हो सकता है? क्या शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव में नियम कानूनों को नजरअंदाज करने का आरोप पूरे देश की साख खराब करता है? फिलहाल हमारे देश में सत्ता से लेकर विपक्ष तक की इतनी ही आर्थिक समझ बनी हुई है। शेयर बाजार अर्थव्यवस्था से जुड़ा वह हिस्सा है जहां न कोई उत्पादन का साधन है, न प्रत्यक्ष कामगार और न प्रत्यक्ष उत्पादन। सिर्फ पैसे को उठाने और गिराने का खेल है। यहां चिंता की बात उस नियामक संस्था की भूमिका है जो बाजार में जनता के हितों की पहरेदार है। अडाणी समूह और नियामक संस्था की बाजार में जिस तरह की दखलंदाजी हुई उसके उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर आरोप हैं। इस पर सरकार के पक्षकार देश को अस्थिर करने का आरोप लगा दें तो उनसे अपील है कि शेयर बाजार को समझने के लिए कोई पाठ्यक्रम करें। शेयर बाजार के मसले को पक्ष-विपक्ष जब राष्ट्रवाद का मसला बना दें तो उनसे अपील करता बेबाक बोल कि देश न तो कोई एक कंपनी है और न ही उसकी गरिमा बाजार का उठता-गिरता सूचकांक।

एक कंपनी, एक एजंसी और एक संगठन का आरोप। पहली समझ यही बनती है कि हिंडनबर्ग के आरोप इन तीनों के बीच का मामला है। हमारा सवाल यह है कि एक कंपनी पर सवाल उठते ही देश की सुरक्षा पर कैसे खतरा हो सकता है? किसी कंपनी और एजंसी पर सवाल उठना देश की साख कैसे कम कर सकता है? जहां सबसे पहले बाजार है, वहां पर सरकार अपनी तरफ से उन लोगों की अघोषित प्रवक्ता क्यों बन जाती है, जिन पर पहले भी सवाल उठे हैं। देश में सबसे बड़े मंच से लेकर छोटे मंच से दिए गए भाषणों की प्रिय पंक्ति होती है-140 करोड़ देशवासी। लेकिन, इन 140 करोड़ देशवासियों के कुछ समझने से पहले ही सरकार के पक्षकार एक खास कारोबारी समूह को पूरा देश घोषित करने पर क्यों तुल जाते हैं?

हिंडनबर्ग कोई परोपकारी संस्था नहीं है

सबसे पहली बात हिंडनबर्ग की। यह कोई परोपकारी संस्था नहीं है। इसका अस्तित्व ही बाजार के खेल से है। किसी कंपनी अ (यहां अ से …बिल्कुल नहीं है) के कारोबार के बारे में बहुत सी जानकारियां उपलब्ध हैं। हिंडनबर्ग की नजर इन्हीं दस्तावेजों पर रहती है। कंपनी ‘अ’ के दस्तावेजों की अनियमितता ही हिंडनबर्ग का फायदा है। किसी निजी कंपनी की कथित अनियमितताओं को सरकार देश का सवाल कैसे मान लेगी?

न तो इसका घाटा स्थायी है और न मुनाफा

पैसे से पैसे बनाने वाले शेयर बाजार की कोई आधारभूत संरचना नहीं होती है। न किसी जमीन पर कारखाना लगता है, न कहीं कोई कामगार हैं और न ही किसी तरह का बुनियादी उत्पादन। जो पैसा आम लोगों की जेब में सौ रुपए का है इस बाजार में उसे लाख का भाव भी दिया जा सकता है। इसलिए न तो इसका घाटा स्थायी है और न मुनाफा। आज जो बाजार में रो रहा होता है पता चला कुछ समय बाद वही सबसे बड़े फायदे में रहा। आज जिसे हम पीड़ित मान रहे हैं वह कल अपनी जेब में पैसा बरसता देख कर खुश है। बिना उत्पादन के साधनों के तेजी से पैसा बनाने का यह खेल बहुत जोखिम भरा है। बाजार का एक हिस्सा ही इसे गढ़ता है और दूसरा हिस्सा इसे गिराता है। पैसे को उठाने और गिराने के इस खेल से भी अगर सरकार राष्ट्रवाद को जोड़ देगी फिर तो राष्ट्र की अवधारणा पर ही सवाल उठ जाएंगे।

मुश्किल तब होती है जब बाजार के इस खेल में ऐसे लोग भी जुड़े रहे हों जो बाजार के नियामक हों। इसे समझने के लिए मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है से सटीक मिसाल कोई नहीं हो सकती। भारतीय बाजार की नियामक संस्था भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) की अध्यक्ष माधवी बुच पर इसी तरह के आरोप हैं कि बाजार नियामक की अध्यक्ष बनने के पहले वे ऐसी ही कंपनियों की भागीदार रही हैं।

18 महीने पहले जब अडाणी समूह पर आरोप लगे थे तो सुप्रीम कोर्ट के पैनल ने जांच का जिम्मा सेबी को सौंपा था। सेबी का कहना था कि कुछ संदिग्ध गड़बड़ियां हैं, लेकिन संदिग्ध गतिविधियों का पता नियामक संस्था नहीं लगा पाई। अठारह महीने बाद जब हिंडनबर्ग हेराफेरी-द्वितीय को सामने लाया तो जो बातें सामने आ रही हैं उससे नियामक संस्था की साख पर सवाल है।

अभी तक सबसे आपत्तिजनक आरोप यह है कि सेबी प्रमुख जिन पर आरोप लगे थे, जांच प्रक्रिया में वे भी शामिल थीं। यह तो साफ है कि सेबी प्रमुख बनने के पहले उन्होंने उन कंपनियों से अपनी भागीदारी हटाई जो कमाई का स्वर्ग बनी हुई थीं। आर्थिक रूप से यह एक पेचीदा मामला है जिसमें सही-गलत का फैसला किसी राष्ट्रवादी नजरिये से नहीं किया जा सकता।

अडाणी समूह पर आरोप की पहली किश्त के वक्त भाजपा सरकार मजबूत स्थिति में थी और उसने परिपक्वता दिखाते हुए बाजार के इस मसले को बाजार पर ही छोड़ दिया। तब कमजोर विपक्ष के हंगामे को भाजपा सरकार तवज्जो के लायक भी नहीं समझती थी। हिंडनबर्ग-द्वितीय का आरोप सामने आते ही जिस तरह सरकार के प्रवक्ता इसे अंतरराष्ट्रीय साजिश बता कर विपक्ष के सवाल से ज्यादा जवाब देने लगे उसके बाद सेबी को लेकर वही चिंता सामने आ गई है जो सरकार से जुड़ी अन्य संस्थाओं को लेकर लंबे समय से हो रही है।

जब आप अंतरराष्ट्रीय बाजार का हिस्सा बनते हैं तो आपकी गतिविधियों पर अंतरराष्ट्रीय एजंसियों की नजर भी होगी। जब आप अपनी देश की सीमा से बाहर निकल कर पैसे कमाते हैं, सुविधाजनक कानूनों की सुविधा लेते हैं तो फिर देश की सीमा से बाहर से आए आरोपों को तुरंत साजिश कहना और इसे लेकर सवाल पूछने वालों को देश को अस्थिर करने वाला बताना कहां तक जायज है?

हर्षद मेहता, केतन पारिख जैसे नाम इसी देश की धरती के हैं और यहीं के लोगों का पैसा डूबा था। हर्षद मेहता के कांड ने बाजार के कारोबार को कितना नुकसान पहुंचाया था, आम लोग किस तरह शेयर बाजार के नाम से ही डरने लगे थे, कोई बहुत पीछे की बात नहीं है। शेयर बाजार से जुड़े इस तरह के आर्थिक हादसे के बाद पहली जरूरत यह होती है कि सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष जिम्मेदाराना रवैया अख्तियार करे।

नियामक संस्था प्रमुख व अडाणी समूह पर हिंडनबर्ग का आरोप लगते ही सत्ता के प्रवक्ताओं ने जिस तरह देश को अस्थिर करने वाला बयान देना शुरू कर दिया उनसे अपील है कि देश को इतना कमजोर मत समझिए कि एक आरोप का झोंका उसे अस्थिर कर देगा। अस्थिरता आती है आरोपों को नकारने से, आरोपों से जुड़े विपक्ष और मीडिया के सवालों को तुच्छ समझने से। जब देश के सम्मानित नागरिक विदेश में कर बचाने, पैसा कमाने जाते हैं तो उसे देश के खिलाफ नहीं माना जाता है तो उससे जुड़ी अनियमितताओं पर संवाद देश के खिलाफ कैसे हो सकता है?

शेयर बाजार देश की सरहदों तक महदूद नहीं है। अंतरराष्ट्रीय गतिविधियां इसे उठा भी सकती हैं और गिरा भी सकती हैं। हमारे राजनेताओं की समझ तो इतनी है कि जब सत्ता में रहेंगे तो शेयर बाजार को जनता के हित का समझेंगे और विपक्ष में जाते ही उसे खलनायक की तरह देखने लगेंगे। खास कर कारोबारी शख्सियतों को भी सरकार बदलते ही अपने कंधों पर नायक व खलनायक का बिल्ला बारी-बारी से लगाना पड़ता है। हिंडनबर्ग के पहले आरोप के दौर में अडाणी-सेबी पर पक्ष व विपक्ष की तू-तू, मैं-मैं के बीच उन निवेशकों को याद कीजिए जिन्होंने भारत की सबसे भरोसेमंद संस्था एलआइसी में पैसे लगाए थे। बाजार को जब स्थिर होना था हो गया, लेकिन पक्ष-विपक्ष की अगंभीर तकरार में निवेशकों की तात्कालिक मानसिक स्थिति त्राहिमाम की थी।

पिछले लंबे समय से भारतीय राजनीति में पक्ष व विपक्ष एक-दूसरे को दुश्मन की तरह देखने लगे हैं। किसी भी तरह का कोई मुद्दा राजनीतिक अराजकता में बदलता दिख जाता है। इसमें भी बाजार से जुड़ा मुद्दा आ जाए तो जनता का बाजार में भरोसा लौटाने की बजाय पहली कोशिश यह होती है कि इस मौके पर अपने विपक्षी का जनता के बीच भरोसा कैसे कम किया जाए।

हिंडनबर्ग के लगाए आरोप आर्थिक अराजकता का उदाहरण है कि नहीं यह तो पूरी जांच के बाद सामने आएगा। लेकिन, जनता से जुड़े ऐसे अहम मसले पर पक्ष-विपक्ष का रवैया देख कर यह महसूस हो रहा है कि देश एक तरह की राजनीतिक अराजकता से गुजर रहा है। शेयर बाजार का सूचकांक कितना संवेदनशील मामला बन चुका है यह समझने के बजाय वे विपक्ष पर जनता के भरोसे का सूचकांक गिरते हुए देखना चाहते हैं।

आर्थिक ध्रुवीकरण के इस युग में सत्ता हर सवाल को कट्टर राष्ट्रवादी नजरिए से देखने से परहेज करे तो विपक्ष भी यह जिम्मेदारी समझे कि व्यवस्था पर जनता का भरोसा बनाए रखना उसकी भी जिम्मेदारी है। साथ ही सरकार के पक्षकारों से अपील है कि हर आरोप का जवाब जार्ज सेरोस ही है तो उन्हीं का कुछ कर लीजिए, पर इस नाम के ‘कापी-पेस्ट’ से तो हर किसी को अब ऊब है।