आम आदमी की पोषक खुराक में गुमशुदा होने वाली चीजों में ईसबगोल का नाम भी जुड़ रहा है। आज से तीन महीने पहले जितनी मात्रा 225 रुपए में मिल रही थी अब 350 में मिल रही है। पहले आम लोग ईसबगोल जैसे पोषक आहार को भरपूर खा लेते थे अब उसे प्रसाद की तरह थोड़ा-थोड़ा खाने के लिए मजबूर हो रहे हैं। केंद्र सरकार देश में उत्पादित होने वाले 93 फीसद ईसबगोल का निर्यात कर दे रही है जिसका सबसे बड़ा खरीददार अमेरिका है। आयात-निर्यात के इस फायदेमंद गुलाबी व्यापार में आम जनता का चेहरा पीला पड़ रहा है। सरकार जब व्यापार करने निकलती है तब कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पलीता लगता है। इन दिनों सरकार सबसे ज्यादा खुश जीएसटी के आंकड़ों को सार्वजनिक करने में दिखती है। वित्त मंत्रालय जब जीएसटी से भरे खजाने के बारे में बताता है तो जनता अपनी थाली से गुम खाने के बारे में सोचती है। सरकारी खजाना बनाम आम लोगों के गुम हो रहे खाने पर बेबाक बोल।
गैरों पे करम अपनों पे सितम,
ऐ जान-ए-वफा ये जुल्म न कर
रहने दे अभी थोड़ा सा भरम,
ऐ जान-ए-वफा ये जुल्म न कर
-साहिर लुधियानवी
साहिर के गीतों की खासियत यह है कि अगर प्रेमी से की गई शिकायत को सरकार की तरफ मोड़ दें तो फरियाद बिल्कुल सही जगह पर पहुंचती सी लगती है। हां, वही सरकार जिसने आते ही दिलासा दिया था कि व्यापार करना उसका काम नहीं है। लेकिन, फिल्म ‘आंखें’ के ये बोल सरकार से गुजारिश कर रहे हैं कि आप अपनी कही बातों का कम से कम भ्रम तो बना रहने दीजिए। यह बात ठीक है कि दयानतदारी घर से शुरू होती है, लेकिन कुछ दया तो घरवालों पर भी कीजिए।
लोगों की शिकायत है कि सरकार को व्यापार का चस्का
आज आम लोगों की शिकायत है कि सरकार को व्यापार का चस्का लग गया है। इसके ताजा भुक्तभोगी हिंदुस्तानी घरों के ईसबगोल के उपभोक्ता हैं। कोरोना के साथ ही तो महिमामंडन हुआ था हमारे देसी खाने का। ऐसे ही महाखाद्य में गिना जाता है ईसबगोल। शरीर के पाचन के लिए जरूरी फाइबर का सबसे बड़ा स्रोत। संस्कृत में इसे ‘स्निग्धबीजम्’ कहा गया है तो इसकी सांस्कृतिक महत्ता को ही समझ लीजिए।
घरों में ईसबगोल तो वही नानी-दादी का नुस्खा है
हमारे घरों में ईसबगोल तो वही नानी-दादी का नुस्खा है जिसे इन दिनों केंद्रीय नेता से लेकर अभिनेता तक सुनाते रहते हैं कि अपनी देसी चीजों के लिए ‘गदर-एक’ से ‘गदर-दो’ तक मचा दो। ये अमेरिकी पिज्जा, पास्ता (मूल रूप से इतालवी लेकिन अमेरिकी संस्कृति को दुश्मन करार देने का अपना सुख होता है) खा कर हम राष्ट्रवादी नहीं बन सकते हैं। तो, ऐसे ही देसी खाना खाओ के गदर में खबर ये फैली कि ईसबगोल बाजार से गायब है। स्वास्थ्य को लेकर सचेत लोग परेशान हुए। परचून की दुकान से लेकर दवाओं की दुकान से लेकर शापिंग माल तक खोज आए, लेकिन ईसबगोल हर जगह से गायब था।
ईसबगोल के कट्टर उपभोक्ताओं को जब तक कारण पता चला तब तक उनका यह औषधियुक्त खाद्य अमेरिका सहित दूसरे देशों तक पहुंच चुका था। जी, ईसबगोल अमेरिका व अन्य देशों में निर्यात किया जा रहा है। सरकार के खजाने में निर्यात शुल्क भी, विदेशी मुद्रा भी और कीमत बढ़ने से बढ़ी जीएसटी भी। यानी दोहरे से तिहरे मुनाफे की ओर बढ़ते कदम।
ईसबगोल निर्यात करने से सरकार का मुनाफा लगभग तिगुना बढ़ा
ईसबगोल निर्यात करने से सरकार का मुनाफा लगभग तिगुना बढ़ रहा है तो घरेलू बाजार में कम कमाई करना बेवकूफी ही होगी। हम अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों के लोगों की सेहत ठीक कर रहे हैं यह गर्व करने का मौका अलग से मिलेगा। किसी अमेरिकी को ईसबगोल खाते हुए देख कर हम उसे वाट्सऐप पर एक सौ एक लोगों को शेयर करने का अनुरोध करेंगे ताकि हमारी महानता का पता चल सके। हो सकता है कि किसी पंचायत चुनाव में कोई स्थानीय नेता जो बाइडेन, डोनाल्ड ट्रंप व बराक ओबामा के एक साथ ईसबगोल खाने वाली तस्वीर व होर्डिंग लगा कर भारतीय गांव की जनता से वोट मांग ले जाए।
विदेशी निर्यात से कमाऊ संतान बनकर जब ईसबगोल देसी बाजार में वापस लौटा तो उसकी सज-धज किसी ‘गुरमे’ (उच्च गुणवत्ता श्रेणी वाले खाद्य पदार्थों के लिए इन दिनों चलन में आया शब्द) उत्पाद से कम नहीं है। अब इसके आधा किलो वगैरह का डब्बा भूल जाइये। वैसे ईसबगोल है तो पेट की सेहत के लिए लेकिन उपभोक्ताओं के दिल और दिमाग की सेहत का ध्यान रख कर इसके आधा किलो के पैकेट को आम दुकानों से गायब कर दिया गया है। अब आधा किलो के पैकेट की कीमत देख कर आपके दिमाग को सदमा लग सकता है या सीने में दर्द भी हो सकता है। आम लोगों को लगने लगे कि अगर परिवार में सब ये नए छुटकू पैकेट वाले ईसबगोल के प्रेमी हो गए तो इसे खरीदने के लिए कहीं भविष्य निधि खाते से पैसे न निकालने पड़ जाएं। या किसी आनलाइन मंच से मासिक किस्त पर न लेना पड़े।
महंगे ईसबगोल के सदमे से उपभोक्ताओं को बचाने के लिए उसका पाउच भी आ गया है। वस्तुओं का जितना छोटा पैकेट होगा उपभोक्ताओं की जेब पर उतना ही ज्यादा असर होगा। पहले आप ईसबगोल का आधा किलो का डिब्बा ले लेते थे तो उस पर सभी तरह के शुल्क एक साथ देते थे। अब अगर आप घर के बजट को ध्यान में रख कर पाउच या पचास ग्राम का डिब्बा लेंगे तो सरकार के बजट में इजाफा होगा और आपकी पोषण की खुराक और कम होगी।
पिछले दिनों कश्मीर से इस बात पर नाराजगी जताई गई कि केंद्र सरकार ने अमेरिका से आयात होने वाले सेब पर लगने वाले बीस फीसद सीमा शुल्क को हटाने का फैसला किया है। अब इसका असर जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड के सेब उत्पादकों पर तो पड़ेगा ही साथ ही वे लोग और परेशान होंगे जो अब ईसबगोल का पाउच खरीदने पर मजबूर हो रहे हैं।
जिस देश में सरकारें दावा करती हैं कि उसकी इतनी बड़ी जनसंख्या को मुफ्त राशन दिया जा रहा है तो जाहिर सी बात है उस जनता की पहुंच सेब तक नहीं ही होगी। मुफ्त राशन वाले से थोड़ी ऊपर की आय वाली जनता भी जो बीमारी या व्रत-त्योहारों में ही सेब खरीदती थी, उसे इस बात की चिंता सताएगी कि नवरात्र के नौ दिनों में सेब कैसे खाएंगे।
पहले मोहल्ले के जिन साप्ताहिक बाजारों में अच्छी गुणवत्ता के सेब जेब के वहन करने लायक कीमत में मिल जाते थे, अब वहां की रेहड़ियों पर ऐसे छोटे-छोटे सेब रखे रहते हैं जिन्हें देख कर लगता है कि ये खुद ही बीमार हैं। आम लोग अगर अपनी जेब के हिसाब से थोड़े सस्ते अनार खोज कर खरीद भी लाते हैं तो काटने के बाद लगता है कि अनार के दानों को ही खून की कमी है, ये क्या शरीर में खून का इजाफा करेंगे। एक बीमार सौ अनार भी खा लेगा तो कोई फायदा नहीं होेने वाला। ‘फलाहार’ जो तीज-त्योहारों में भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है वह अब कमजोर आय वालों की जेब पर भारी पड़ रहा है।
जीएसटी के आंकड़ों का साझा करने में वित्त मंत्री जता रहीं खुशी
इन दिनों वित्त मंत्रालय की मुखिया और इस विभाग से जुड़े अन्य लोग मीडिया से खुश-खुश मुखातिब होते हैं तो वह मौका होता है जीएसटी के आंकड़ों को साझा करने का। सरकार गर्व से कहती है कि देखिए हमने कितनी कमाई कर ली। इस बार कर-संग्रह से हमारा खजाना इतना भर गया है। जीएसटी की कमाई से अर्थव्यवस्था का इतना गुलाबी चेहरा पेश किया जाता है कि पोषक तत्त्वों से दूर हुई जनता के जर्द पीले पड़े चेहरों की बात ही नहीं की जाती है। सरकार और व्यापार में फर्क करना मुश्किल हो जाता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के शब्दकोश में जीएसटी का दोहरा शब्दार्थ है। सरकारी शब्दकोश में इसका अर्थ देखेंगे तो दिवाली है और जनता के शब्दकोश में देखेंगे तो दिवाला है। सन्नी देओल का मशहूर संवाद तारीख पे तारीख पे तारीख अब टैक्स पर टैक्स पर टैक्स में तब्दील हो चुका है। बेकरी की दुकान से अगर आप एक केक लेते हैं तो उसके कंप्यूटर जनित बिल पर ‘करनामा’ देख कर लगेगा कि आपने अपने बच्चे के जन्मदिन पर केंद्र और राज्य सरकार दोनों को एक साथ आमंत्रित कर लिया है। दोनों सरकारें उपहार देने के बजाय आपके घर में खुशी के एवज में वापसी उपहार मांगती सी दिखती हैं। बिल देख कर आपकी इच्छा होगी कि जन्मदिन मुबारक व अपने बच्चे का नाम लिखने के बजाए कमाई मुबारक सरकार द्वय जी लिखवा दें।
आज जब आम घरों से ईसबगोल भी या तो अलविदा कह रहा या लघु अवतार में आ रहा तो लोगों को लग रहा कि सरकार को व्यापार नहीं करना चाहिए। वित्त मंत्रालय के जिम्मेदार गल्ले पर बैठे लोग नहीं दिखने चाहिए जो बही-खाते में मुनाफे को खोजते रहते हैं। जनता तो वो दिन याद कर रही जब वो दुकानदार से कहती थी अरे, उस गली के दुकान वाले तो यह तेल इतने में दे रहे हैं तो दुकानदार कहता कि चलिए मैं आपको पांच रुपए और कम कर देता हूं। अब कम की तो बात छोड़िए। जिस मिठाई को दुकान के शीशे में आपने जिस कीमत में लिखा देखा होता है, आपका दिल धड़कता रहता है कि कंप्यूटर से निकला उसका बिल कहीं मुंह का स्वाद कड़वा न कर दे। सरकार और उसके व्यापार के बीच जनता कह रही-हमरा तो सब गोल।