छवि प्रबंधन के तहत राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा व कांग्रेस के सांगठनिक चुनाव की कवायद साथ शुरू हुई। राहुल गांधी ने संकेत दिया कि वे अध्यक्ष पद की दावेदारी में नहीं हैं। लेकिन, छवि प्रबंधन को धता बताते हुए राजस्थान में कांग्रेस का असली चेहरा सामने आ गया कि सत्ता के अलावा किसी और चीज की फिक्र नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष चुनने की कवायद राजस्थान सरकार में अगुआई के संकट को लेकर आ गई। विपक्ष के अगुआ का तमगा हासिल करने की कोशिश करने निकली कांग्रेस के सामने वह भाजपा है जिसके साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मजबूत सांगठनिक ढांचा है, जहां कार्यकर्ता व सत्ता के ढांचे में कोई दृश्यगत टकराव नहीं है। छवि प्रबंधन थोड़ी देर तक तो आपको जनता की नजरों में ला सकता है, लेकिन बिना सांगठनिक ढांचे के जनतंत्र में नहीं टिका जा सकता। कांग्रेस के आंतरिक ढांचे की दुर्दशा पर पेश है बेबाक बोल।

इतिहास खुद को दोहराता है। लेकिन, इतिहास के एक समय में बने ऐतिहासिक किरदार इस नियम से आंखें चुराते हैं। वे सोचते हैं कि इस नियम को पलट कर इतिहास बदलेंगे। इस समय सोशल मीडिया पर कांग्रेस विधायक दिव्या मदेरणा का बयान चर्चा में है। दिव्या मदेरणा ने अशोक गहलोत को 1998 का वह समय याद दिलाया है, जब राजस्थान विधानसभा में बहुमत से आई कांग्रेस सरकार का अगुआ बनने के लिए परसराम मदेरणा का नाम सबसे आगे चल रहा था। लेकिन, आलाकमान से आई पर्ची में अशोक गहलोत का नाम लिखा था। अब जब अशोक गहलोत की जगह दूसरे के नाम की पर्ची आने का समय आया तो गहलोत कुर्सी का मोह छोड़ने को तैयार नहीं हुए।

कांग्रेस के सांगठनिक ढांचे के चुनाव का एलान होते ही जिन गहलोत का नाम कांग्रेस के अगले अध्यक्ष के रूप में लिया जाने लगा, उन्होंने उस जिम्मेदारी को शायद हेय मानते हुए मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर चिपके रहने की ठानी। फिलहाल, वे दोनों ही पदों से दूर दिख रहे हैं। एक व्यक्ति एक पद को, मजबूरी का नाम राहुल गांधी साबित करने की कोशिश करने वाले गहलोत एक व्यक्ति कोई पद नहीं को स्वीकारने वाले हालात में पहुंचते दिख रहे हैं।

राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में अशोक गहलोत का पदार्पण किसी ‘जादूगर’ की तरह नहीं हुआ था। तब भी कांग्रेस का दिल्ली दरबार ही बाजीगर की तरह जीती बाजी की डोर अपने हाथ में रखे हुए था। लंबे समय से चल रहे राजनीतिक घटनाक्रम के बीच अशोक गहलोत द्वारा अपनी कुर्सी सुरक्षित बनाए रखने के कारण राजस्थान की राजनीति में उन्हें ‘जादूगर’ कहा जाने लगा। फिलहाल तो कांग्रेस में एक ही जादू दिखता है, जिसके कारण कुछ लोग अब भी इससे जुड़े हुए हैं। और, वह जादू है सत्ता की मलाई।

राजस्थान का मामला इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि कांग्रेस में सांगठनिक ढांचे जैसी कोई चीज नहीं बची है। पार्टी का पूरा आंतरिक तंत्र दिशाहीन है। नेताओं का भाव से लेकर अभाव तक सत्ता से ही जाकर जुड़ता है। सांगठनिक जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है। इसके पहले पार्टी छोड़ने वाले गुलाम नबी आजाद जैसे वरिष्ठ नेताओं ने भी सांगठनिक जिम्मेदारी को हाथ जोड़ कर नमस्ते कर दिया।

गुलाम नबी आजाद को लगा कि कांग्रेस के अंदर रह कर सांगठनिक जिम्मेदारी निभाने से बेहतर है कि अपनी पार्टी बना ली जाए, और वहां मेहनत की जाए। कांग्रेस अध्यक्ष पद की दावेदारी आने के बाद अशोक गहलोत ने यही साबित किया कि उनके लिए यही अहम है कि सत्ता में मैं हूं या नहीं। अगर नहीं तो फिर उस पार्टी के सांगठनिक ढांचे का हिस्सा क्यों बनना जिसका आगे कोई निश्चित भविष्य नहीं दिख रहा है। आप जब तक मुख्यमंत्री हैं, तब तक तो अपने राज्य में सत्ता का सुख भोग सकते हैं, भले देश भर में कांग्रेस का नाश हो रहा हो।

कांग्रेस पर भ्रष्टाचार के अलावा परिवारवादी पार्टी होने का ऐसा दाग लगा जो किसी भी तरह से धुलने को तैयार नहीं था। चुनाव कोई भी हो सवाल कांग्रेस के परिवारवाद पर उठ रहा था। इस आरोप से बेदाग होने की ख्वाहिश में राहुल गांधी ने चुनावी हार की जिम्मेदारी लेते हुए कांग्रेस अध्यक्ष-पद से इस्तीफा दिया और एलान किया कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य अध्यक्ष पद के लिए आगे नहीं आएगा।

लोकतांत्रिक देशों की यही खूबसूरती है कि यहां सब कुछ पटकथा की तरह नहीं होता। कहीं से भी कहानी अप्रत्याशित मोड़ ले लेती है। राहुल गांधी अपने छवि प्रबंधन पर मेहनत कर रहे हैं और उन्हें उम्मीद थी कि कांग्रेस-अध्यक्ष पद का चुनाव उनका चेहरा चमका देगा। यहां भी धारा विपरीत दिशा में मुड़ गई। राजस्थान के कारण उनकी छवि और मुश्किल में पड़ गई है। मध्यप्रदेश गया, पंजाब गया तो उन पर राजस्थान को भी गंवा देने जैसे हालात पैदा करने के आरोप लग रहे हैं।

यह सवाल पहले भी उठ चुके थे कि चुनाव के पहले यह कैसे पुख्ता हो गया कि अशोक गहलोत ही अगले कांग्रेस-अध्यक्ष बनेंगे और यह भी मान लिया गया कि वे हाथ जोड़ कर मुख्यमंत्री का पद छोड़ देंगे। आप लोकतंत्र और नैतिकता को लेकर चुनिंदा नहीं हो सकते हैं कि फलां जगह ऐसा करेंगे तो दूसरी जगह उसके विपरीत। आप दिल्ली से पर्ची में सचिन पायलट का नाम लिख कर नहीं भेज सकते हैं कि बहुत हुआ लोकतंत्र अब वही पुराना लिफाफातंत्र। अशोक गहलोत पर तो आरोप लगने लगे थे कि वे गांधी परिवार के कठपुतली अध्यक्ष होंगे। लेकिन, गहलोत ने पहले ही कठपुतली बनने से इनकार कर दिया तो उसकी वजह भी आपकी गलत रणनीति है।

देश की राजनीति में अभी सबसे बड़ी जंग विपक्ष के अगुआ का तमगा हासिल करने की है। कांग्रेस यह संदेश देती रही है कि उसके बिना किसी संयुक्त मोर्चे की बात हो ही नहीं सकती और तीसरा मोर्चा (गैर भाजपा-गैर कांग्रेसी) तो अब बिलकुल अप्रासंगिक हो गया है। चाहे नीतीश कुमार हों या ममता बनर्जी या फिर अरविंद केजरीवाल, अभी तक ये चेहरे विपक्ष के नाम पर कांग्रेस के बिना अधूरे रहेंगे। इसी अगुआई के सवाल पर अपनी दावेदारी मजबूत करते हुए राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो’ यात्रा शुरू की। और, यह सब वह नैतिकता की चादर ओढ़ते हुए करना चाहते हैं कि हम सत्ता के भूखे नहीं हैं, देश बचाने निकले हैं।

‘भारत जोड़ो’ यात्रा व कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव जैसे छवि प्रबंधन के बीच राजस्थान में कांग्रेस का असली चेहरा सामने आ जाता है। कांग्रेस में राजनीति का सीधा-सीधा मतलब है सरकार और उसमें सीधी भागीदारी। राजस्थान में जो हो रहा है, वह किसी अशोक गहलोत और सचिन पायलट की संज्ञा नहीं है, यह चरित्र कांग्रेस का सर्वनाम है। यह सर्वनाम छत्तीसगढ़ में अलग-अलग संज्ञा के साथ बताते रहता है कि हमारा राजनीतिक व्याकरण सत्ता में भागीदारी के साथ शुरू होकर वहीं खत्म हो जाता है। इसे किसी एक व्यक्ति या परिवार की नैतिकता से जोड़ना सही नहीं होगा क्योंकि यह कांग्रेस का आंतरिक चरित्र बन चुका है। ‘हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे’ का मुहावरा कांग्रेसियों ने आधिकारिक रूप से अपने लिए सुरक्षित रख लिया है। इस मुहावरे को कांग्रेसी इतनी बार आजमाते दिखते हैं कि इस पर पार्टी की आधिकारिक मुहर सी दिखती है।

विचारधारा और संगठन के मामले में पूरी तरह से गौण कांग्रेस नैतिकता को लेकर ज्यादा देर मुखर रह ही नहीं सकती है। उसे डुबाने कोई क्या आएगा जो खुद ही डूबने के लिए अभिशप्त है। ऐसी हालत में पार्टी द्वारा प्रजातांत्रिक उदारवादी का मुखौटा ओढ़ना कितना कामयाब होगा यह आगे देखने की बात होगी। बच्चों-बुजुर्गों, औरतों, हाशिये के वर्ग के लोगों को गले लगाने की राहुल गांधी की तस्वीरें उनकी छवि का कैसा प्रबंधन कर पाती हैं, यह हम अभी नहीं कह सकते। लेकिन, कांग्रेस में आंतरिक चुनाव का अध्याय अभी से जैसी दुर्दशा दिखा गया, आगे की तस्वीर को लेकर क्या उम्मीद जताई जाए।