महाभारत की कथा में एक चरित्र राजा पौंड्रक का है। शंख, मोरपंख, कौस्तुभ मणि जैसी चीजों से सज कर वह खुद को असली कृष्ण बताता है। राजा पौंड्रक से फायदा उठाने वाले लोग उसे इस बात का अहसास करवाते हैं कि वही असली श्रीकृष्ण है। राजा पौंड्रक जब सारी सीमाओं का अतिक्रमण कर लेता है तो श्रीकृष्ण के हाथों मारा जाता है। आज के समय में टीवी एंकर के रूप में सरकारी गदाधारी बनी ‘एंकारिता’, ऐसा ही व्यवहार कर रही है। वह खबर रूपी सुदर्शन चक्र हाथ में रख कर दिखाने की कोशिश करती है कि वही असली पत्रकारिता है। लेकिन, इस ‘एंकारिता’ को मारने के लिए श्रीकृष्ण की जरूरत नहीं होती है। इन्हें तो काम खत्म होते ही उसी सरकार के प्रवक्ता मार देते हैं जिनके लिए ये गदाधारी का रूप धरते हैं। इनका इस्तेमाल कागज के नैपकिन की तरह सिर्फ एक बार होता है, उसके बाद इनकी जगह इतिहास के कचरे के डिब्बे में होती है। पत्रकारिता के वेश में बहुरुपिया ‘एंकारिता’ पर बेबाक बोल।
शर्मा के मुंह न फेर नजर के सवाल पर
लाती है ऐसे मोड़ पर किस्मत कभी कभी
-साहिर लुधियानवी
शुरुआत गाने की पंक्तियों से है क्योंकि हालात ए हाजरा पर तबसरे के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। आपको कैसा लगा था जब आप जेल गए थे? केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के इस सवाल के बाद ‘एंकर’ सुधीर चौधरी का चेहरा जैसा ‘स्याह-सफेद’ हुआ था, उसके बाद बने दृश्य में एक कमी थी। कायदे से इस दृश्य को स्मृति ईरानी अभिनीत और एकता कपूर मार्का धारावाहिक की धुन के साथ दिखाना चाहिए था। सुधीर चौधरी की तस्वीर को ‘स्याह-सफेद’ कर तीन बार क्या-क्या-क्या पूछना चाहिए था, स्वर्ग में नाचती अप्सराओं के पांव थम जाने और इंद्र का सिंहासन डोलता हुआ दिखाया जाना चाहिए था। साथ ही सप्तऋषियों के साथ अवतरित होकर नारद मुनि नारायण-नारायण करते हुए पूछते-अब तेरा क्या होगा एंकारिता।
पहले समाचार उद्घोषक और पत्रकार के बीच एक सीमारेखा होती थी
‘एंकर’ सुधीर चौधरी और स्मृति ईरानी के साक्षात्कार के वायरल वीडियो ने एक बार फिर उस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को सामने ला दिया, जब हमें बार-बार याद करवाया जाता है कि हर पेशे की एक सीमारेखा होती है, और उसे किसी को लांघना नहीं चाहिए। जब दूरदर्शन के साथ हमने टेलीविजन पर समाचार देखना शुरू किया था, तब समाचार पढ़ने वाले को समाचार उद्घोषक कहा जाता था। वे पत्रकारिता और दर्शक के बीच की कड़ी थे। हालांकि उनके नाम के साथ पत्रकार नहीं जुड़ा था, लेकिन समाचार पढ़ते वक्त उन्होंने हमेशा पत्रकारिता का मान रखा।
उद्घोषकों के बाद पत्रकार और प्रस्तुतकर्ता के जोड़ को एंकारिता कहा जाए
खबर को खबर की तरह पढ़ा न कि तेरे समय में ऐसा तो इस समय में ऐसा क्यों वाली गड़बड़ के साथ। तब खबर और तथ्यों के बीच उद्घोषक विपक्ष की पेशी नहीं करवा देते थे कि सत्ता पक्ष को काम क्यों नहीं करने देते, सरकार पर सवाल क्यों उठाते हो। उद्घोषकों के बाद पत्रकार और प्रस्तुतकर्ता के जोड़ ने जिस ‘एंकर’ को पत्रकारिता का पर्याय बना दिया आज वह अपने भयावह मोड़ पर है। पत्रकारिता जैसी पवित्र विधा में आस्था बरकरार रखते हुए हम इनके लिए नए नाम ‘एंकारिता’ की सिफारिश करते हैं।
‘एंकारिता’ खुद को किसी भी तरह की सीमारेखा से परे मान लिया है
‘एंकारिता’ की खासियत है कि इसने खुद को किसी भी तरह की सीमारेखा से परे मान लिया है। जब इनका मन करेगा अपनी सीमा लांघ कर दूसरी तरफ जाकर बोलना शुरू कर देंगे। शायद इन्हें अपनी सीमारेखा का अंदाजा इसलिए नहीं हो पाता कि ये सत्ता के ध्रुव की तरफ झुक कर घूर्णन करते हैं। सत्ता की धुरी पर घूर्णन करते हुए इन्हें वह सीमा दिखनी बंद हो जाती है जहां इन्हें रुकना है।
‘एंकारिता’ के पूछे नर्म, मुलायम सवालों के बाद सारी बहस का केंद्र सत्ता का प्रवक्ता हो जाएगा। ऐसी बहस की खास बात होती है कि सभी चैनलों की ‘एंकारिता’ पर सारे प्रवक्ता एक जैसी बात दोहराते मिलेंगे। मान लीजिए, सवाल पूछा गया कि सरकार ने कहा था कि विदेशों से काला धन लेकर वापस लौटाएंगे और हर भारतीय नागरिक के खाते में 15 लाख आएंगे तो उनका क्या हुआ? इसके जवाब में प्रवक्ता सारी जनकल्याणकारी योजनाओं के खर्च का औसत निकाल कर हर नागरिक के खाते में 15 लाख डालने की बात कह देंगे।
इनकी दूसरी विशेषता यह है कि अगर सरकारी पक्ष का कोई प्रवक्ता होगा तो स्निग्ध मुस्कान के साथ उनके मतलब का सवाल पूछते हुए एलान सा कर देंगे कि जो तुमको पसंद हो वही बात करेंगे, विपक्ष पर हर पलटवार करेंगे। सत्ता के प्रवक्ता के सामने सवाल पूछने का अंदाज ऐसा होगा कि आम के सवाल का जवाब अगर ईमली भी मिला तो उसे लोकतंत्र की मिसाल बता देंगे। ये उस वृहत्तर दायरे में रह ही नहीं सकते जिसे पत्रकारिता कहते हैं।
मजाल है कि किसी और चैनल पर किसी और प्रवक्ता के आंकड़ों में कोई हेर-फेर हो। ऐसी एक समान कुदरती बौद्धिकता को देख कर तो कृत्रिम बौद्धिकता भी हार मान लेगी। लेकिन ‘एंकारिता’ गुणक सवाल में यह पूछने की हिम्मत नहीं उठाएगी कि ये पैसे तो जनता की विशुद्ध सफेद कमाई से आ रहे हैं, आप तो यह बताइए कि कालेधन का क्या हुआ?
तीसरी, विशेषता, जब ‘एंकारिता’ खुद को पत्रकारिता जैसा दिखाने की कोशिश करे। इसके लिए वह लक्ष्य चुनती है विपक्ष को। विपक्ष के बरक्स ‘एंकारिता’ का स्वर इतना ऊंचा हो जाएगा कि घर में चैनल देख रहे दर्शकों पर टीवी बंद कर कुछ सही चीज देखने-सुनने का दबाव बन जाएगा। बुजुर्ग रिमोट छीन कर किसी भजन चैनल पर लगा देंगे या फिर बच्चे कार्टून नेटवर्क पर। और, समाचार चैनल के दर्शक की खबर देख-सुन कर सजग नागरिक बनने की सदिच्छा ‘एंकारिता’ के हाथों पूरी तरह मार दी जाएगी।
भारतीय शिक्षण प्रणाली में प्रश्न को ईश्वर के करीब माना गया है। वेदों-उपनिषदों की नींव में प्रश्न ही हैं। प्रश्नकर्ता तो मंदिर की गर्भगृह की तरह होते हैं। इस गर्भ-गृह तक सबकी पहुंच नहीं होती है। जो इसके लिए अधिकृत है वही इस तक पहुंच सकता है। पत्रकारिता में सवाल इसी गर्भ-गृह की तरह हैं, जहां सत्ता और विपक्ष किसी की भी पहुंच नहीं होनी चाहिए। प्रश्न को शिव की तरह सत्य और सुंदर माना गया है। बच्चे जब बोलना शुरू करते हैं तो सबसे पहले सवाल करना ही सीखते हैं, ऐसा क्यों तो वैसा क्यों। बच्चों की स्वस्थ मानसिक वृद्धि के लिए अभिभावक हर सवाल का धैर्य से उत्तर देते हैं। अगर बच्चों के सवालों पर खीझ कर अभिभावक डांट-फटकार शुरू कर देते हैं तो उनके मानसिक विकास पर बुरा असर पड़ता है।
प्रश्न की इसी परंपरा की नींव पर आधुनिक पत्रकारिता की इमारत खड़ी हुई। इसे लोकतंत्र का चौथा खंभा इसलिए कहा गया कि यह किसी भी तरह के दबाव से मुक्त रहे। पत्रकार व पत्रकारिता की भूमिका पर किसी और संस्था का दखल नहीं रहे, इसे ही आदर्श स्थिति माना गया।
लेकिन, पत्रकारिता की इस बुनियाद को ढहाते हुए ‘एंकारिता’ ने अपनी भूमिका बदल ली। सवालों के गर्भ-गृह में सत्ता पक्ष का प्रवेश दिला दिया। आपको शायद अंदाजा नहीं कि किसी भी सरकार के पास अपने प्रचार के लिए कितना बजट होता है। आपने सोच लिया कि आप सरकार के प्रचार के पैसे बचा लेंगे और उसकी एवज में अपने लिए एक सुरक्षित जगह स्थापित कर लेंगे। आप चीख-चीख कर सरकार की जयकार और विपक्ष पर वार करने लगे।
दो हजार के नोट को जब टकसाल के कर्मचारियों ने भी नहीं देखा था तब आपने उसमें ऐसी चिप लगवा दी जो कालेधन को खोज लाएगा। उसी सरकार ने जब दो हजार के नोट को कालेधन की बड़ी वजह बता कर चलन से बाहर कर दिया तो आप सवालतलब नहीं हुए। तभी सवालों के गर्भगृह में ईश्वर की तरह स्थापित की गई सत्ता की प्रवक्ता पूछती हैं-कैसा लगा था जब आप जेल गए थे?
ऐसा पहले भी होता था, लेकिन वह एक-दो मामलों तक सीमित होता था, और लोगों के दिमाग से छंट जाता था। अब फर्क यह है कि ‘एंकारिता’ का यह रूप धुंध की तरह हर तरफ छा गया है। सत्ता ही सत्य है वाली धुंध का प्रदूषण आंखों के सामने ऐसा छाया है कि कुछ मीटर की दूरी पर खड़ा सवाल दिखना बंद हो गया है। ‘एंकारिता’ के प्रदूषण से सवाल करने वालों की आंखों में जलन है, गले में घुटन है।
प्रदूषण, प्रकृति के खिलाफ है। प्रकृति हर प्रदूषण की काट भी पेश करती है। इस नियम की वाहक बनते हुए ‘एंकारिता’ के प्रदूषण को सत्ता याद दिला देती है कि वह कभी भी उसकी साथी नहीं हो सकती है। सत्ता सिर्फ सत्ता की साथी होती है। ‘एंकारिता’ को अहसास होता है कि उसका इस्तेमाल उस कागज के नैपकिन की तरह हुआ, जो एकबारगी ही काम आता है। बस एक इस्तेमाल और आप इतिहास के कचरे के डिब्बे में। पत्रकारिता के इतिहास की किताब पर आपकी ‘एंकारिता’ उस चमकती धूल की तरह होगी जिसे सत्ता फूंक मार कर उड़ा देती है।
पत्रकारिता के इतिहास में ‘एंकारिता’ का जिक्र उस अघोषित आपातकाल की तरह होगा जिसने खुद को समय से भी बड़ा समझा था, लेकिन जिसका समय बहुत छोटा था। आने वाली पत्रकारों की पीढ़ी किताबी पाठ्यक्रम में पढ़ेगी कि एक समय की बात थी, जब सरकारी गदाधारी ‘एंकर’ के वेश में खुद को पत्रकार कहने लगे थे।