अब रघुवर दास किसी भी हाल में राज्य के मुख्यमंत्री नहीं होंगे’। झारखंड चुनाव में यह आवाज सरयू राय की गूंजी थी। यह आवाज थी उस अहंकार के खिलाफ जो यह सुनने को तैयार नहीं था कि मुख्यमंत्री रघुवर दास का दावा हवाई है और झारखंड की जनता जमीन पर उन्हें नकार चुकी है। रघुवर दास के हवाई दावे के आगे सरयू राय के जमीनी सच से मुंह फेरा जा रहा था। यह वही राजनीतिक अहंकार है जिसमें शीला दीक्षित ने केजरीवाल के बारे में पूछा था कि ‘हू इज ही’, और अमेठी में प्रियंका गांधी वाड्रा ने स्मृति ईरानी के विषय में पूछा था कि वह कौन? विपक्ष को ‘कौन’ पूछने वाली कांग्रेस को दिल्ली और अमेठी दोनों खोनी पड़ी थी। सच का सामना कराने के एवज में सरयू राय को चुनाव में टिकट नहीं मिला और उन्हें विपक्ष में खड़ा होना पड़ा। सत्ता के विपरीत खड़े होने वाले के पास खोने के लिए कुछ होता भी कहां है। उसका हौसला ही तो वह हासिल है जो अभी ‘निर्दलीय’ राय के पास है।

संघ की विचारधारा में प्रशिक्षित और झारखंड जैसे राज्य में भाजपा का जमीनी चेहरा थे सरयू राय। लेकिन चुनावों के पहले उनकी नहीं सुनी गई तो उन्होंने अलग राह चुनी। उन्होंने निर्दलीय के नाम पर वोट पाया और रघुवर दास को राम के मंदिर के नाम पर भी वोट नहीं मिला। ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) पार्टी पांच और सीटें चाहती थी। लेकिन उस पांच के नाम पर भी समझौता नहीं किया गया और गठबंधन टूट गया। नतीजा यह निकला कि महज छह महीने के अंदर भाजपा ने झारखंड में 17 फीसद वोट खो दिया। जिन शीबू सोरेन को दिल्ली वाला मीडिया भूल चुका था, वहां से निकले अखबारों के पहले पन्ने पर शीबू सोरेन के पांव छूते हुए हेमंत सोरेन की तस्वीरें छपीं। अब गैर की महफिल में सोरेन की सादगी का किस्सा और हारी सत्ता के खाते में कांग्रेस नहीं बनने के उपदेश का हिस्सा है।

कांग्रेस वाया भाजपा वाया कांग्रेस के इस क्रम का विश्लेषण इस स्तंभ में हम कई बार कर चुके हैं। इस पर एक बार फिर तवज्जो इसलिए कि दोनों दल इतिहास से कोई सबक लेने के इच्छुक नहीं दिख रहे हैं। शायद इसलिए क्षेत्रीय क्षत्रपों की समय-समाप्ति का ऐलान भी बहुत जल्दी इतिहास बन गया। पिछले कई विधानसभा चुनावों में देखा गया कि देश की जनता केंद्रीय और स्थानीय मुद्दों में फर्क करती आ रही है। छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा से लेकर महाराष्टÑ तक में जनता ने संदेश दिया कि उसके लिए केंद्र का मुद्दा अलग है तो वह अपने राज्य में स्थानीय मुद्दों की ही बात करना चाहती है। पिछले साल के अंत और इस साल के शुरू में हुए विधानसभा चुनावों में खेती-किसानी और बेरोजगारी ही अहम मुद्दा रहा। मजबूत राजनीतिक फैसलों का उसकी जिंदगी पर असर नहीं पड़ा तो वह बहुत दूर से आए भाषण को क्यों सुने। जब उसे अपनी रोज की रोटी जुटाने में मुश्किल हो रही है तो वह इस बात पर खुश हो भी तो कैसे कि अब कश्मीर में जमीन-जायदाद खरीद सकता है।

आम जनता तो केंद्र और राज्य का फर्क करना जानती है लेकिन अफसोस कि भाजपा के रणनीतिकार यह फर्क करना नहीं सीख पा रहे हैं। कश्मीर और झारखंड की समस्या एक नहीं है। देश की औद्योगिक राजधानी महाराष्ट्र और एक खनिज संसाधनों से भरपूर लेकिन आर्थिक विकास में बहुत पिछड़े समाज की जरूरतें अलग हैं। झारखंड भूख से मौत के लिए कुख्यात हुआ, आरोप लगा कि संतोषी नाम की बच्ची भात-भात कहते हुए मर गई। यहां तो आधार कार्ड भी आरोपी हुआ कि इसका नंबर नहीं होने के कारण गरीब को उसके हिस्से का राशन नहीं मिला।

कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष की एकता लंबे समय तक देखी गई। यह एकता राज्यों से होते हुए केंद्र तक बनी रही जिसका परिणाम हुआ कि 2014 के लोकसभा चुनावों में आधुनिक भारत के इतिहास में अहम पार्टी रही कांग्रेस को ऐतिहासिक हार मिली। लेकिन 2014 के चुनावों में खासकर उत्तर प्रदेश से मिले प्रचंड बहुमत के बाद भाजपा ने इस विपक्षी एकता की बेकद्री की, क्योंकि वह ऐतिहासिक रूप से अपने बूते पक्ष में थी। लेकिन दुखद है कि इसके बाद भाजपा ने अपने खिलाफ उठे हर सुर को ‘भ्रष्ट’ बोलना शुरू कर दिया। खासकर आइबी और सीबीआइ जैसी एजंसियों के सीमित इस्तेमाल का बुरा असर दिखने लगा और अपना अस्तित्व बचाने के लिए विपक्ष ने गोलबंदी शुरू की।

कानून बनाकर चुनावी फंडिंग पर सत्ता पक्ष का एकाधिकार जैसे हालात ने भी विपक्ष को एकजुट होने के लिए मजबूर कर दिया। बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने जद (एकी) की जितनी मांगें मांग कर झुकना पसंद किया और कांग्रेस ने अकड़ना पसंद किया तो उसका नतीजा भी दिखा था। अब जबकि कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों के पास चुनावी चंदों का भी सहारा नहीं बचा तो उनके पास एक-दूसरे को सहारा देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। भारत जैसे देश में जब चुनावी प्रचार को बहुत महंगा बना दिया गया है तो चुनावी चंदा किसी भी पार्टी के वजूद के लिए अहम हो जाता है। अब विपक्ष के पास अपने-अपने अहंकार को छोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा था। महाराष्ट्र से लेकर झारखंड में जिस तरह कांग्रेस ने झुक कर क्षेत्रीय क्षत्रपों के छाते के नीचे चलना मंजूर किया, उसे राजनीतिक इतिहास में एक सबक के तौर पर ही देखा जाएगा।

इन सारे बिंदुओं के साथ सबसे अहम है अर्थव्यवस्था यानी आम लोगों की रोजी-रोटी की बात। नोटबंदी और जीएसटी का असर लंबे समय बाद जनजीवन पर साफ-साफ दिखने लगा है। यह छह-सात महीने जैसे छोटे समय की बात होती तो जनता इसमें भी अच्छे दिन देख लेती। लेकिन जिस तरह से हालात लंबे समय से बिगड़ रहे हैं उसके बाद प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। जनता को अर्थव्यवस्था पर तसल्ली भी मिल जाती तो बात आगे बढ़ सकती थी। लेकिन यहां तो ‘हम लहसुन, प्याज नहीं खाते’ से लेकर ‘कहां है मंदी, कहां है मंदी’ जैसे संवाद गूंजने लगे। हरियाणा से लेकर महाराष्ट्र व झारखंड तक में सत्ता पक्ष ने उस कमजोर वर्ग को कोई उम्मीद नहीं दिखाई जिसके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं बचा था।

2014 में भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बन कर उभरा था और आज 2019 के अंत पर आम जनता के बीच यह कोई विमर्श ही नहीं है। भ्रष्टाचार बनाम ईमानदारी के मुद्दे पर ही कांग्रेस खारिज की गई थी। बिहार में नीतीश कुमार ईमानदार छवि वाले सुशासन के नाम पर ही कुर्सी हासिल कर पाए थे। लेकिन इस बार झारखंड में सवाल था कि रोजी-रोटी के बाद ही आगे की कोई बात होगी। क्षेत्रीय क्षत्रपों की वापसी ने केंद्र और राज्य की राजनीति को अलग-अलग तरीके से लेने का संदेश दे दिया है। दिल्ली के चुनावी मैदान में तो इस संदेश का सकारात्मक असर दिखने भी लगा है। केंद्र सरकार के पास अभी पर्याप्त समय है कि वह जनता की उन जरूरतों पर संवाद करे जिसका संदेश उसने दिया है। हमने 2019 का जो चुनावी पाठ शुरू किया था, झारखंड ने क्षेत्रीयता का झंडा बुलंद कर उसका उपसंहार भी रच दिया है। सत्ता और जनता के बीच के रिश्ते को समझने का, कभी जनता के आगे जाने और सत्ता के पीछे होने का यह क्रम अगले साल भी चलता रहेगा। उम्मीदों भरे आने वाले नए साल के लिए शुभकामना।