Lessons For BJP In MCD Elections:दिल्ली निगम चुनाव (Municipal Corporation Of Delhi)को आम लोगों की परेशानी नहीं बल्कि राजनीतिक साख (Political Credentials)का मुद्दा बना लिया गया था। अब दिल्ली के निगमों का एकीकरण (Consolidation Of Corporations Of Delhi) भी कर दिया गया है और निगम के खर्चे का खजांची केंद्र हो चुका है। इसलिए कचरे और सड़क जैसे मुद्दों पर भी आगे टकराव (Conflict) देखने को मिल सकते हैं। आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) पर जमकर प्यार लुटा रही दिल्ली की जनता ने निगम चुनावों में उसके भी नंबर काटे हैं। दिल्ली की जनता ने एक साथ तीनों दलों को काम और सिर्फ काम करने का संदेश दिया है। राष्ट्रीय स्तर (National Level) पर लड़े गए स्थानीय चुनाव (Local Elections)के हासिल पर बेबाक बोल

रहिमन देखि बड़ेन को,
लघु न दीजिए डारि।
जहां काम आवे सुई,
कहा करे तलवारि॥

पूरी दुनिया की तरह एक दशक से भारतीय लोकतंत्र (Indian Democracy) भी राजनीति की बड़ी प्रयोगशाला बना हुआ है। नेता और जनता दोनों अपनी-अपनी परखनली (Lab) में प्रयोग कर रहे हैं। कभी सिर्फ राष्ट्रवाद (Nationalism) का रसायन प्रयोग सफल कर देता है तो कभी कूड़ा-कचरा, गड्ढा सब मिलकर ऐसा राजनीतिक विस्फोट (Political Explosion) करते हैं कि कूड़े के पहाड़ (Garbage Mountain) पर राष्ट्रीय नेता (National Leaders) ढेर हो जाते हैं।

सियासी दलों के लिए जनता का समर्थन भीड़ जुटाने से नहीं मिलता

देश की राजनीति सत्तर के दशक के उस समाजवादी-लोहियावादी राजनीति (Socialist-Lohianist Politics) से आगे बढ़ गई है जिस दौर में सबसे ज्यादा राजनीतिक भविष्यवाणी (Political Prediction) की गई। लोकतंत्र को लेकर, जनता को लेकर, संसद से लेकर सड़क तक के संबंध पर राजनीतिक सूत्र दिए गए। राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि जब सड़कें सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। लेकिन, पिछले कुछ आंदोलनों में सड़क पर तिल रखने की जगह नहीं होने के बाद भी जनता ‘आवारा मसीहा’ के साथ रही।

अभी राजनीतिक टिप्पणीकारों (Political Commentators) के लिए नेता से लेकर जनता तक ऐसा मुश्किल पाठ्यक्रम है कि एक-दो पन्ने पढ़ कर किताब की समीक्षा करने की प्रवृत्ति बंद कर देनी होगी। ऐसा करने वालों को जनता ‘आपको कुछ नहीं पता’ के खाते में डाल चुकी है। अभी खत्म हुए चुनावों में सबसे बड़ा सबक वहीं से मिला जिसका कद छोटा था और जिसे बड़े स्तर पर लड़ा गया।

MCD राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में तब आया, जब इसका एकीकरण कर दिया गया

दिल्ली नगर निगम का चुनाव राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में तभी आ गया जब संसद में निगम के एकीकरण पर बहस हुई और निगम क्षेत्रों का परिसीमन हुआ। इन दिनों राजनीतिक विश्लेषक हवा का रुख भांपते हुए भाजपा की तारीफ में एक स्तंभ इसलिए खर्च कर रहे थे कि वह स्थानीय चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर लड़ती है। लेकिन, दिल्ली की जनता ने इन तारीफों को ले जाकर कचरे के पहाड़ पर रख दिया और अपनी परखनली से संदेश दिया कि नितांत स्थानीय स्तर के चुनाव में राष्ट्रीय नेताओं की फौज को उतारना पार्टी के साथ नेताओं की प्रतिष्ठा को भी दांव पर लगाना है।

MCD Election and BJP versus AAP
नई दिल्ली में एक बैठक के दौरान दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल और पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी के साथ पीएम नरेंद्र मोदी। (पीटीआई फोटो)

दिल्ली के निगम चुनाव में यही हश्र हुआ भाजपा का। अगर, दिल्ली भाजपा के नेता अपना काम ठीक से करते तो शायद उन्हें बाहरी नेताओं की इस तरह से जरूरत ही नहीं पड़ती। कूड़े के ढेर के बगल में केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और राष्ट्रीय नेताओं का पहाड़ खड़ा कर दिया जाएगा तो लोगों को लगने लगेगा कि इनके पास तो हमारे लिए कुछ था ही नहीं। चाहे सत्ता पक्ष अपनी तरफ से कितना भी विकल्प नहीं होने का संकट खड़ा कर दे, लेकिन आम जनता को जब लगता है तो वह अपने लिए विकल्प चुन ही लेती है। ऐसा ही दिल्ली निगम चुनाव में आम आदमी पार्टी के मामले में हुआ।

मनीष सिसोदिया से लेकर सत्येंद्र जैन तक के क्षेत्र में भाजपा ने अपनी बढ़त बनाई

चुनाव की तारीखों का एलान होते ही आम आदमी पार्टी के कथित घोटालों का पर्दाफाश होने लगा, जांच एजंसियां चौतरफा सक्रिय हो गईं। ढेर सारी गिरफ्तारियों के बावजूद उनकी गिरफ्तारी नहीं हो पाई जिन्हें मुख्य अभियुक्त बनाया गया था। इतने सारे विरोधाभासों के बीच लोगों को लगने लगता है कि यह लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं बल्कि वोट के लिए है। आपने चुनावी फायदे के लिए ही खास लोगों को लक्ष्य बनाया था। और, इसका आम आदमी पार्टी को नुकसान भी हुआ। मनीष सिसोदिया से लेकर सत्येंद्र जैन तक के क्षेत्र में भाजपा ने अपनी बढ़त बनाई।

दिल्ली निगम की सारी लड़ाई धारणा के आधार पर लड़ी जा रही थी। लोगों ने आपकी बनाई धारणा को नकारा और अपनी धारणा बनाई कि आपके पास स्थानीय स्तर पर कोई भी उपलब्धि नहीं है। आप केंद्रीय नेताओं और राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ आ रहे हैं। केंद्र में सरकार होने की वजह से आप प्रचार में कुछ भी कर सकते हैं लेकिन सड़क और कचरे की समस्या ठीक नहीं कर सकते हैं। ठीक है, जब केंद्र के चुनाव की बारी आएगी तो आपको वोट दे दिया जाएगा। लेकिन, स्थानीय मुद्दों पर तो आपको खारिज ही किया जाएगा। राष्ट्रीय नेताओं की साख को दांव पर लगा कर छोटे चुनाव हार जाना भाजपा के लिए ठीक नहीं होगा, पार्टी समझ चुकी होगी।

नगर निगम चुनाव में स्थानीय नेताओं को दरकिनार करना भाजपा के लिए घातक बना

दिल्ली निगम चुनाव में भाजपा के लिए कई सबकों में से एक यह भी कि स्थानीय चुनावों में स्थानीय नेताओं को दरकिनार करने की प्रवृत्ति छोड़ देनी चाहिए। आपको कुछ स्थानीय चेहरे पसंद नहीं हैं और आप बाहरी लोगों पर भरोसा करेंगे तो आपका यही हाल होगा। दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता स्थानीय नेताओं पर भरोसा नहीं कर रहे थे तो स्थानीय जनता को उन पर भरोसा नहीं हुआ।

हवाई उम्मीदवारों के मोह से भाजपा भी बच नहीं पाती है। आप गौतम गंभीर से लेकर हंसराज हंस को राजनीति के मैदान में उतार देते हैं। अब इनमें से एक का करिश्मा चल निकलता है तो दूसरा नाकाम भी हो सकता है। गौतम गंभीर राजनीतिक कायदा सीख गए लेकिन हंसराज हंस का क्या हुआ? उन्हें जहां राजनीतिक भाषण देने के लिए बुलाया जाता है वहां भी भजन गाकर आ जाते हैं। नामी हस्ती के नाम पर आप सिर्फ एक बार वोट ले सकते हैं। दूसरी बार क्या करेंगे?

BJP Got lesson in Delhi MCD Defeat.
सांसद मनोज तिवारी ने गुरुवार, 8 दिसंबर, 2022 को नई दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का अभिनंदन किया। (पीटीआई फोटो)

गायक-अभिनेता मनोज तिवारी को पूर्वांचलियों का वोट लेने के लिए उतार दिया। राजनीति में लोकप्रियता बहुत अहमियत रखती है लेकिन जब लोकप्रिय हस्ती से एक झटके में प्रदेश अध्यक्ष जैसा पद छीन लेने का अलोकप्रिय काम करते हैं तो उसी पूर्वांचली अस्मिता को ठेस पहुंचती है। उन्हें लगता है कि काम निकलते ही हमारी पहचान पर हमला कर दिया।

मनोज तिवारी के जरिए ही भाजपा को कई सबक मिले हैं अगर वह लेना चाहे। स्थानीय नेताओं को दरकिनार कर हवाई नेताओं को उतारा जाता है तो उसे स्थानीय नेताओं का समर्थन मिलना बंद हो जाता है। मनोज तिवारी के साथ भी ऐसा हुआ कि दिल्ली में स्थापित सितारा चेहरे उन्हें अपने दर्जे का नहीं समझते तो बाकी नेता भी उन्हें समर्थन नहीं देते थे। लोकप्रियता के आधार पर अमिताभ बच्चन ने हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे जमीनी नेता को हरा दिया था, लेकिन सिनेमा का मुकद्दर भी अमिताभ बच्चन को जनता के बीच सिकंदर नहीं बना पाया था। उन्हें राजनीति से तौबा करनी ही पड़ी।

सियासत में लंबी पारी के लिए जमीनी कामकाज जरूरी होता है

रेखा हो या सचिन तेंदुलकर एक बार सितारा छवि के कारण संसद में पहुंच जाते हैं लेकिन वहां जनता को लेकर अपनी पांच साला खामोशी के बाद क्रिकेट और विज्ञापनों के ही संवाद पढ़ते हैं। राजनीति कोई आभूषण नहीं है जिसे पहन कर आप अपनी सुंदरता पर नाज करेंगे। राजनीति को आभूषण समझने वालों को दूसरी बार जनता लोकतंत्र की जीत का हार नहीं पहनाती है। आपका आभूषण आपका जमीनी काम ही हो सकता है, जो आपको लंबी पारी देता है।

भाजपा के पास दिल्ली में दो रास्ते थे। पहला तो यह कि अपने पंद्रह सालों के व्यवस्था विरोधी माहौल से निपटने के लिए उसके नेता गली, मोहल्ले पहुंचते, निगम के भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता से अपनी बात रखते। बुनियादी जरूरतों में जनता को राहत पहुंचाते। लेकिन, उसने परिसीमन जैसा आसान रास्ता चुना। निगमों का एकीकरण कर मजबूत मेयर की चाह रखी। जहां सड़क और कूड़े की बात थी वहां सफाई कर्मियों के वेतन नहीं बड़े घोटालों पर बात करने लगी। लेकिन, जनता ने उन्हीं छोटे मुद्दों को तरजीह दी जो उसे घर से लेकर सड़क तक परेशान करते हैं।

दिल्ली निगम के चुनाव में जिस तरह जनता ने वोट दिया है, उसे देख कर लगता है कि जनता को भी यह पता है कि आम आदमी पार्टी, भाजपा से लेकर कांग्रेस किसी के पास भी उसकी समस्याओं का समाधान नहीं है। लेकिन, बहुमत आम आदमी पार्टी को दिया है। दिल्ली के संदर्भ में अब यह दोहरे इंजन वाली बात नहीं है क्योंकि अब निगम के लिए पैसे केंद्र के खजाने से आएंगे। अगर, इसके बाद दिल्ली निगम और केंद्र के जरिए एक नया राजनीतिक टकराव सामने आता है तो निश्चय ही उसकी निगहबानी भी जनता ही करेगी और अपना फैसला देगी।

फिलहाल, स्थानीय चुनाव को राष्ट्रीय स्तर पर लड़ने की गैरजरूरी तारीफ से तंग आकर दिल्ली की जनता ने जो संदेश दिया है उसी को हासिल-ए-महफिल समझा जाए।