आज की तकनीकी प्रगति ने मनुष्य को जितनी सुविधाएं दी हैं, उससे ज्यादा उसके भीतर की संवेदना और आत्मानुभूति को कुंद किया है। मानो मनुष्य अपने ही भीतर से निर्वासित हो चुका है और उसे पता भी नहीं चला। वक्त की खुली चेतावनियों के बीच अगर मनुष्य ने आत्मसमीक्षा, मौन और स्वविवेक को पुनर्जीवित नहीं किया, तो वह दिन दूर नहीं जब रोबोट से भरे समाज में मनुष्य आत्माहीन बनकर रह जाएंगे।
कहने को यह समय विज्ञान की विजयगाथाओं का है। मशीनें तेज और तेज होती जा रही हैं। मशीनी कारनामे लुभावने लग सकते हैं, लेकिन मानवीय हृदय जैसी कोमलता कहां से आएगी? ठंडे और भ्रमित मन वाले व्यक्ति क्या समाज में सहिष्णुता बचा पाएंगे? आज बुजुर्ग हो या नौजवान, सभी के हाथों में स्मार्टफोन की स्क्रीन चमक रही है, लेकिन उनकी अंतरात्मा बुझ रही है। दस सेकंड की रील में जीवन भर की संवेदनाएं खो रही हैं। व्यक्ति की जगह सिकुड़ती जा रही है। अगली और पिछली पीढ़ियों की चेतना की पुनर्स्थापना की जरूरत है, वरना दासता का इतिहास दोहराया जाएगा। अब समय काटा नहीं जाता, बल्कि समय को निगला जा रहा है।
समय अब ‘अनुभव’ नहीं, ‘उपयोग’ की वस्तु बन गया है
अंगुलियां हर वक्त मोबाइल पर चलाते हुए। समय अब ‘अनुभव’ नहीं, ‘उपयोग’ की वस्तु बन गया है। यह केवल सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं है, बल्कि यह विवेक का ह्रास और चेतना के शून्य होने का दौर है। मनुष्य अब प्रश्न खड़े नहीं करता। समस्या को मशीनों और सोशल मीडिया के शोर में तिरोहित कर देता है या करने की मंशा रखता है। अकेलापन अब आत्मदर्शन की भूमि नहीं रहा। अकेलेपन में सोशल मीडिया के किसी मंच की कंक्रीट बिछा दी गई है। उसी पर दौड़ती हैं आंखें, कान और मन।
यहां सब कुछ उपलब्ध है, लेकिन बस मनुष्यता का टोटा है। रील बनाने वाले लोग दूसरे से बेहतर होने में किसी भी सीमा को पार करने के लिए लोग आमादा हैं। बाहर से भरे-भरे दिखने वालों के भीतर भयानक खालीपन पनप रहा है। वह मानवीय चेतना, जो कभी कला के रचाव में जीवन को रचती थी, अब सोशल मीडिया के लिए ‘कंटेंट’ या सामग्री बन रही है।
मानवीय संवेदनाएं अब उपभोक्तावाद के हाथों गिरवी रख दी गई हैं। विवेक का स्थान ‘वायरल’ होने यानी सुर्खियों में आने की आकांक्षा ने ले लिया है। करुणा की जगह तस्वीरें उतारने के लिए मोबाइल पर थिरकती अंगुलियों ने और सत्य की जगह सुर्खियों और इंटरनेट पर किसी को परेशान करने की प्रवृत्ति ने लिया है।
मशीनी दासता का यह नया संस्करण पहले से अधिक भयावह होगा
ऐसे में यह प्रश्न उठना अनिवार्य है कि क्या अगली से अगली पीढ़ी मनुष्य कहलाने योग्य बचेगी? आने वाली पीढ़ियां डिग्रीधारी तो होंगी, मगर उनमें सहज जीवन की दृष्टि नहीं होगी। लोग आधुनिक विकास से ओतप्रोत दिखेंगे, पर आत्मविहीन ज्यादा न लगेंगे। मशीनी दासता का यह नया संस्करण पहले से अधिक भयावह होगा।
विकसित युग की गुलामी हथकड़ी से नहीं, ‘हैशटैग’ से आएगी। शोषण तलवार से नहीं, स्क्रीन से होगा और सबसे बड़ी बात यह पूरी प्रक्रिया लोकतांत्रिक लगेगी, क्योंकि मनुष्य ने स्वयं ही अपने विवेक का दामन छोड़ा होगा। अगर मनुष्य ने अब भी चिंतन नहीं किया, तो वह दिन दूर नहीं जब इतिहास कहेगा कि कभी ‘सभ्य मनुष्य हुआ करता था’। यानी मशीनों की गति ने जीवन की गरिमा को निगलना शुरू कर दिया है।
रील, एल्गोरिद्म, चैटबाट और स्वचालित जीवनशैली के बीच मनुष्य की चेतना एक ‘डेटा पाइंट’ बनती जा रही है, जो सोचता नहीं, बस ‘स्क्राल’ करता जाता है। आधुनिक मनुष्य अपने समय का उपभोक्ता तो बन गया है, पर साधक नहीं रहा। अकेलेपन को अब कोई आत्मान्वेषण की भूमि नहीं मानता, बल्कि उस पर मनोरंजन का लेप लगाकर नकली हंसी हंसता जा रहा है।
उदाहरणस्वरूप, चिकित्सा क्षेत्र में, जहां कभी एक चिकित्सक की संवेदनशीलता मरीज के जीवन का भरोसा हुआ करती थी, वहां अब चैटबाट आधारित स्वास्थ्य सहायक किसी को ‘आपका समय समाप्त हुआ’ कहकर स्क्रीन से हटा देता है। वह आपकी पीड़ा नहीं, केवल आपकी ‘इनपुट वैल्यू’ पढ़ता है। शिक्षा के क्षेत्र में पहले शिक्षक बच्चों की आंखों में देखकर उनके सवालों को पढ़ते थे। अब कृत्रिम मेधा-प्रशिक्षित ई-मंच केवल ‘एंगेजमेंट रेट’ और ‘रीटेंशन टाइम’ को पढ़ते हैं। बच्चों की जिज्ञासा अब ‘उपभोक्ता के बर्ताव का डेट’ बन गई है।
आज की सबसे बड़ी त्रासदी यह नहीं है कि इंसान मशीनों जैसा हो रहा है, बल्कि वह आत्मानुभूति की गहराइयों से विमुख होता जा रहा है। जो आत्मसमीक्षा कभी पीड़ा के साथ आती थी, अब उसे ‘नकारात्मक तंरगें’ कहकर खारिज कर दिया गया है। संवेदनाएं अब इंटरनेट की सामग्री बन गई हैं। यह केवल पीढ़ी दर पीढ़ी का अवमूल्यन नहीं है, यह सभ्यता के केंद्रीयता का पतन है।
समाज नहीं, खुद तय करें आप कौन हैं? जीवन की सबसे जरूरी और अनकही यात्रा है खुद को समझना
आज का बच्चा रोबोट से बात करना जानता है, लेकिन रिश्तों से संवाद करना भूल चुका है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी एआइ से लैस ‘रेप्लिका’, ‘एलेक्सा’ और ‘एनिमा’ अब मनुष्यों के एकाकीपन के उत्तरदाता बन गए हैं। क्या यह तकनीक की जीत है, या समाज की पराजय? कौन बताएगा? जबकि हमें यह समझना होगा कि जब भी मनुष्य ने अपने भीतर के मौन को मशीनों के स्वर से भरने की कोशिश की है, तब तब सभ्यताओं और संस्कृतियों ने अपनी आत्मा गंवाई है।
दुख इस बात का है कि ये परिस्थितियां खुद मनुष्यों की बनाई हुई हैं। जो अपनी चेतना संरक्षित नहीं कर पाया, वह राष्ट्र चेतना को कैसे बचा पाएगा? फिर यह तकनीकी उन्नति केवल एक छलावा बनकर रह जाएगी। अब समय आ गया है जब हमें स्वयं निर्णय लेना होगा कि विकास की अंधी दौड़ में किसे बचाएंगे- मनुष्य को या मशीन को? संवेदना को या स्क्रीन को? विवेक को या ‘आभासी दुनिया’ को? अब भी नहीं चेते तो मशीनों के बीच रोबोट बनने से कोई नहीं रोक पाएगा। भविष्य में कहानियों में लोग सुनाया करेंगे कि ‘वह एक तकनीकी युग था, जिसमें मनुष्य अपने ही भीतर लुप्त हो गया था।’