रोहित कुमार

जीवन कुछ बड़ा करने के लिए है। हर कोई कुछ बड़ा करना भी चाहता है। बड़ा ही करना चाहता है। बड़ा यानी महत। महत की आकांक्षा ही महत्त्वाकांक्षा है। इसलिए महत्त्वाकांक्षा कोई बुरी चीज नहीं। महत्त्वाकांक्षा हर किसी में होनी ही चाहिए। मगर विरोधाभास यह कि हममें से लगभग सभी करना तो बड़ा चाहते हैं, पर उलझ जाते हैं छोटी-छोटी चीजों में। छोटी-छोटी चीजों को बड़ा बना लेते हैं।

लटक जाते हैं उन्हीं को पकड़ कर। फिर वही हमारी आकांक्षा बन जाती हैं। उन्हीं से पार पाना, उन्हीं पर विजय प्राप्त करना, उन्हें ही प्राप्त कर लेना हम अपनी महत्त्वाकांक्षा मान लेते हैं। उन्हीं के पीछे हम दिन-रात खुद को झोंके रखते हैं। अपनी सारी ऊर्जा गंवाए चले जाते हैं उन्हीं छोटी-छोटी चीजों के पीछे भागते हुए।

दुनिया के सारे दर्शन महत का अर्थ उस सत्ता को मानते हैं, जो सर्वोपरि है। उससे ऊपर कोई है ही नहीं। उसी को पाने की आकांक्षा को महत्त्वाकांक्षा कहते हैं। जब सर्वोपरि को ही पा लिया, तो कुछ और पाने की चिंता रह ही नहीं जाती। सब कुछ पा लेने का संतोष प्राप्त हो जाता है। मगर हमने महत्त्वाकांक्षा को अंग्रेजी के एंबीशन की जगह बिठा दिया है। ‘ख्वाहिश’ का पर्याय बना दिया है।

इच्छा-महत्त्वाकांक्षा

इच्छा और महत्त्वाकांक्षा एक ही चीज नहीं होती। इच्छा तो बहुत तुच्छ चीज है। बाजार गए और समोसा खाने की इच्छा जाग गई। समोसा खाना मनुष्य की महत्त्वाकांक्षा नहीं हो सकती। किसी नौकरी की ख्वाहिश पाल ली और उसे पाने के लिए मेहनत करने लगे। यह जीवन की महत्त्वाकांक्षा नहीं हो सकती। इसलिए कि एक नौकरी पा लेने के बाद आप तृप्त नहीं हो जाते।

संतोष के आनंद से भर नहीं उठते। उससे बेहतर नौकरी पाने की इच्छा तत्काल आपके भीतर भरनी शुरू हो जाती है। उससे और और और आगे जाने की इच्छा बनी ही रहती है। यह महत्त्वाकांक्षा नहीं है। ये जीवन की छोटी-छोटी उलझनें हैं, जिसमें हम उलझे रहते हैं। जीवन जीने के लिए आजीविका के अवसर तलाशने का प्रयास बुरी बात नहीं। यह तो होना ही चाहिए।

बिना इसके न तो व्यक्ति का विकास हो सकता है, न समाज और देश का। मगर हमारी उलझनें इतनी भर कहां हैं। हम तो इतनी छोटी-छोटी चीजों को अपनी महत्त्वाकांक्षा बना लेते हैं कि जीवन भर उन्हीं में उलझे रह जाते हैं। फिर फुर्सत हीं नहीं मिलती कि सोच सकें जीवन की महत आकांक्षा पूरी करने के बारे में। हम देखते हैं कि हमारे सहकर्मी बड़ी, महंगी गाड़ी से चल रहे हैं।

हमारे पड़ोस में कई लोगों के पास बड़ी गाड़ियां हैं। बस, धीरे-धीरे हमारे भीतर इच्छा अपने कल्ले फोड़ना शुरू कर देती है कि मुझे भी ऐसी ही या इससे बेहतर गाड़ी लेनी चाहिए। फिर इच्छा जोर मारनी शुरू कर देती है कि गाड़ी ले ही लेनी चाहिए। इच्छा का दबाव ऐसा बनता है कि विवेक कुंद हो जाता है। हम यह नहीं सोच पाते कि जिन लोगों ने बड़ी और महंगी गाड़ियां ली हैं, वे अपने बाकी खर्चे कैसे चला रहे हैं।

हम अपने खर्चे के बारे में भी गणित लगाना जरूरी नहीं समझते। इस उत्साह से भर जाते हैं कि आने वाले समय में कमाई तो बढ़ेगी ही, तो गाड़ी ली जा सकती है। आपकी मदद के लिए बैंक वाले तो बैठे ही हैं। आ जाती है गाड़ी। मगर गाड़ी आने के बाद घर के बाकी खर्चों पर जो असर पड़ता है, उससे अलग तरह की परेशानियां पैदा होनी शुरू हो जाती हैं।

मोह का जाल

हम इसी तरह छोटी-छोटी चीजों को अपने जीवन की महत्त्वाकांक्षा बनाए बैठे हैं। फिर हर आदमी छोटा-मोटा दार्शनिक तो होता ही है। हर आदमी अपने ढंग से जीवन के लक्ष्य तय करता और उसके पक्ष में सिद्धांत गढ़ता ही रहता है। अक्सर लोग कहते मिल जाएंगे कि जीवन में और रखा ही क्या है, खाओ पीओ मौज करो। यह चार्वाकों का सिद्धांत है- जो कुछ है यहीं है, परलोक वगैरह जैसी चीज कुछ होती नहीं।

आज में जिओ, कल किसने देखा है, फिर कल की चिंता क्यों करनी। बाजार भी अपना जीवन-दर्शन गढ़ता-फैलाता ही रहता है। बाजार बहुत सारी छोटी-छोटी चीजों को हमारी महत्त्वाकांक्षा से जोड़ देता है। घर की सजावट, रसोई के उपकरण, पहनने-ओढ़ने के सामान-सब कुछ को बाजार हमारे जीवन की महत्त्वाकांक्षा बना देता है। इतने तरह के विज्ञापन हमारे ऊपर बरसाता रहता है कि हम उनके मोह में फंस ही जाते हैं।

अहंकार का घर

इन्हीं छोटी-छोटी चीजों में उलझ कर हम जीवन के असल लक्ष्य को भूल जाते हैं। छोटी-छोटी चीजें जीवन में सदा छोटी-छोटी चीजें पैदा करती रहती हैं। उन्हें हासिल करके जो अहंकार हमारे भीतर पैदा होता है, जो अकड़ आ जाती है उससे एक झूठा भरोसा हमारे भीतर भर जाता है कि हम सफल हो रहे हैं। सफल हैं।

यह अहंकार बड़ा होता जाता है और हमारा भरोसा अपने पर बढ़ता जाता है कि हम ही हैं जो सही कर रहे हैं। हमारा सोचना, हमारा करना ही सही है। बाकी तो गलत ही किए जा रहे हैं। बाकी तो अक्षम और अयोग्य ही हैं। इन्हीं छोटी चीजों में उलझ कर, इसी अहंकार में भर कर हम छोटी-छोटी चीजों को अपनी महत्त्वाकांक्षा मान बैठते हैं।

परिवार के जो कार्य-व्यवहार सामान्य ढंग से चलते रहते हैं, चलते ही रहने चाहिए, उनमें भी अहंकार आड़े आना शुरू हो जाता है। हमारा हर फैसला अहंकार से जुड़ा होता है। परिवार में जिन बातों पर सर्वसम्मति से फैसले होने चाहिए, सबसे राय-विमर्श करके कदम आगे बढ़ाना चाहिए, उनमें भी हम अपने फैसले को ऊपर रखना शुरू कर देते हैं।

यही अहंकार दफ्तर, मुहल्ले, रिश्तेदारियों तक फैलता जाता है। अगर हममें छोटी और बड़ी, आवश्यक और अनावश्यक, ग्राह्य और अग्राह्य में भेद करने का विवेक पैदा हो जाए, तो महत की आकांक्षा भी पैदा होनी शुरू हो जाए। यह आकांक्षा पैदा होने लगती है, तो जीवन आनंद से भरना शुरू हो जाता है।