आम आदमी इन दिनों बहुत कुछ सोचने लगा है। आजादी से पहले के दिनों में आम जिंदगी की जरूरतों से इतर या उसके समांतर सोचने का एक लक्ष्य था। उस लक्ष्य में आजादी सबसे प्राथमिक थी। उसे ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं पड़ती थी, क्योंकि सामने कुछ स्पष्ट मार्ग थे और साथ थे महान मार्गदर्शक, संस्कार और उसूल। इसके अलावा भी बहुत कुछ, जिससे अपने वजूद का बेहतरीन अहसास होता था। एक नई आत्मसंतुष्टि का भी आभास होता था। कई लोग तो हंसते-हंसते खुद को बलिदान कर देते थे। अपना सब कुछ न्योछावर कर देते थे।

आज यकीन नहीं होता कि हम उन्हीं बलिदानियों के बाद की पीढ़ी के हैं। कई बार यह सोच कर शर्मिंदगी होती है कि ऐसे लोग भी हैं यहां कि सिर्फ एक कागज को इधर से उधर करने के लिए अलग से कुछ पैसे सामने वाले से हथिया लेते हैं। वरना उनका काम रुक जाता है। हजारों योजनाओं के हजारों लाख रुपए कहां चले जाते हैं, पता नहीं चलता। हम ही असमानता से बिखरने लगे थे, लेकिन पैसों का केंद्रीकरण सिर्फ कुछ लोगों के पास हो गया।

खुद के बारे में सोचने पर होते हैं मजबूर

इन दिनों खुद पर पड़ने वाली नजरें भी हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। हम कुछ लोलुप नजरों में महज ‘वोट’ बनकर रह गए हैं, जहां हम उपभोग में लाए जाते हैं स्वार्थवश। हम उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानते हैं, इसलिए उन्ही संबंधों की भावनाओं को लेकर उनके पास वोट मांगने जाते हैं और उनकी समस्याएं भी सुनते हैं। हमारी उन लोगों के प्रति प्रतिबद्धताएं ज्यादा हैं और लगभग रोज उन्हीं से टकराना है। ऐसे में हम उन्हें बड़े नेताओं की तरह बहला-फुसला नहीं सकते हैं। दूसरी तरफ कुछ की नजरों में हम उन बड़ी-बड़ी कंपनियों के लुभावने दावों से प्रभावित होने वाले ‘ग्राहक’ भर हैं, जो अपना सामान बेचने के लिए तमाम भावनाएं लूट लेते हैं। ‘मुफ्त वाले माल’ को नकारने वाले आदर्श को अपनाते-अपनाते हम ‘एक के साथ दो मुफ्त’ वाले आदर्श अपना बैठे हैं। अपने ऊपर से बोझ हल्का करने के लिए हम यह भी सोचते हैं कि ‘तह के अंदर भी हाल वही है, जो तह के ऊपर हाल, मछली बचकर जाए कहां जब जल ही सारा जाल।’

लोगों को रखना चाहिए सुनने का धीरज, सामने वाले की बातों पर करें गौर

हम बाबा खड़गसिंह की उस कहानी के बारे में भी सोचते हैं, जहां से विश्वास का संकट शुरू हुआ था। अब हमारे मध्य विश्वास इतना पुराना हो चला है कि उसे हाशिये पर करने के लिए हमने उसके लिए ‘वृद्धाश्रम’ खोल दिए हैं और उन्हीं में वह अपना निर्वासित जीवन जी रहा है। हम सोचते हैं उस निरीह आदमी के बारे में जो हमारी आंखों के सामने अविश्वास का शिकार होकर खाली हाथ लौट जाता है, जो हो सकता है विश्वास करने योग्य हो। धर्म से लेकर कर्म क्षेत्र और परिवार से लेकर बाजार, सभी तरफ संदेह के आगोश में लिपटकर अविश्वास हमारी भावनाओं की बहुमंजिला इमारतों में बने फ्लैटों में रहने लगा है। विश्वास का संकट गांव में भी बढ़ा है, लेकिन सुसभ्य और संपन्न शहर की तुलना में आज भी गांव लाख दर्जे अच्छे हैं। गांव का कोई व्यक्ति यह कहता हुआ मिल जा सकता है कि विश्वास आपस में कम हुआ है, लेकिन शहरी आदमी पर विश्वास सहजता से कर पाना मुश्किल हो गया है। जबकि गांव के लोग तुरंत विश्वास कर लेते हैं। ऐसे वाकये गांव वालों के साथ अक्सर देखे जा सकते हैं, जिनमें शहरियों ने उन्हें धोखा दिया। पंचायत के ज्यादातर काम-काज विश्वास पर ही होते हैं।

हजारों युवाओं को देश के रचनात्मक आंदोलन में होना था हिस्सेदार

सोचने का मसला यह भी है कि जिस आदमी को शासक बनना था, वह इधर-उधर की खाक छान रहा है। जिसे वास्तव में वैज्ञानिक होना था, वह मजदूरी कर रहा है। जिसे वास्तव में इंजीनियर बनना था, वह कहीं बैठा दिहाड़ी पर ‘वेल्डिंग’ कर रहा होता है। जिसे मौका मिलना था आगे बढ़ने का, वह बेरोजगारी का शिकार होकर हाथ बांधे बैठा है। हजारों युवाओं को देश के रचनात्मक आंदोलन में हिस्सेदार होना था, वे सब बेरोजगार बैठे हैं या फिर गलत व्यसनों-व्यवसायों से जुड़ रहे हैं। प्रतिभाओं का मूल्यांकन और उन्हें मंच मिलना सिर्फ शहर तक सीमित रह गया है, जबकि गांव में भी विभिन्न खेलों से लेकर अन्य शिक्षणेतर गतिविधियों में ग्रामीण प्रतिभाएं कमतर नहीं हैं।

लोगों में समानुभूति बढ़ाने के लिए करना चाहिए उपाय, हर हफ्ते किसी एक अजनबी से बात करने की डालनी चाहिए आदत

समाज के प्रतिष्ठित और प्रतिनिधित्व करने वाले शख्स से समाज के प्रति प्रतिबद्धता की आशा की जाती है, क्योंकि वे अपने अनुजों के लिए ‘आदर्श’ होते हैं। लेकिन अफसोस कि उनमें से अधिकतर बिखरे हुए व्यक्तित्व के मालिक होते हैं।

हम इस बारे में भी सोच लेते हैं कि सिर्फ स्कूल-कालेज जाने से ही ‘शिक्षा’ प्राप्त हो जाती है। जबकि तमाम डिग्रियों से लदे लोग भी आज ऐसे कार्य करते हैं कि उनकी शिक्षा पर बड़ा प्रश्नचिह्न लग जाता है। किसी स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त व्यक्ति से संबंधित विषय के बारे में पूछने पर निराशा हाथ लग सकती है। जो शिक्षा हमें सतही ज्ञान भर दे जाती है और तनावों, विचलनों पर विजय पाना नहीं सिखाती है, उस पर हम गर्व करते हैं। गांव में रहने वाले लोगों को अक्सर ‘गंवई’ करार दिया जाता है। दरअसल, हम ‘एसी’ की ठंडक में बैठे यह सोच लेते हैं कि ‘अ’ से ‘द’ तक के गरीबों को फलां समस्या है और ‘ई’ से ‘फ’ तक के किसानों को फलां समस्या है। जबकि आज भी आबादी के एक बड़े हिस्से को सिर्फ एक वक्त का भोजन नसीब होता है।

देखा जाए तो हम सिर्फ सोचते ज्यादा रहे हैं। सपनों में ही ज्यादा खोते रहे हैं। इसलिए शायद हकीकत का धरातल उथला रह गया। हम हर चीज तोड़ते-फोड़ते रहे, शासकीय संपत्ति को बेगाना समझते रहे। प्रतिफल यह रहा कि हम आवरण से देश प्रेम के गीत, बातें तो करते रहे, पर हम यह नहीं सोच पाए कि हमें सिर्फ सोचना नहीं है, कुछ करना भी है।