आजकल अक्सर अनेक युवाओं को हम परेशान, हैरान और उलझन में देखते हैं। उनके चेहरे पर तनाव, झुंझलाहट और व्यग्रता का अंदाजा कोई भी समझदार व्यक्ति आसानी से लगा लेगा। हैरानी की बात है कि इन बेचैनियों में से ज्यादातर बहुत बचकाने कारणों से होती हैं। हालांकि ये युवा अपने करिअर के दबाव, वैवाहिक भविष्य या कुछ निजी समस्याओं से भी जूझते हैं। बहुत सारे कामकाजी युवक-युवतियां अक्सर खाने-पीने की चीजें घर पहुंचाने वाले एप पर पसंदीदा भोजन और रेस्तरां की खोज में लंबा समय बर्बाद करते और परेशान होते हैं। बहुत सोच-समझ कर मंगाने के बाद वे इस खाने की बुराई करते और असंतुष्ट होते दिखते हैं। कई बार तो वे इस बात का निर्णय लेने में काफी वक्त बर्बाद कर देते हैं कि ‘ओटीटी’ मंचों पर कौन-सी फिल्म देखी जाए। ऐसे कई युवाओं को लगता है कि काफी वक्त और ऊर्जा खर्च करने के बाद उन्होंने जो निर्णय लिया, वह बिल्कुल गलत था।

कुछ दिनों पहले एक युवक ने दफ्तर से जल्दी जाने की बात की, तो उसके वरिष्ठ अधिकारी ने उससे कारण पूछा। युवक ने बताया कि उसे अपनी मां को हृदयरोग विशेषज्ञ के पास ले जाना है। अधिकारी ने पूछा कि क्या उसने चिकित्सक के बारे में जानकारी ले ली है, तो युवक ने कहा कि उसने गूगल में देखा था, ‘हर्ट स्पेशलिस्ट नियर मी’ यानी मेरे आसपास हृदयरोग विशेषज्ञ, तो उन्हीं का नाम दिखा था। जवाब सुनकर उसका अधिकारी हैरान रह गया और उसे डांटते हुए कहा कि तुम एक हृदय रोग विशेषज्ञ के पास जा रहे हो, बिना उसकी जानकारी हासिल किए, जहां एक गलत निर्णय तुम्हारी मां के लिए जीवन-मरण का सवाल खड़ा कर सकता है। जबकि डेढ़-दो सौ रुपए का खाना मंगाने के पीछे तुम इतनी मगजमारी करते, और छानबीन करते हो। क्या तुम्हें अपनी बेवकूफी का कुछ अंदाजा है? युवक शर्मिंदा हो गया।

ये हालात सिर्फ युवाओं के नहीं, इसके शिकार कुछ हद तक अब प्रौढ़ भी होने लगे हैं। हम अपनी जिंदगी के महत्त्वपूर्ण और कठिन निर्णयों को मामूली समझने लगे हैं। शादी के लिए या फिर सहजीवन के लिए साथी चुनने में हम ज्यादा वक्त और ऊर्जा भले न लगाएं, पर मामूली निर्णय को जरूरत से ज्यादा तवज्जो देने लगे हैं। फैशन की होड़ और बेकार की जोड़-तोड़ के जंजाल में हम ऐसे फंसे हैं कि अपनी मानसिक शांति खो बैठे हैं। क्या हमने सोचा है कि आखिर इसकी वजह क्या है? सबसे बड़ी वजह है, ज्यादा विकल्पों की मौजूदगी।

हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं, जहां सब कुछ बहुतायत में उपलब्ध है। सुविधाएं अंतहीन हैं और बाजार ढेर सारे विकल्पों से भरे पड़े हैं। यही अधिकता हमारी मानसिक अशांति, चिंता, दुख, बेचैनी और अवसाद की सबसे बड़ी वजह है। असल में आज की तारीख में हमें सबसे ज्यादा परेशान वह चीज करती है, जिसे हम खरीद नहीं पाए। सभी जरूरी और गैरजरूरी सामान की खरीदारी के लिए हमारे सामने इतने विकल्प होते हैं कि हम भ्रमित और बेचैन हो जाते हैं कि आखिर इनमें से कौन-सा चुनें। हालत यह है कि जो टीवी हमने लिया, उससे अलग दूसरे के पास है तो भी हम दुखी हो जाते हैं।
करीब दो दशक पहले हर चीज के सीमित विकल्प होते थे। शादी में खाने की चीजें गिनती की होती थीं। फिल्में थोक भाव से नहीं आती थीं। सामाजिक स्तर पर दिखावा आज जैसा नहीं था। तब हम एक उपभोक्ता के रूप में इतने बेचैन, दुखी और भ्रमित नहीं रहते थे। कमरे में फर्नीचर के नाम पर एक गद्दा और अलमारी होती थी, जिसमें पूरा परिवार अपने कपड़े रखता था। लेकिन अब ज्यादातर चीजों को चुनने के लिए भी काफी माथापच्ची करनी पड़ती है।

‘बहुतायत के युग का जीवन पर प्रभाव’ के विषय में अध्ययन करने वाले समाज वैज्ञानिक कहते हैं कि सुख और खुशहाली के लिए विकल्पों की बहुतायत बिल्कुल जरूरी नहीं है। जरूरत से ज्यादा विकल्पों की उपलब्धता इंसानी दिमाग को शिथिल या निष्क्रिय कर सकती है, जिससे अंत में हम वह खरीद लेते हैं, जो हमारे लिए ठीक नहीं।

हमने देखा होगा कि जिन रेस्तरां में सब्जियों, रोटियों और अन्य चीजों के बहुत सारे विकल्प मिल जाते हैं, वहां निर्णय लेने में काफी देर लग जाती है और तब तक हमारी भूख मर जाती है। जबकि थाली या सीमित विकल्पों वाली जगह पर हम ज्यादा अच्छी तरह संतुष्ट होकर भोजन कर सकते हैं। कहीं जाने के लिए पहले एक-दो विकल्प होते थे, या तो टैक्सी ले लें या बस से चले जाएं, लेकिन अब हमारे पास एप पर कई टैक्सियों के विकल्प हैं। स्मार्टफोन के दर्जनों विकल्प है। खरीदारी के अनगिनत विकल्प हैं। किसी माल, मोहल्ले की दुकान, बड़े बाजार या फिर आनलाइन खरीदारी कर लें।

ज्यादा विकल्पों ने हमारा जीवन कुछ मामलों में आसान भले बनाया हो, मगर हकीकत यह है कि इन्होंने जीवन को पहले से ज्यादा जटिल और जहरीला बनाने के साथ-साथ हमारी शारीरिक-मानसिक क्षमता पर जंग लगाने का भी काम किया है। हमें चिढ़ होती है, जब भारी मशक्कत के बाद चुनी गई वस्तु हमें खत्म हो जाने के कारण नहीं मिल पाती, जबकि हमारे किसी मित्र को वह मिल जाती है। ऐसे में हम खुद को हारा हुआ और पिछड़ा मान कर बेचैन हो जाते हैं। हमारी सारी शारीरिक-मानसिक ऊर्जा इस बात में खर्च हो रही है कि हम दूसरे से बेहतर, होशियार और आगे कैसे नजर आएं। बजाय अपनी जरूरत पर आधारित बेहतरी के प्रयास के हम इन अर्थहीन मसलों में उलझे रहते हैं।