हमारे समाज में कई लोग ऐसे होते हैं, जो सदैव नकारात्मकता फैलाने में लगे होते हैं। उनकी दृष्टि में केवल वे खुद सही होते हैं, बाकी सब गलत होते हैं। वास्तव में जो विरोध करते हैं, वे गलत नहीं होते, बल्कि वे अलग होते हैं। जो अलग होते हैं, वही कुछ ऐसा करते हैं, जो अब तक नहीं हुआ होता है। इस उक्ति को अगर विस्तार दिया जाए, तो यह हमारे सामने एक नई इबारत के रूप में पेश होगी। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर विरोध की भावना होती है। कुछ इसे व्यक्त करते हैं ओर कुछ नहीं करते। कुछ अपनी इस भावना को विरोध में बदलकर सभी का अहित करते रहते हैं, तो कुछ के विरोध विद्रोह के रूप में हमारे सामने आते हैं।
हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसे भी पल आते रहते हैं जब हमें गलत साबित कर दिया जाता है।
कुछ समझने के लिए सोच को भी बदलना होगा
हम लाख समझाते हैं कि हम कतई गलत नहीं हैं, बस हमारी सोच कुछ अलग है, इसलिए हमारा काम आपको समझ में नहीं आ रहा है। हो सकता है कि आपको हमारा काम हमारे न रहने पर समझ में आए, लेकिन भीड़ उनकी बात नहीं मानती। वह अपना गुस्सा उस तथाकथित गलत व्यक्ति पर उतारती है। इससे वह व्यक्ति या तो मारा जाता है या फिर वहां से निकाल दिया जाता है। बरसों बाद उस व्यक्ति की बात सच साबित होती है, तो उसकी बात को तब सुनने वालों को निराशा होती है। उनके पास पछतावे के सिवा कुछ नहीं होता।
इसलिए जब भी कहीं किसी का विरोध हो रहा हो, तो उस विरोध करने वाले व्यक्ति को समझने की कोशिश की जानी चाहिए। पूरी भीड़ एक तरफ ही होगी। यह भी सच है कि भीड़ के पास विवेक या बुद्धि नहीं होती। भीड़ का केवल आक्रामक होना यह दर्शाता है कि उसमें शामिल लोगों की बुद्धि भी काम करना बंद कर चुकी है। अपनी एकजुटता का परिचय देते हुए इस तरह की भीड़ विनाश को आमंत्रित करती है और अपना ही नुकसान करती है। विरोध करने वाले का साथ बहुत कम लोग देते हैं। कई बार तो विरोधी अकेला ही खड़ा होता है।
विरोध की आवाज को अधिक समय तक कैद में नहीं रखा जा सकता। विरोध की आवाज में इतना दम होता है कि जब वह आती है, तो एक विस्फोट के रूप में आती है। अपनी स्थिति को समझने के लिए राजा-महाराजा पहले रात में आम आदमी की तरह वेश बदलकर अपने राज्य में घूमते थे। विरोध करने वाला हर बार गलत नहीं होता, वह अलग होता है। कई बार वह दूरदर्शी होता है। ऐसे लोगों को समय की पदचाप को पहचानना आता है। इसीलिए वह कुछ अलग सोचता है। वह भीड़ से अलग होता है। विरोध करने के पहले वह धीमे से सामने वाले को समझाने की कोशिश भी करता है।
कोशिशें नाकाम होने के बाद ही वह विरोध का परचम उठाता है। विरोध को बौना करने के प्रयास निरंतर जारी रहते हैं। कई बार ये कोशिशें कामयाब भी होती हैं। पर विवेक पर आधारित विरोध तो विरोध होता है। वह किसी न किसी तरह से बाहर आ ही जाता है। ऐसा एक विरोधी जब खत्म होता है, तो वह अपने विचारों की झोली कहीं छोड़ देता है। यह झोली भीड़ में ही किसी के हाथ लग जाती है। धीरे-धीरे झोली के विचार पुष्पित और पल्लवित होने लगते हैं।
कई लोग असहमति और विवेक पर आधारित विरोध को जानते-बूझते हुए भी अनदेखा करते हैं। ऐसे विरोध में संभवत: सबका हित छिपा होता है। अगर अकेले का हित किसी विरोध की जड़ में है, तो वह अधिक समय तक जीवित नहीं रहता, क्योंकि इसमें स्वार्थ के तत्त्व होते हैं। जिस विरोध में सबका हित हो, वही विरोध अधिक समय तक जीवित रहता है। विरोध में सद्विचार होता है। इसे समझने के लिए दूरदर्शिता की आवश्यकता होती है। विरोध ऐसा होना चाहिए कि उससे किसी का हित हो, मगर जरा भी नुकसान न हो।
जापान में जूते की एक कंपनी के कर्मचारियों को विरोध जताना था, तो सबने यह फैसला किया कि वे सब केवल एक ही जूता बनाएंगे, इससे कंपनी को नुकसान नहीं होगा। जब तक उनकी बातें नहीं सुनी जाएंगी, तब तक वे एक ही पांव का जूता बनाते रहेंगे। इससे कंपनी के मालिक ने कर्मचारियों की भावनाओं को समझा और उनकी समस्याओं को हल करने की दिशा में कदम उठाया। विरोध में अहित न हो, इसका पूरा खयाल रखा जाए, तो ऐसे विरोध का बहुत से लोग समर्थन करेंगे। जो नहीं करेंगे, उनका पर्दाफाश हो जाएगा।
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि हमारा एक हाथ अगर विरोध के लिए उठ रहा है, तो दूसरा हाथ किसी के सिर पर संरक्षण के रूप में होना चाहिए। ऐसे उदाहरण अक्सर सामने आते रहते हैं कि अपने आग्रहों की वजह से कुछ लोग किसी बात का विरोध करना शुरू कर देते हैं, जबकि यह संभव है कि वह बात व्यापक जनहित में कही जा रही हो। यह भी संभव है कि उस बात या पहल में उस व्यक्ति का भी हित शामिल हो, जो महज विरोध के लिए विरोध करता है। इसलिए विरोध तभी सार्थक है, जब उसका आधार विवेक पर टिका हो।