दुनिया के कई देशों में ऐसी दुकानें खुल रही हैं, जहां कई तरह के कपड़े आदि किराए पर उपलब्ध कराए जा रहे हैं। कोट, सोने के कपड़े, तैरने की पोशाक, बच्चों और बड़ों के लिए जूते वगैरह। सवाल है कि आखिर वे कौन लोग हैं, जो पहनने के इन कपड़ों को खरीदने के बजाय इन्हें कुछ दिनों के लिए किराए पर ले रहे हैं। जाहिर है, इसमें कपड़े की जरूरत की अवधि के पैमाने के समांतर कमजोर होती आर्थिक परिस्थितियों की भूमिका भी होगी। कह सकते हैं कि हमारे समाज की परंपराएं वहां नए अंदाज में लौट रही हैं। हमारे यहां पुराने कपड़ों में से नए छोटे बच्चों के लिए सिल लिए जाते थे। बड़े हो चुके बच्चों के कपड़े छोटे बच्चे, भाई बहन पहनते थे। पिता के कपड़े पुत्र और माताओं की साड़ियां, सूट, स्वेटर, कोट आदि बेटियां पहन लेती थीं।

पुराने इंसान और पुराने कपड़े

संभवत अब भी अनेक पिता अपनी कद-काठी के पुत्र के वस्त्र पहनने के लिए तैयार हो जाएंगे, लेकिन शायद पुत्र ऐसा न कर पाएं। विकसित होती या फिर बदलती आर्थिक स्थितियों ने भी इस स्थिति को काफी बदला है। मगर जब पुराने होते जा रहे इंसानों की परवाह कम होती गई है तो पुराने कपड़ों की संभाल कैसे रहेगी! दिलचस्प यह है कि वहां एक साल के बच्चे के ज्यादातर कपड़े किराए पर लिए जा रहे हैं। बच्चे बड़े होते रहते हैं और कपड़े महंगे। महंगे कपड़े किराए पर लेना उचित समझते हुए खरीदने से बेहतर मान लें तो हमारे यहां भी ऐसा शुरू हो सकता है।

हमारा देश और समाज वैसे भी ज्यादा दिखावे वाला, फैशनपरस्त होता जा रहा है। अब तो नए कपड़े खूब खरीदने का रुझान जिंदगी का जरूरी हिस्सा हो गया है। यह बात दीगर है कि उनमें से काफी पोशाकें तो आपस में उलझी, परेशान पड़ी रहती हैं। इस बीच और नए कपड़े खरीद लिए जाते हैं। कुछ वस्त्रालय पुराने कपड़े लेकर नए कपड़ों में छूट का कूपन देते हैं, जिसका नियमित ग्राहक फायदा उठाते हैं, लेकिन वस्त्र बढ़ते जाते हैं।

विवाह में कम न होते दिखावे ने लहंगों के इस्तेमाल और खरीदारी में खूब बढ़ोतरी की है। कपड़े की दुकान में लहंगा मिलना आज जरूरी हो गया है। अनेक दुल्हनें भारी लहंगे का बोझ पहनकर कुछ देर बाद थक जाती हैं, लेकिन विवाह के पारिवारिक, पवित्र, पारंपरिक, सांस्कृतिक, सामाजिक बंधन में मनपसंद लहंगा पहन कर ही प्रवेश करती हैं। हल्के से लेकर भारी वजन का लहंगा उपलब्ध कराया जा रहा है। अगर दुल्हन पतली, कमजोर हो तो लहंगे के साथ ‘गैलस’ भी दिए जा रहे हैं।

शादी के बाद परिवारों में आपसी परेशानियां, पारिवारिक परिस्थितियां, नापसंद लहंगा बनकर आती हैं। धीरे-धीरे पुरानी हो रही नववधू अपना वह लहंगा भूल जाती है जो उसने दौड़-भाग करके कई दुकानें देखकर, मोल-भाव करने के बाद महंगा खरीदा होता है। अक्सर बजट कुछ रहता है और खर्च कुछ और। कभी न कभी यह जरूर लगता है कि लहंगे पर बहुत खर्च हो गया।

लहंगा किराए पर लेती तो ऐसा न लगता, लेकिन पुराना वस्त्र तो पुराना होता है! इसीलिए ज्यादातर दुल्हनें नया लहंगा पहनना पसंद करती हैं। विवाह में प्रयोग के बाद लहंगे का गाउन वगैरह भी बनाया जा सकता है। फिलहाल पच्चीस हजार कीमत की साड़ी एक दिन के लिए पांच सौ रुपए किराए में मिल जा सकती है। परिवार की महिलाओं, पड़ोसनों और सहेलियों ने तो एक दूसरे की साड़ियां कभी न कभी पहनी ही होती हैं। देश के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग किस्म की साड़ियों का संग्रह बहुत महिलाओं के पास होगा, जिसमें दर्जन या सैकड़ों के हिसाब से चुनिंदा साड़ियां संभालकर रखी गई होंगी। दूल्हे के मनपसंद परिधान, सूट और अचकन वगैरह भी इन्हीं दुकानों पर जेब की क्षमता में किराए पर मिल जाते हैं। नए तो मिलते ही हैं।

‘नेकी की दीवार’ पर टांगे कपड़े काफी लोगों के काम आए होंगे, लेकिन ऐसा भी देखा गया कि कम प्रयोग किए कपड़े एक जगह रखे रह गए। शायद गलत जगह चुन लेने और खराब प्रबंधन के कारण उन वस्त्रों की दुर्गति हुई। कई संस्थाओं द्वारा पुराने वस्त्र इकट्ठा कर बांटने का अस्थायी सामाजिक सेवा कार्यक्रम रहता है। पहने और बेचे जा सकने वाले पुराने कपड़ों के बदले, स्टील के बर्तन वगैरह देने का सौदा करती हुई महिलाएं शायद अभी भी कई जगह आती होंगी। ऐसे कपड़े सप्ताह के किसी दिन, सड़क किनारे या बाजार की छुट्टी के दिन बिकते देखे गए हैं। हमारे यहां विदेश से दान में मिले कपड़े भी खूब बिकते हैं। बताया जाता है कि इनमें से कुछ की गुणवत्ता बेहतर होती है।

पारिवारिक सदस्यों में तो ऐसा हो सकता है कि कपड़ों को बेहतर देखभाल के साथ रखा जाए, बार-बार पहना जाए। इस बारे में सभी छोटे बड़ों को निजी जिम्मेदारी लेनी चाहिए, खासतौर पर ऐसे कपड़े जो महंगे खरीदे हों, उनकी डिजाइन और माप बेहतर हो, रंग पसंद हो। इस तरह कुछ बचत भी की जा सकती है। ऐसे कुछ कपड़े तो हर इंसान की जिंदगी में आते ही हैं जो लंबे अरसे तक, बार-बार पहने जाते हैं। कुछ ऐसे भी होते हैं जो वक्त के साथ पसंद नहीं रहते या शरीर उनके काबिल नहीं रहता। ऐसे कपड़े अगर पहनने लायक हों तो जरूरतमंद तक जरूर पहुंचाने चाहिए।