सृष्टि के सृजन काल से ही ध्वनि की अपनी एक पहचान और विशेषता रही है। प्रकृति के विभिन्न अंगों ने सर्वप्रथम इसका आविष्कार किया, जैसे वर्षा ऋतु में बादलों का गर्जन और बादल फटना, आकाशीय बिजली की चमक, तेज हवा से पेड़-पौधों का बहना, नदियों का कलरव, सागर की लहरों की अठखेलियां और पहाड़ों के टूटने से जो आवाज आसपास के क्षेत्रों में गूंजती है, वह कभी-कभी अपनी सीमा में कुछ पल के लिए कर्णप्रिय तो लगती है, लेकिन जब प्रकृति अपने क्रूर स्वरों से पूरे वातावरण को अपने दामन में समेट लेती है तो वह असीमित विभीषिका का रौद्र रूप दिखने लगता है। सभ्यता के विकास के दौर ने हमें यांत्रिक संसाधनों के क्रम में आवाज की एक विशिष्ट पहचान वृहद क्षेत्र में दिलाई है। संगीत की विविध विधाओं ने भी मानव जगत को स्वर लहरियों से परिचय कराते हुए विभिन्न किस्मों के स्वरों से साक्षात्कार कराया है।
लाउडस्पीकर के जमाने से आधुनिक रंगीन टीवी तक
इसी दौर में लाउडस्पीकर का काल सबसे पहले सार्वजनिक समारोहों के लिए उपयोग में लाया गया। बचपन में गांव के किसी कार्यक्रम में इसे बजते देखते समय मन यह सहसा कल्पना कर बैठता था कि इस लाउडस्पीकर में आखिर कोई व्यक्ति कैसे प्रवेश कर गाना गा रहा है। ट्रांजिस्टर, रेडियो, टेप रिकार्डर, वीसीआर, वीसीपी के कालखंड के बाद श्वेत-श्याम टेलीविजन ने मनोरंजन की दुनिया में अपनी आवाज की जादूगरी जाहिर कर दी। आज रंगीन टीवी के आधुनिक पारदर्शी स्क्रीन ने चलचित्र गृहों की चमक फीकी कर दी है। इन चीजों के आविष्कार ने जन-मन के मनोरंजन के असंख्य आकर्षक व्यंजन परोसे दिए हैं।
कोई भी विधा अपने मुकाम पर देर तक नहीं रुक पाती
चूंकि परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, इसलिए कोई भी विधा अपने मुकाम पर अधिक देर तक नहीं रुक पाती। विज्ञान और प्रौद्योगिकी अनुसंधान ने आज मनोरंजन के कई सामग्री विकसित कर दिए हैं। शादी-विवाह और अन्य अनुष्ठान की पुरानी परंपराओं में संगीत स्वर की कभी मनभावन भूमिका हुआ करती थी। यहां तक कि विभिन्न ऋतुओं, यथा चैत्र मास में चैता, होली में फगुआ, सावन-भादो में कजरी-ठुमरी, बच्चे के जन्म केसमय सोहर और विवाह में लोकगीतों की बहुलता से पूरा समाज आपस में बंधा हुआ दिखता था। प्रकृति प्रेमी कवि और साहित्यकारों ने संगीत को आत्मा से सीधा संबंध स्थापित होने का दावा किया है। इसलिए उन्होंने संगीत सुनने की सीमा भी तय की है। इनके कथन हैं कि अधिक संगीत की लत से व्यक्ति भीरू और कमजोर हो जाता है, ठीक उसी प्रकार जैसे कोई अधिक व्यायाम करे तो वह सदा लड़ने-भिड़ने की जुगत तलाशता है।
इन दिनों ध्वनि प्रदूषण एक चिंतित करने वाला विषय मानव जीवन को कुप्रभावित किए हुए है। फर्रांटा भरती मोटर साइकिलें, बम-पटाखे जैसी आवाज वाले वाहनों के तेज हार्न और धार्मिक-सांस्कृतिक आयोजनों में ध्वनि विस्तारक यंत्र के स्वर से कई गुना अधिक आवाज के धारक डीजे बजाने की प्रथा ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है। डीजे के साम्राज्य में अतिशय वृद्धि का ही परिणाम है कि शादी-विवाह, मुंडन, पूजा, कीर्तन, मूर्ति विसर्जन, जन्म दिवस समारोह आदि में देर रात तक इसके कानफाड़ू आवाज के कई प्रतिकूल असर नगरीय संस्कृति में अधिक देखे जा रहे हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि देश में कहीं भी रात्रि के दस बजे के बाद कोई भी ध्वनि विस्तारक यंत्र नहीं बजाए जाएं।
आज स्थिति मुश्किल हो गई है, क्योंकि इक्के-दुक्के मामले छोड़कर ज्यादातर समारोहों में डीजे का संचालन तीव्र गति से हो रहा है। बहुत ऊंचे स्वर में बज रहे डीजे एक ओर वृद्धों, रोगियों, बच्चों की नींद खराब करते हैं, वहीं समारोह में शामिल अतिथियों के लिए सबसे विकट स्थिति यह होती है कि वे आपस में घनघोर आवाज के कारण बात नहीं कर पाते हैं। चिकित्सकों की मान्यता है कि हमारे कान सामान्य रूप में सन्नाटे तक की आवाज सुन सकते हैं, जो शून्य से पांच डेसिबल तक होती है।
ऐसा भी देखा गया है कि डीजे की कर्कश आवाज से कभी-कभी घरों की दीवारें, बर्तन, कांच आदि में कंपन पैदा हो जाती है। ग्रामीण इलाकों के कई समारोहों में ट्रैक्टर, ट्राली, पिकअप वाहन आदि पर बड़े साउंड बाक्स लगाकर तेज आवाज में थोड़े से लोग भले खुशी से झूमते नजर आते हैं, मगर दूसरों के लिए यह कष्टकारक है। तेज स्वर के यंत्रों के उपयोग के कारण श्रवण क्षमता में कमी की बीमारी कुछ वर्षों से तेजी से फैल रही है।
सवाल यह है कि इस भीषण समस्या से निजात कैसे पाया जाए। सिर्फ कानूनी प्रावधानों पर निर्भर रहना उचित नहीं है। स्वर साधकों का कथन है कि संगीत कर्णप्रिय है, जबकि शोर शांत वातावरण में प्रतिकूल असर डालती है। स्वर में अधिक प्रबलता ही शोर को जन्म देती है, जिससे ध्वनि प्रदूषण अपनी आवृत्ति बढ़ा रही है। वह ध्वनि जो हमारे कानों को मधुर और मीठा लगे, उसे संगीत माना गया है, जबकि एक अप्रिय और उबाऊ ध्वनि जो कानों को असहनीय लगे, उसे शोर के रूप में स्वीकार किया गया है। मधुर संगीत जहां दिल के मरीजों के लिए जादू का काम करता है, वहीं कानफाड़ू संगीत से दिल की धड़कनें बढ़ या रुक भी जाती हैं।
जरूरत इस बात की है कि संगीत के सकारात्मक पक्ष को हम गहराई से अपनी संवेदनाओं से जोड़ें और जितना संभव हो सके, आसपास के क्षेत्रों में जन जागरण के माध्यम से तीव्र शोर मचाने वाले से इसे कम करने का आग्रह करें। यह सच है कि व्यावसायिक प्रकल्प ने हमारे दैनिक जीवन के सभी अंशों पर कब्जा जमा रखा है, जिसकी अनुमति खुद हमने जब प्रदान की है तो उससे मुक्ति का मार्ग भी हमें ही ढूंढ़ना होगा।