मानव जीवन प्रकृति द्वारा दिया गया एक अमूल्य वरदान है, लेकिन यह जीवन भी अलग-अलग तरह की इच्छाओं, सुखों और कष्टों से जुड़ा हुआ है। मनुष्य का स्वाभाविक गुण है कि वह जीवनपर्यंत सुख और आनंद को भोगना चाहता है, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो पाता, क्योंकि जिस आनंद की उसे चाह है, वह सच्चा आनंद है ही नहीं।

आनंद तो एक ऐसा भाव है जो आत्मा की अनंत गहराइयों से उपजता है। इसका बाह्य वातावरण और परिवेश से लेशमात्र भी लेना-देना नहीं होता है। भौतिकता कभी आनंद का स्रोत नहीं हो सकती। बाहरी जगत की वस्तुएं, व्यक्ति और परिस्थितियां सच्चे आनंद का आधार निर्मित करने में कभी समर्थ नहीं हो सकती हैं।

सच्चे आनंद का सूत्र स्वयं मनुष्य के पास ही होता है

कबीरदास ने कहा है, ‘कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूंढ़े बन माहि। ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया देखत नाहि।’ ठीक यही स्थिति आज मनुष्य की है। सही मायने में देखा जाए तो सच्चे आनंद के सूत्र स्वयं मनुष्य के पास ही होते हैं, लेकिन बुद्धि और विवेक पर अज्ञानता का आवरण होने के कारण वह उसे पहचानने में असमर्थ एवं असफल रहता है।

आनंद का प्रथम और सबसे अहम सूत्र है- आत्मबोध या आत्मचिंतन। मगर बाह्य विषयों के मायाजाल में बुरी तरह जकड़ा होने के कारण मनुष्य इस अमूल्य सूत्र को ढूंढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाता। उसकी दशा कहीं न कहीं उस हिरन जैसी हो जाती है जो अपनी ही नाभि में स्थित कस्तूरी को नहीं ढूंढ़ पाता और यहां वहां मारा-मारा फिरता है। आत्मचिंतन हमें भले ही कुछ समय के लिए बाह्य जगत की चकाचौंध से दूर लिए जाता है, लेकिन जिस मनुष्य ने एक बार भली-भांति आत्मचिंतन, आत्मनिरीक्षण और आत्मावलोकन की प्रक्रिया को साध लिया, वह आनंद की एक ऐसी अवस्था को प्राप्त कर लेता है जो दिव्य और अनुपम होती है।

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आत्मचिंतन और आत्मबोध रूपी कुंजी जिसके हाथ लग गई, वह अनेक व्यर्थ के बंधनों से मुक्ति पाकर स्वयं के आंतरिक जगत में ही अपार प्रसन्नता को प्राप्त कर लेता है। आत्मबोध हो जाने पर बाहरी सुख नितांत निम्न कोटि के प्रतीत होने लगते हैं। लेकिन आनंद की इस दुर्लभ कुंजी को प्राप्त कर पाना भी बेहद दुष्कर कार्य है। इसके लिए हमें बाह्य विषयों से विमुख होते हुए ‘स्व’ पर केंद्रित होकर अपने आप को जानने के लिए कठिन साधना में रत होना पड़ेगा।

आनंद का दूसरा महत्त्वपूर्ण सूत्र है स्वीकृति। अगर हम सच्चे अर्थों में आनंद के सागर में डूबना चाहते हैं, तो हमें जीवन की प्रत्येक परिस्थिति को स्वीकार करना पड़ेगा। परिस्थितियां हमारे अनुकूल भी होंगी और प्रतिकूल भी। मगर जहां हमें अनुकूल परिस्थितियों में उत्साह के भाव से ओतप्रोत रहना होगा, वहीं प्रतिकूल परिस्थितियों में धैर्य बनाए रखते हुए अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना होगा। घड़ी-घड़ी परिवर्तनशील जीवन की नौका सदैव हमारी अपेक्षाओं के अनुसार नहीं चल सकती। इस सत्य को स्वीकारते हुए जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में संतुलित मानसिक अवस्था को बनाए रखना आनंद का दूसरा प्रमुख सूत्र है।

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आनंद के तीसरे सूत्र के रूप में हम कृतज्ञता पर गौर कर सकते हैं। जब हम छोटे-छोटे अवसरों पर भी दूसरों के प्रति कृतज्ञता का भाव रखेंगे तो निश्चित रूप से हम अहम के भाव से पूर्णतया मुक्त हो जाएंगे। यह अहम का भाव ही है जोकि हमें सच्चे आनंद से दूर ले जाता है। जिस दिन हमारे अंतर्मन से अहं का अंधकार समाप्त हो जाएगा, उसी दिन हमारा अंतर्मन एक दिव्य आनंद के आलोक से जगमगा उठेगा।

प्राणियों के प्रति सेवाभाव भी आनंद का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। जब हम दूसरों के कष्ट में स्वयं अपने कष्ट को अनुभव करने लगेंगे, तब हमारे अंदर दूसरों के प्रति दया, करुणा और सेवा की भावना जागृत होगी। ऐसा करके हम आत्मतृप्ति के अद्भुत भाव से पूरित हो जाएंगे और आनंद की सरिता हमारे अंतर्मन को पूरी तरह से सिक्त कर देगी।

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आनंद कोई क्षणिक भाव नहीं है जो एक बार मन में उत्पन्न हुआ और कुछ ही देर में समाप्त हो गया, बल्कि यह एक गहरा और शाश्वत भाव है जो अगर एक बार अंतर्मन में समा गया, तो फिर हृदय और मन हमेशा के लिए एक अद्भुत दिव्यता के भाव से सराबोर हो जाते हैं। बाह्य जगत और बाहरी साधनों में आनंद को ढूंढ़ना पूरी तरह से बेमानी कृत्य होगा। सच्चा आनंद तभी उत्पन्न हो सकता है, जब हम अपने अंतर्मन में कृतज्ञता, करुणा, सहयोग और निस्वार्थ सेवा के भावों को समेटते हुए जीवन की प्रत्येक परिस्थिति को स्वीकारना सीख जाते हैं।

सच्चा आनंद तो वास्तव में हमारी अंतरात्मा में ही छिपा हुआ है। सिर्फ आवश्यकता अज्ञानता, स्वार्थ और अहंकार के आवरण को हटाने की है। जिस दिन और क्षण हम इन सभी दुर्गुणों से दूर हो जाते हैं, उसी दिन हम सच्चे आनंद तक पहुंचने का मार्ग भी प्राप्त कर लेते हैं।

आनंद एक ऐसा स्थायी भाव है जो मानसिक शांति, आत्मस्वीकृति और आत्मबोध के माध्यम से हृदय की गहराइयों में उत्पन्न होता है। यह निश्चित है कि एक बार सच्चे आनंद का स्वाद मिल जाने पर अन्य सभी छद्म आनंद मूल्यहीन प्रतीत होने लगेंगे। सच्चे आनंद को आत्मसात करने के लिए हमें प्रकृति और उसके सभी अंगों, जैसे साहित्य, संगीत, कला, ध्यान, योग और प्रार्थना से गहरा जुड़ाव रखना होगा, क्योंकि प्रकृति से जुड़कर ही हम सभी कठिनाइयों से मुक्त हो सकते हैं।

जीवन की प्रत्येक मुश्किल का समाधान प्रकृति है। जब मुश्किलें ही नहीं रहेगी तो फिर निस्संदेह जीवन में आनंद ही आनंद होगा। यह कहा जा सकता है कि सच्चे आनंद के सूत्र खुद हमारे अंदर ही निहित हैं। उन्हें कहीं भी बाहर जाकर खोजने की आवश्यकता नहीं है।