बरसात के मौसम में सांप के काटने से हुई मौत की खबरें भले ही बहुत ज्यादा महत्व हासिल न कर पाती हों, लेकिन सांप काटने से हुई मौत से जुड़ी घटनाएं समाज की दशा और दिशा के बारे में भी बताती हैं। ज्यादातर मामले में सांप काटने से किसी व्यक्ति की मौत इसलिए हो जाती है कि लोग अस्पताल न जाकर झाड़-फूंक और मंत्र से ठीक करने का दावा करने वाले तांत्रिकों के पास चले जाते हैं।
निश्चित रूप से किसी की असामयिक मृत्यु पीड़ा पहुंचाती है
इसी क्रम में सही इलाज नहीं मिल पाता है और वक्त ज्यादा बीतने के साथ सर्पदंश के शिकार लोगों की मृत्यु हो जाती है। निश्चित रूप से किसी की असामयिक मृत्यु पीड़ा पहुंचाती है, लेकिन उससे ज्यादा दुख की बात तब होती है, जब लोग अंधविश्वास में फंसकर झाड़-फूंक और मंत्र में विश्वास करके इलाज के लिए तांत्रिक के पास चले जाते हैं। वहां जाने के बाद बच सकने वाले लोग भी कई बार नहीं बच पाते हैं। समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी इसी झाड़-फूंक और तंत्र-मंत्र में विश्वास करता है।
ऐसा केवल सांप के काटने पर ही नहीं, किसी अन्य वजह से भी बीमार होने और ज्यादा समय तक ठीक नहीं होने पर लोग तंत्र-मंत्र का सहारा लेते हैं। ऐसे में कई बार ठीक होने वाली बीमारी भी बिगड़ जाती है और मरीज की मौत हो जाती है। यों सांप काटने से जान जाने की ज्यादातर घटनाएं ग्रामीण क्षेत्रों में होती हैं और गरीब दलित-पिछड़े लोग इसके ज्यादा शिकार होते हैं। एक खबर के मुताबिक वर्ष 2019 में पूरी दुनिया में सर्पदंश की चपेट में आए तिरसठ हजार लोगों की मौत हो गई। इसमें अस्सी फीसद यानी इक्यावन हजार लोगों की मौत अकेले भारत में हुई।
धार्मिक स्थलों पर झाड़-फूंक करने वालों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है
मरने वालों की संख्या निश्चित रूप से बहुत कम की जा सकती है, अगर पीड़ित को सही समय पर उचित इलाज मिल जाए। ऐसी खबरें अक्सर पढ़ने को मिल जाती हैं, जिसमें लोग अपनी हर प्रकार की समस्या के समाधान के लिए तांत्रिक और ‘बाबाओं’ की मदद लेते हैं। आज भी छोटे शहरों में तोता द्वारा निकाली हुई पर्ची पर लिखी बात को लोग अपनी किस्मत समझ लेते हैं। तोता अपने आप को कितना खुशनसीब समझता होगा कि वह कैसे लोगों की किस्मत का फैसला अपनी ‘चुहलबाजी’ से करता है। धार्मिक स्थलों पर झाड़-फूंक करने वाले बाबाओं की संख्या भी लगातार बढ़ रही है, जो जटिल से जटिल रोगों का इलाज करने का दावा करते रहते हैं।
हम कहने को आधुनिक भारत में रह रहे हैं, लेकिन आज देश का एक खासा हिस्सा मानसिक रूप से जड़ अवस्था में सोचता-समझता है और कई बार बहुत बीमार अवस्था में जी रहा लगता है। कुछ समय पहले की एक घटना है। तमिलनाडु के एक गांव के मंदिर में एक नींबू पैंतीस हजार रुपए में नीलाम हुआ, क्योंकि मान्यता है कि सबसे अधिक बोली लगाकर नींबू प्राप्त करने वाले इंसान को आने वाले वर्षों के लिए धन और अच्छे स्वास्थ्य का आशीर्वाद मिलता है। ऐसा माना जाता है कि नींबू में एक अजीब ‘जादू’ है, जिसे लोग हरी मिर्च के साथ धागे में बांधकर घर और दुकान के बाहर या गाड़ी पर लटका देते हैं, ताकि बुरी नजर से बचा जा सके। इसे ‘नजरबट्टू’ भी कहते हैं।
बिहार के एक छोटे से शहर सासाराम में एक महिला सप्ताह में केवल शनिवार के दिन धागे में बांधकर हरी मिर्च और नींबू को बेच कर अपने परिवार का भरण पोषण कर रही है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सप्ताह के सिर्फ एक दिन धागे में बंधा नींबू खरीदने वाले लोगों की तादाद अच्छी-खासी है। इस तरह के नींबू और हरी मिर्च को वैसे लोग भी खरीदते हैं जो अपने खाने के लिए नींबू खरीदने से परहेज करते हैं। ऐसे उदाहरण हर जगह देखे जा सकते हैं। अगर इसे सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो ऐसी कई तरह की ‘खूबसूरत’ तस्वीरें देश के अलग-अलग हिस्सों में देखने को मिल जाएंगी, जिनको आम स्वीकृति प्राप्त है।
कई बार ऐसा लगता है कि हम सिर्फ कहने को आधुनिक हैं। लोगों में अंधविश्वास दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। हम हाथ में सबसे आधुनिक तकनीक से बने यंत्र को हमेशा अपने पास रखते हैं और अपने को तकनीक आधारित विज्ञान का झंडाबरदार मानते हैं, लेकिन हमारी तार्किकता धीरे-धीरे खत्म हो रही है। जो भी हमें परंपरा से दे दिया जाता है, हम बिना सवाल के उस पर अमल करना शुरू कर देते हैं। फिर वह हमारे मनोविज्ञान का हिस्सा हो जाता है और हम उसे लेकर अनुकूलित हो जाते हैं। इसके बाद उसके सही, गलत होने के सवाल हमें असहज करने लगते हैं और हम आंख मूंद कर उसका पालन करते हैं।
सर्पदंश के बाद डाक्टर के पास जाने के बजाय झाड़-फूंक या तंत्र-मंत्र के जरिए ठीक करने का दावा करने वाले तांत्रिकों के पास जाना भी इसी का एक हिस्सा है। समाजशास्त्र की अवधारणा ‘सांस्कृतिक विडंबना’ हमारे समाज के लिए एकदम सटीक बैठ रही है। इस अवधारणा के अनुसार हम भौतिक रूप से बहुत आगे निकल रहे हैं, लेकिन अभौतिक रूप से मतलब वैचारिक रूप से हम पीछे होते जा रहे हैं। भौतिक और अभौतिक तत्त्वों के बीच खाई बढ़ती जा रही हैं। इससे समाज में एक असंतुलन पैदा हो रहा है और जब-जब इस तरह का असंतुलन बढ़ता जाएगा, समाज अंधविश्वास की गिरफ्त में कसता जाएगा।