हम सभी का जीवन विभिन्न परिस्थितियों और भांति-भांति के लोगों के साथ बीतते हुए ही बनता है। यह जरूर हमें महसूस होता है कि हम रोजमर्रा के सामान्य दिनों में अपनी दिनचर्या की पुनरावृत्ति कर रहे हों, जबकि हमारा हर दिन अपने आप में अलग होता है। पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया में अक्सर ऐसी पहेलियां आती रहती हैं, जिनमें बिल्कुल एक से दिखने वाले दो चित्र हमारे सामने रख दिए जाते हैं और हमें उनमें अंतर खोजना रहता है। बहुत गौर से देखने पर सूक्ष्म अंतर हमें नजर भी आते हैं। जैसे किसी एक में व्यक्ति का चेहरा बिना किसी भाव के है, तो दूसरे में वह मुस्करा रहा है। ऐसे ही हमारे जीवन के एक से दिखने वाले दिन भी एक दूसरे से काफी अलग होते हैं।
अक्सर सूक्ष्म भिन्नताओं को हम देख ही नहीं पाते और अपनी नियमित आदतों की धुन में बने रहते हैं। हम बस एक निश्चित जीवनशैली बना लेते हैं और उस पर लगातार बने रहने में संतुष्टि पाने लगते हैं। यह गलत भी नहीं है। अच्छी आदतों को दोहराते रहना बुरा भी नहीं है, पर अगर हम किसी मशीन की तरह रोज के कामों को करते ही रहते हैं, बाकी चीजों के प्रति हम सचेत नही हैं, कोल्हू के बैल या तांगे के घोड़े की तरह एक धुन में अपना रोज का काम निपटा रहे हैं तो हमें एक बार रुक कर थोड़ा विचार करने की जरूरत होगी।
अपनी दिनचर्या को पूरी तरह से नियमों से बंधा हुआ रखने की बजाय थोड़ा-सा लचीलापन रखना जिसमें बदलाव की थोड़ी बहुत गुंजाइश बनी रहे, अपने समय को सुखद बनाने के लिए शायद ठीक होगा। हर दिन अपने आप में नया होता है। थोड़े-बहुत बदलाव से हम उसका सही उपयोग, बेहतर प्रबंधन कर सकते हैं। यह समझ हमें जीवन से जुड़ी अनिश्चितता को लेकर और अधिक सहज और स्वाभाविक भी बनाती है। अचानक से आई नई-नई परिस्थिति को लेकर भी हमारी प्रतिक्रिया सहज होने लगती है, हम अधिक संयम के साथ उसका सामना कर पाते हैं।
जब हम अपने ही बनाए ढांचे से समय-समय पर अपने को मुक्त करते हैं, खुद को सुरक्षा घेरे से थोड़ा बहुत बाहर निकालने की चुनौती देते रहते हैं, तब हम पहले से अधिक बेहतर, संतुलित और सक्षम भी होने लगते हैं। हम सिर्फ किसी यंत्र की तरह काम नहीं कर रहे होते, जिसे निर्धारित काम और परिस्थिति की जगह कुछ और काम या परिस्थियां हटकर दे दी जाए तो यंत्र काम करना बंद कर देता है। हम मशीन नहीं हैं। हम अपनी सारी इंद्रियों का उपयोग कर नई परिस्थिति को समझ रहे होते हैं, उसको बेहतर तरीके से करने की रणनीति बना रहे होते हैं, खुद को उस काम के लिए तैयार कर रहे होते हैं।
हमारे द्वारा स्वयं पर जबरन थोपे अस्वाभाविक नियम कभी-कभी हमें आत्मकेंद्रित बना सकते हैं। उन्हें पूरा करने को लेकर हमारी जिद हमारे आसपास के लोगों पर भी नकारात्मक प्रभाव डालने लगती है। किसी भी तरह का नियम बनाते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि उसके कारण किसी और को परेशानी तो नहीं हो रही। हमारी आदतें भी किसी के जीवन में दुख का कारण बन सकती हैं। अपनी दिनचर्या में हम पेड़-पौधों को रोज पानी पिलाते हैं। यह हमारी नियमित आदत है। इससे हमें संतुष्टि मिलती है। अब हम रोज ऐसा ही करेंगे, यह एक धुन है, जबकि मौसम के अनुरूप पौधे की आवश्यकता के अनुसार हम उसकी देखभाल करें, यह एक अच्छी समझ है, आदत में स्वाभाविक रूप से बदलाव करना होगा।
मसलन, कल से मैं सुबह उठकर अपनी सेहत के लिए विशेष तरह के भोजन का सेवन करूंगा, थोड़ा जल्दी उठकर अपने लिए अपने अनुसार भोजन बनाऊंगा और इस बात का ध्यान रखूंगा कि मेरे कारण दूसरों की दिनचर्या में कोई व्यवधान न आए। ऐसी समझ और आदतों की शुरुआत से समग्र जीवन में सकारात्मक बदलाव आने लगते हैं। यह हमारे व्यक्तित्व के हर पक्ष को छूता है। हमें दूसरों की जरूरतों के प्रति भी और संवेदनशील बनाता है। अपने लिए कुछ करते हुए हमारे मन में दूसरों की सुविधा-असुविधा का भी खयाल बना रहता है।
आदतों को बनाना और आदतों की कैद से खुद को समय-समय पर निकालना, दोनों ही बेहद महत्त्वपूर्ण है। फिर उसका संबंध हमारे द्वारा लंबे समय से बनाए विचारों से हो या हमारे द्वारा किए जा रहे व्यवहार से। किसी एक विचार से जुड़ी सामग्रियों से हटकर भी हमें अक्सर अलग-अलग विचारों को खुले दिमाग से सुनने का प्रयास करते रहना चाहिए। हो सकता है, इसके जरिए हम पुराने और प्रचलित विचारों की जगह अपनी नई बेहतर सोच विकसित कर सकें, जो और लोगों को प्रेरणा दे जाए। हमारे व्यवहार को भी हमें समय-समय पर व्यक्ति और परिस्थिति को देखते हुए संशोधित करते रहना चाहिए। हमारी हंसी-मजाक की सहज प्रवृत्ति हमेशा ही सबको सहज लगे जरूरी नहीं। अगर हम हमेशा अन्यों के साथ आदेशात्मक रवैया अपनाते हैं तो वह भी कड़वाहट और वैमनस्य का कारण बन सकता है। परिस्थिति और अन्यों की मन:स्थिति को समझते हुए उपयुक्त भाषा शिष्टाचार के साथ अपनी बात को रखना, अपने व्यवहार को सौम्य बनाना, व्यवहार में यह सकारात्मक लचीलापन हमारी अच्छी आदतों में शुमार किया जाना चाहिए।
जीवन का रोमांच सरल, सहज विवेकी रहकर आगे बढ़ते रहने में है। हमें नदी की तरह बहते रहना है… अलग-अलग रास्तों से गुजरते हुए कभी खुद को समेटते हुए तो कभी फैलाव की गुंजाइश का मान रखते हुए। प्राकृतिक रूप और रंगों के साथ अपने गंतव्य तक पहुंचने के प्रयास में यह भी जरूरी होगा कि भीतर की निर्मलता और तरलता हमेशा बनी रहे।