बढ़ता बाजारीकरण हम सबको धीरे-धीरे वस्तु में तब्दील कर रहा है। साथ ही बदलते दौर में शहरीकरण हमें आहिस्ता-आहिस्ता मशीन बनाता जा रहा है, जिसमें हम अपनी सहजता खोते जा रहे हैं। अब तमीज के नाम पर अत्यधिक नाप-तोल कर बोलना, दूसरों से अलग दिखने की चाह रखना और व्यक्ति-व्यक्ति के बीच की दूरी बनाना ही प्रगति का परिचायक बनता जा रहा है। मगर इस सबमें हम, हमारा अपना होना कितना खोते जा रहे हैं, इसका हमें भान भी नहीं है। अब सोशल मीडिया पर हमारा आधे से ज्यादा समय मित्रों को बधाइयां देने में गुजर रहा है, लेकिन उन्हीं लोगों के बीच संवाद गायब है।
क्या हम याद कर सकते हैं कि हम खुलकर कब हंसे थे? अब हम हंसना भूलते जा रहे हैं। कई बार देखने में आता है कि लोग इसलिए किसी के दुख में शामिल होते हैं कि औपचारिकता निभानी है। शामिल नहीं हुए तो लोग क्या कहेंगे? इसलिए दुख के समय भी बहुत से लोग चुपचाप बैठे होते हैं, लेकिन उनकी आंखे और कान कुछ और ही ढूंढ़ रहे होते हैं। इस औपचारिकता में शब्द अपनी गहराई खो रहे हैं। किसी के सुख और दुख में शामिल होना उसे अंदर तक महसूस करना है। इसलिए सोशल मीडिया पर इतने मित्र होने के बावजूद हम कई बार इतनी रिक्तता महसूस करते हैं कि हमें अपने आसपास एक दोस्त नहीं दिखाई देता, जिससे हम मन की बात साझा कर सकें। कितनी ही बार लगता है कि आत्महत्या करनेवाला व्यक्ति अगर अपने मन की बात कह पाता तो शायद ऐसा नहीं होता।
अब समूहों में होने वाले स्वाभाविक लोकनृत्य अपनी समृद्ध परंपरा खोते जा रहे हैं
हम हर दिन देखते हैं कि विभिन्न आयोजनों में मंचों पर या ढोल आदि पर नृत्य बेहद औपचारिक दिखाई देते हैं। उनमें वह तड़प दिखाई नहीं देती है। जो नृत्य हमारी आत्मा से होता हुआ शरीर से फूटकर बाहर आता है, वैसा नृत्य कितना स्वाभाविक होता है। ऐसे नृत्य की किसी धुन पर नर्तक का शरीर ही नहीं, रोम-रोम नृत्य करने लगता है। अब समूहों में होने वाले स्वाभाविक लोकनृत्य अपनी समृद्ध परंपरा खोते जा रहे हैं। एक जैसे बेजान नृत्यों की औपचारिकता वह आनंद नहीं देती।
आज सबसे ज्यादा समय हमारा स्मार्टफोन ले रहा है। एक ही कमरे में बैठे उस परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने फोन के स्क्रीन में गुम होते हैं। बच्चों को भी बड़ों को देखकर फोन की ऐसी लत लगने लगी है कि कई बार माताओं को छोटे बच्चों को खाना खिलाते समय भी सेलफोन हाथ में पकड़ाना पड़ता है। बहुत से परिवारों और परिजनों के बीच में महज औपचारिक बातचीत ही हो पाती है, जिससे उनके बीच एक दूसरे को न समझ पाना, कई प्रकार की भ्रांतियों का जन्म लेना, अविश्वास और दूरियां बढ़ते जाना जैसी स्थितियां बन रही हैं, जिनका सीधा रिश्तों पर असर पड़ता है।
आज बाजार इस कदर हावी है कि हम खुद को हर तरह से आत्मनिर्भर मानने लगे हैं
आज बाजार इस कदर हावी है कि हम अपने आपको हर तरह से आत्मनिर्भर मानने लगे हैं और यह अब हमारे व्यवहारों से झलकने लगा है कि मुझे किसी की जरूरत नहीं। इससे जीवन मूल्यों का भी ह्रास होने लगा है। भौतिक रूप से बने क्लोन पर तो रोक लगने की बातें भी हुई हैं, लेकिन रोबोट में भावनाएं डालने की बात अब की जा रही है। मगर क्या यह रोबोट हमारे सुख, दुख का साथी हो सकता है? आज कृत्रिम बुद्धिमत्ता का शोर जोरों पर है, लेकिन क्या वह कल्पना की उड़ान और उसके भाव पकड़ सकता है?
बाजार चमक रहे हैं, प्रचार हमें अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं। अब त्योहारों का मतलब मिलना-तुलना कम और दिखना-दिखाना होता जा रहा है, जिसमें ‘उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे’ की बू आती है। हम वस्तुवादी होते जा रहे हैं। कई मर्तबा हमें त्योहारों पर कपड़ों की जरूरत नहीं होती, तब भी हम खरीदारी कर रहे हैं, क्योंकि बाजार में नए चलन के कपड़े आ रहे हैं। त्योहारों पर मोबाइल या गाड़ी बदलना एक फैशन बनता जा रहा है। हम वस्तुओं में खुशियों को ढूंढ़ रहे हैं।
भीतर उठते तूफानों को समझिए, ध्यान से मिलेगा बेचैनी का समाधान
हमारे पास मोबाइल नहीं है या कोई वाहन नहीं है तो इसे लेने का एक तर्क हो सकता है, लेकिन क्या हर बार नया ब्रांड लेना अनिवार्य है? ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ की संस्कृति फल-फूल रही है। ये चीजों का फेंकना ही नहीं है, बल्कि रिश्तों का भी अपने जीवन से निकालना है। हम जैसे चीजों से व्यवहार करते हैं, वह हमारे व्यवहार करने के तरीके का हिस्सा बनता जाता है और फिर वह मानवीय व्यवहारों से भी अछूता नहीं रहता है।
तकनीक एक सुविधा है, समाधान नहीं है। हमें सहयोग और ज्ञान साझा करने वाली संस्कृति को बचाए रखने की जरूरत है, जिससे आपसी रिश्ते मजबूत हों। जीवन में मुश्किलें हर एक के साथ अलग-अलग तरह की हो सकती हैं, लेकिन हम कैसे सहजता से उनका सामना करते हैं, यही जीवन जीने की कला है। यह कला हम सबके अंदर है, उसे बचाए रखने की जरूरत है। उसकी चमक को धूप और अंधड़ों से बचाए रखना है।
आज कैलकुलेटर मनुष्य से अधिक सटीक तरीके और तेजी से गणना कर सकता है, लेकिन वह उपज मानव की ही है। मानव मस्तिष्क स्वाभाविक रूप से अवलोकन, सीखने और खोज के द्वारा विकसित हुआ है। मशीनों में कोई भावनात्मकता नहीं है। भावनाएं मानव मस्तिष्क को विकसित करने में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं। मशीन वही कर सकती है, जिसके लिए उसे बनाया गया है। मशीन नया नहीं रच सकती, लेकिन मनुष्य नया रच सकता है।
आज मशीनीकरण के चलते नया रचना कम होता जा रहा है। हमें सहयोग और ज्ञान साझा करने वाली ऐसी संस्कृति बनाने की जरूरत है, जिसमें रिश्ते मजबूत हों, उनमें स्नेह बचा रहे। इंसान सिर्फ दिमाग से ही नहीं, बल्कि अपने दिल से भी नियंत्रित होता है। मानव मस्तिष्क और हृदय निकटता से जुड़ा हुआ होता है। ये दोनों मिलकर उसे एक भावनात्मक रूप से संपूर्ण इंसान बनाते हैं, जिसका कोई तोड़ नहीं।