आजकल एक अजीब तरह का दौर चल रहा है, जिसमें किसी को किसी से मानो कोई लेना-देना न हो। सभी अपने आप में इस कदर मगन हैं कि वह कई बार अन्य पर ध्यान न देकर खुद में केंद्रित या लीन हो जाने की आदत लगती है। विभिन्न संदर्भ और उदाहरण के साथ बात की जाए तो हम अपने आसपास और हमारे सामने ही सब कुछ घटित होता पाएंगे। हमें कहीं कुछ तलाशने की आवश्यकता नहीं, बस हमारी समझ परिपक्व और दृष्टि पारखी होनी चाहिए। सामाजिक सरोकार भी मानो ऐसे व्यक्तियों की दृष्टि में खुद गढ़ा हुआ होता है, जो वे समझें, सोचें, देखें, प्रस्तुत करें, सब कुछ उचित ही होता है। इसमें उनके आत्ममुग्ध होने का भाव अंतर्निहित होता ही है, चाहे वे कुछ भी करें। इससे ग्रसित व्यक्ति अपना एक ‘लक्ष्य’ लेकर चलता है। अन्य क्या सोचते हैं, क्या कहते हैं, क्या कहेंगे, उन्हें कोई मतलब नहीं है। बस अपना काम किए जा रहे हैं। साहित्यिक, सामाजिक आसपास के परिवेश, सब जगह हमें ये दिख सकते हैं।
कुढ़ते रहिए, लेकिन सुनने वाला कोई नहीं है
इन दिनों एक बात जो तकलीफ दे रही है, उससे हम सब बेखबर नहीं होंगे। हममें से ज्यादातर को अक्सर इनका सामना करना पड़ा होगा। दरअसल, आजकल युवा, प्रौढ़ उम्र के लोग सड़कों पर दौड़ रहे हैं, चल रहे हैं, वे मोबाइल को कान और कंधे पर टिका कर बात करते हुए फर्राटे के साथ सड़कों पर दौड़ लगाते, बाइक पर ही टेढ़े हुए जा रहे हैं। कार वालों को देखें तो हम पाएंगे कि मुख्य सड़क की तीव्र लेन में भी कार चालक धीमी गति से कार चलाते हुए यातायात नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए वही कान और कंधे के बीच मोबाइल सुनते हुए बड़ी नजाकत से स्टीयरिंग थामे धीमे-धीमे गाड़ी चलाते हैं। पीछे से चाहे कोई उन्हें कैसे भी ध्यान दिलाने की कोशिश करे, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। किनारे होकर निकलने का रास्ता देने का तो सवाल ही नहीं उठता। अपनी दुनिया में सिमटे ये लोग प्रतिपल दुर्घटना का कारण भी बनते हैं। हम कितना ही कुढ़ते या चिड़चिड़ाते रहें, उनकी अपनी दुनिया है। वहीं वाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम, सब पर विभिन्न मुद्राओं की तस्वीरें साझा की जा रही होती हैं। वह भी ढेर सारी।
जमाना कब सतरंगी हो गया, पता ही नहीं चला
इसके अलावा, मोबाइल कैमरे ने मानो क्रांति-सी ला दी है। किसी कार्यक्रम में कौन मुख्य वक्ता, मुख्य अतिथि, आयोजक है, पता ही नहीं चलता। किसी भी कोने में फोटो सत्र चलते रहते हैं। जिस उद्देश्य से कार्यक्रम आयोजित हुआ है, लगभग गौण हो जाता है। व्यक्ति बैनर, पुस्तक, अतिथि के साथ तस्वीरें कब खिंचवा लेता, आयोजक को भी पता नहीं चलता। देखा और समझा जाए तो आत्ममुग्धता स्वयं से प्रेम करने का चरम कहा जा सकता है, जहां दूर-दूर तक किसी को जगह नहीं। बस केवल फोटो खिंचवाई और भूमिका खत्म। झटपट अभिव्यक्ति की कला में निपुण जन भला कहां रुकते हैं। सौंदर्यबोध के तो क्या कहने! रंगीन बाल… लाल, पीले, बैंगनी भांति-भांति के। दूसरी ओर, हम अब तक काली केशराशि में ही उलझे हुए हैं। जमाना कब सतरंगी हो गया, पता ही नहीं चला। विविध प्रकार से स्वयं को सुसज्जित करना, जिससे आकर्षण का केंद्र बने रहें। नजर पड़े कहीं भी। कैसे भी मंच पर स्वयं को प्रस्तुत करने में ये जुगाड़ भी कर लेते हैं।
परिवेश में जो कुछ भी मनुष्य को प्रत्यक्ष-परोक्ष दिखाई देता है, वह उससे बहुत प्रभावित होता है। बाग या कोई भी सुंदर प्रस्तर प्रतिमा कलाकृति के साथ विभिन्न मुद्राएं बनाए फोटो खिंचवाते बच्चे, बूढ़े, जवान, सब नजर आते हैं। आत्ममुग्धता के दौर में सामाजिक सरोकार और संवाद छूटते जा रहे हैं। व्यर्थ की प्रतिस्पर्धा और स्वयं को किसी भी रूप में अभिव्यक्त करने की प्रवृत्ति ने मनुष्य को भीतर से कितना खोखला कर दिया है, शायद यह आत्ममुग्धता से ग्रसित लोग नहीं जानते।
अजब-गजब किस्से इन दिनों देखने को मिल रहे हैं। समय परिस्थितियां प्रमुख होती हैं। यही सुनते आए हैं, पर इन दिनों समयानुसार स्वयं को सिद्ध करने पर तुले लोगों की मानो बाढ़-सी आ गई है। इसलिए नहीं कि उसकी चेतना शक्ति परिपक्वता को प्राप्त हो गई है, बल्कि ये आत्मज्ञान उसे अच्छी तरह हो गया है कि उसे क्या करना है, जिससे वह सबकी प्रशंसा का पात्र बन जाए। कहीं रहने, कहीं जाने की उसकी उपस्थिति येन केन प्रकारेण दर्ज हो जाए। बस इतना ही ऐसे लोगों को आत्मिक तुष्टि और आनंद भी प्रदान करता है। झूठी प्रशंसा से दिग्भ्रमित व्यक्ति इतना आत्मविस्मृत, आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध है कि उसे यह अहसास ही नहीं होता उसने क्या खो दिया है या क्या खो रहा है। संवेदना के सूखते स्रोत ने उसे वास्तव में यंत्रवत बना दिया है, जहां उसके बनाए दायरे हैं, जहां सरलमना व्यक्ति की पहुंच नहीं है।
आत्मकेंद्रित होते व्यक्ति के पास दूसरे के लिए समय का अभाव है। किसी का दुख-दर्द सुनने की फुर्सत भला किसे है। सब अपने आप में मस्त मगन हैं। सामाजिक सरोकार के अंतर्गत मनुष्य स्वयं को भूल कर अन्य को प्रमुख मानकर अपना सर्वश्रेष्ठ साझा करता है। यही उसकी कोशिश रहती है। हम अपनी सामर्थ्य के अनुसार किसी के लिए कुछ कर पाएं, यही मनुष्यता का प्रमुख गुण है। लेकिन सब कुछ बदल रहा है। चिंता का विषय यही है। इसलिए सबको साथ लेकर चलने और आसपास भी दृष्टि दौड़ाने की जरूरत है। किसी बुजुर्ग को रास्ता पार कराया जाए, चिड़ियों की चहचहाहट सुनी जाए, कुछ अव्यवस्थित दिखे तो उसे व्यवस्थित करने में सहयोग प्रदान किया जाए, परिवार को समय दे खुशियां बांटी जाएं, फिर देखिए कि जादू दुनिया कितनी खूबसूरत है।